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Thursday, December 24, 2020

अनुवाद का अर्थ एवं परिभाषाएं

 अनुवाद एक भाषा की बात को दूसरी भाषा में व्यक्त करने का नाम है। जिसकी उत्पत्ति अनु+वाद के संयोग से हुई है। जिसका अर्थ है


— बाद में कहना अर्थात् पहले कही हुई बात को पुनः नए सिरे से उसी भाषा या अन्य भाषा कहना ही अनुवाद है। हिंदी में इसके लिए उल्था, तर्जुमा, भाषांतर, व्याख्या, अनुवचन, लिप्यंतरण इत्यादि शब्द हैं। जबकि अंग्रेजी में इसके लिए Translation शब्द को पर्याय रूप में चुना गया है।

          जब पर्याय की बात प्रबल हुई तो अन्य भाषाओं में अनुवाद की प्रक्रिया भी तीव्र हुई। फलतः विद्वानों ने अनेक भाषाओं के अनुवाद के दौरान होने वाली कठिनाईयों और सुलभता को आकंते हुए इसके लिए कुछ सिद्धांत दिए हैं। जिन पर आगे चलकर विभिन्न आधारों पर अनुवाद सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया। उन्हीं सिद्धांतों की चर्चा नीचे की जाएगी।

अनुवाद संबंधी सिद्धांतों पर स्वतंत्र ग्रंथों का लेखन वस्तुतः बीसवीं शताब्दी से आरंभ हुआ है। इसी शताब्दी के दौरान साहित्यिक और भाषा-वैज्ञानिक पत्रिकाओं में अनुवाद पर लेखों का प्रकाशन आरंभ हुआ और अनुवाद संबंधी पत्रिकाएँ आरंभ हुई। विभिन्न कालों में पश्चिम में अनुवाद को तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। कुछ परिभाषाएँ हैं—

जे. सी. केटफोर्ट के अनुसार— अनुवाद स्रोत भाषा की पाठ-सामग्री को लक्ष्य भाषा के समानार्थी पाठ में प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया है।

सेंट जेरोम के अनुसार – अनुवाद में भाव की जगह भाव होना चाहिए न कि शब्द की जगह शब्द।

संदर्भ ग्रंथसूची बनाने का आसान तरीका

 संदर्भ ग्रंथसूची

Friday, December 18, 2020

माता पिता का सम्मान करने के उपाय

  माता पिता का सम्मान करने के उपाय

1. उनकी उपस्थिति में अपने फोन को दूर रखो.

2. वे क्या कह रहे हैं इस पर ध्यान दो.

3. उनकी राय स्वीकारें.

4. उनकी बातचीत में सम्मिलित हों.

5. उन्हें सम्मान के साथ देखें.

6. हमेशा उनकी प्रशंसा करें.

7. उनको अच्छा समाचार जरूर बताएँ.

8. उनके साथ बुरा समाचार साझा करने से बचें.

9. उनके दोस्तों और प्रियजनों से अच्छी तरह से बोलें.

10. उनके द्वारा किये गए अच्छे काम सदैव याद रखें.

11. वे यदि एक ही कहानी दोहरायें तो भी ऐसे सुनें जैसे पहली बार सुन रहे हो.

12. अतीत की दर्दनाक यादों को न दोहरायें.

13. उनकी उपस्थिति में कानाफ़ूसी न करें.

14. उनके साथ तमीज़ से बैठें.

15. उनके विचारों को न तो घटिया बताये न ही उनकी आलोचना करें.

16. उनकी बात काटने से बचें.

17. उनकी उम्र का सम्मान करें.

18. उनके आसपास उनके पोते/पोतियों को अनुशासित करने अथवा मारने से बचें.

19. उनकी सलाह और निर्देश स्वीकारें.

20. उनका नेतृत्व स्वीकार करें.

21. उनके साथ ऊँची आवाज़ में बात न करें.

22. उनके आगे अथवा सामने से न चलें.

23. उनसे पहले खाने से बचें.

24. उन्हें घूरें नहीं.

25. उन्हें तब भी गौरवान्वित प्रतीत करायें जब कि वे अपने को इसके लायक न समझें.

26. उनके सामने अपने पैर करके या उनकी ओर अपनी पीठ कर के बैठने से बचें.

27. न तो उनकी बुराई करें और न ही किसी अन्य द्वारा की गई उनकी बुराई का वर्णन करें.

28. उन्हें अपनी प्रार्थनाओं में शामिल करें.

29. उनकी उपस्थिति में ऊबने या अपनी थकान का प्रदर्शन न करें.

30. उनकी गलतियों अथवा अनभिज्ञता पर हँसने से बचें.

31. कहने से पहले उनके काम करें.

32. नियमित रूप से उनके पास जायें.

33. उनके साथ वार्तालाप में अपने शब्दों को ध्यान से चुनें.

34. उन्हें उसी सम्बोधन से सम्मानित करें जो वे पसन्द करते हैं.

35. अपने किसी भी विषय की अपेक्षा उन्हें प्राथमिकता दें.

Sunday, November 29, 2020

रामचरित मानस के कुछ रोचक तथ्

 रामचरित मानस के कुछ रोचक तथ्य


1:~लंका में राम जी = 111 दिन रहे।

2:~लंका में सीताजी = 435 दिन रहीं।

3:~मानस में श्लोक संख्या = 27 है।

4:~मानस में चोपाई संख्या = 4608 है।

5:~मानस में दोहा संख्या = 1074 है।

6:~मानस में सोरठा संख्या = 207 है।

7:~मानस में छन्द संख्या = 86 है।

8:~सुग्रीव में बल था = 10000 हाथियों का।

9:~सीता रानी बनीं = 33वर्ष की उम्र में।

10:~मानस रचना के समय तुलसीदास की उम्र = 77 वर्ष थी।

11:~पुष्पक विमान की चाल = 400 मील/घण्टा थी।

12:~रामादल व रावण दल का युद्ध = 87 दिन चला।

13:~राम रावण युद्ध = 32 दिन चला।

14:~सेतु निर्माण = 5 दिन में हुआ।


15:~नलनील के पिता = विश्वकर्मा जी हैं।

16:~त्रिजटा के पिता = विभीषण हैं।


17:~विश्वामित्र राम को ले गए =10 दिन के लिए।

18:~राम ने रावण को सबसे पहले मारा था = 6 वर्ष की उम्र में।

19:~रावण को जिन्दा किया = सुखेन बेद ने नाभि में अमृत रखकर।


श्री राम के दादा परदादा का नाम क्या था?

नहीं तो जानिये-

1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,

2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,

3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,

4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,

5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |

6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,

7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,

8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,

9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,

10- अनरण्य से पृथु हुए,

11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,

12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,

13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,

14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,

15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,

16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,

17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,

18- भरत के पुत्र असित हुए,

19- असित के पुत्र सगर हुए,

20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,

21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,

22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,

23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |

24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |

25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,

26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,

27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,

28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,

29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,

30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,

31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,

32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,

33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,

34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,

35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,

36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,

37- अज के पुत्र दशरथ हुए,

38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |

इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ | शेयर करे ताकि हर हिंदू इस जानकारी को जाने..।

Saturday, November 28, 2020

भारतेन्दु हरिश्चंद के अनूदित नाटक

 भारतेन्दु हरिश्चंद के अनूदित नाटक  

रत्नावली (1868), 

धनंजय विजय(1873), 

पाखण्ड विडंबन(1872), 

मुद्राराक्षस (1875), 

कर्पूरमंजरी (1876), 

दुर्लभ बंधु (1880), 

विद्यासुन्दर आदि अनूदित नाटक हैं जो संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी से अनूदित हैं। विद्यासुन्दर रूपान्तरित नाटक है।


Monday, November 9, 2020

पेट के रोग और उनके समाधान

 पेट के रोग


अरूचि

*पहला प्रयोगः सोंठ और गुड़ को चाटने से अथवा लहसुन की कलियों को घी में तलकर रोटी के साथ खाने से अरूचि मिटती है।


*दूसरा प्रयोगः नींबू की दो फाँक करके उसके ऊपर सोंठ, काली मिर्च एवं जीरे का पाउडर तथा सेंधा नमक डालकर थोड़ा-सा गर्म करके चूसने से अरूचि मिटती है।


*तीसरा प्रयोगः अनार के रस में सेंधा नमक व शहद मिलाकर लेने से लाभ होता है।


 

 *💫आफरा व पेटदर्द

 *पहला प्रयोगः पेट पर हींग लगाने तथा हींग की चने जितनी गोली को घी के साथ निगलने से आफरा मिटता है।


*दूसरा प्रयोगः छाछ में जीरा एवं सेंधा नमक या काला नमक डालकर पीने से पेट नहीं फूलता।


*तीसरा प्रयोगः 1 से 2 ग्राम काले नमक के साथ उतनी ही सोनामुखी खाने से वायु का गोला मिटता है।


*चौथा प्रयोगः भोजन के पश्चात् पेट भारी होने पर 4-5 इलायची के दाने चबाकर ऊपर से नींबू का पानी पीने से पेट हल्का होता है।


*पाँचवाँ प्रयोगः गर्म पानी के साथ सुबह-शाम 3 ग्राम त्रिफला चूर्ण लेने से पत्थर जैसा पेट मखमल जैसा नर्म हो जाता है।


*छठा प्रयोगः अदरक एवं नींबू का रस 5-5 ग्राम एवं 3 काली मिर्च का पाउडर दिन में दो-तीन बार लेने से उदरशूल मिटता है।


*सातवाँ प्रयोगः काली मिर्च के 10 दानों को गुड़ के साथ पकाकर खाने से लाभ होता है।


*आठवाँ प्रयोगः प्रातःकाल एक गिलास पानी में 20-25 ग्राम पुदीने का रस व 20-25 ग्राम शहद मिलाकर पीने से गैस की बीमारी में विशेष लाभ होता है।


नौवाँ प्रयोगः

 पेट में दर्द रहता हो व आँतें ऊपर की ओर आ गई है ऐसा आभास होता हो तो पेट पर अरण्डी का तेल लगाकर आक के पत्ते को थोड़ा गर्म करके बाँध दें। एक घंटे तक बँधा रहने दें। रात को एक चम्मच अरण्डी का तेल व एक चम्मच शिवा का चूर्ण लें। गोमूत्र का सेवन हितकर है। पचने में भारी हो ऐसी वस्तुएँ न खायें।


दसवाँ प्रयोगः

 वायु के प्रकोप के कारण पेट के फूलने एवं अपानवायु के न निकलने के कारण पेट का तनाव बढ़ जाता है। जिससे बहुत पीड़ा होती है एवं चलना भी मुश्किल हो जाता है। अजवायन एवं काला नमक को समान मात्रा में मिलाकर इस मिश्रण को गर्म पानी के साथ एक चम्मच लेने से उपरोक्त पीड़ा में लाभ होता है।



Friday, October 30, 2020

जुगल किशोर जैथलिया

 कर्मपथ के पथिक जुगल किशोर जैथलिया


राजस्थान में जन्म लेकर कोलकाता को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले श्री जुगल किशोर जैथलिया का जन्म दो अक्तूबर, 1937 को छोटीखाटू (जिला नागौर) में हुआ था। उनके पिता श्री कन्हैया लाल एवं माता श्रीमती पुष्पादेवी थीं। अकेले पुत्र होने के कारण 15 वर्ष में ही उनका विवाह कर दिया गया। 


1953 में वे कोलकाता आ गये, जहां उनके पिताजी एक राजस्थानी फर्म में काम करते थे। जुगलजी ने यहां काम के साथ पढ़ाई जारी रखी और कानून और एम.काॅम की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान वे एक वकील के पास बैठने लगे और फिर अलग से आयकर सलाहकार के रूप में काम शुरू कर दिया।


जुगलजी का रुझान साहित्यिक गतिविधियों की ओर विशेष था। कोलकाता आकर भी वे अपनी जन्मभूमि से जुड़े रहे। उन्होंने अपने मित्रों के साथ 1958 में ‘श्री छोटीखाटू हिन्दी पुस्तकालय’ की स्थापना की। यहां पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन के साथ विचार गोष्ठियां भी होती थीं, जिसमें वे सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक जगत की बड़ी हस्तियों को बुलाते थे। 


पुस्तकालय के भवन का उद्घाटन उन्होंने प्रख्यात साहित्यकार वैद्य गुरुदत्त से कराया। इससे उस गांव की पहचान पूरे प्रदेश में हो गयी। इसके बाद ‘पंडित दीनदयाल साहित्य सम्मान’ तथा ‘महाकवि कन्हैयालाल सेठिया मायड़ भाषा सम्मान’ प्रारम्भ किये। कई स्मारिकाएं भी प्रकाशित की गयीं। गांव में टेलीफोन, पेयजल, अस्पताल जैसे लोक कल्याण के कामों में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।


कोलकाता में राजस्थान परिषद, सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय, बड़ाबाजार लाइब्रेरी आदि के उन्नयन में उनकी भूमिका सदा याद की जाएगी। 1973 में उन्होंने ‘श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय’ का काम संभाला और उसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलाई। इसमें श्री विष्णुकांत शास्त्री का भी विशेष योगदान रहा। 


उनके संयोजन में आपातकाल के दौरान हल्दीघाटी चतुःशती समारोह एवं कवि सम्मेलन हुआ। 1994 में अटल बिहारी वाजपेयी का एकल काव्यपाठ तो अद्भुत था। आज अटलजी की जो कविताएं उनके स्वर में उपलब्ध हैं, वे उसी कार्यक्रम की देन हैं। संस्था द्वारा 1986 से ‘स्वामी विवेकानंद सेवा सम्मान’ तथा 1990 से ‘डा. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान’ भी दिया जा रहा है। 


जुगलजी स्मारिकाओं के प्रकाशन पर विशेष जोर देते थे। इससे जहां संस्था की आर्थिक स्थिति सुधरती थी, वहां उस विषय पर अधिकृत जानकारी भी पाठकों को उपलब्ध होती थी। गद्य एवं पद्य के कई गं्रथों का सम्पादन उन्होंने स्वयं किया। 65 वर्ष के होने पर उन्होंने वकालत छोड़ दी और पूरा समय सामाजिक कामों में लगाने लगे। 


वे कोलकाता की कई संस्थाओं के सदस्य थे। उनके प्रयास से कोलकाता में महाराणा प्रताप की स्मृति में एक पार्क तथा सड़क का नामकरण हुआ तथा एक बड़ी कांस्य प्रतिमा स्थापित हुई। वे भारत सरकार द्वारा संचालित ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के निदेशक एवं न्यासी भी थे। उनके प्रयास से इस संस्था ने राजस्थानी भाषा में भी पुस्तकें प्रकाशित कीं।


जुगलजी 1946 में अपने गांव में शाखा जाने लगे थे। कोलकाता में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और फिर संघ में सक्रिय रहे। उन पर महानगर बौद्धिक प्रमुख और फिर प्रांत के सह बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी रही। 1982 में वे भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर जोड़ाबागान विधानसभा से चुनाव लड़े। वे बंगाल भा.ज.पा. के कोषाध्यक्ष तथा वरिष्ठ उपाध्यक्ष भी रहे। 


कोलकाता में बड़ी संख्या में राजस्थानी व्यापारी रहते हैं। अपने मूल स्थानों के अनुसार उनकी संस्थाएं भी हैं। उन्हें एक साथ लाने और संघ से जोड़ने में जुगलजी की भूमिका बड़े महत्व की रही। वे पृष्ठभूमि में रहकर सभी शैक्षिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं का सहयोग करते थे। अनेक सम्मानों से विभूषित जुगल किशोर जैथलिया का एक जून, 2016 को कोलकाता में ही निधन हुआ। 


Wednesday, October 28, 2020

गणेश शंकर विद्यार्थी


गणेशशंकर विद्यार्थी 


श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद के घर में 25 अक्तूबर, 1890 को हुआ था। इनके नाना सहायक जेलर थे। इनके पुरखे जिला फतेहपुर (उ.प्र.) के हथगाँव के मूल निवासी थे; पर जीवनयापन के लिए इनके पिता श्री जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना, मध्य प्रदेश के गंगवली कस्बे में बस गये। वहीं गणेश को स्थानी jiय एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में भर्ती करा दिया गया। 


अंग्रेजी शासन के विरुद्ध सामग्री से भरपूर प्रताप समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे। अतः प्रताप की लोकप्रियता बढ़ने लगी। दूसरी ओर वह अंग्रेज शासकों की निगाह में भी खटकने लगा। 1920 में विद्यार्थी जी ने प्रताप को साप्ताहिक के बदले दैनिक कर दिया। इससे प्रशासन बौखला गया। उसने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।


इतनी बाधाओं के बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ। उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिए जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, विद्यार्थी जी उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। इतना ही नहीं, वे क्रान्तिकारियों की भी हर प्रकार से सहायता करते थे। उनके लिए रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरणपोषण की भी चिन्ता वे करते थे। 

क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।


स्वतन्त्रता आन्दोलन में पहले तो मुसलमानों ने अच्छा सहयोग दिया; पर फिर वे पाकिस्तान की माँग करने लगे। भगतसिंह आदि की फांसी का समाचार अगले दिन 24 मार्च, 1931 को देश भर में फैल गया। लोगों ने जुलूस निकालकर शासन के विरुद्ध नारे लगाये। इससे कानपुर में मुसलमान भड़क गये और उन्होंने भयानक दंगा किया। विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या को भंग होते देख बौखला गये। वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े। 


दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे। उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उनकी लाश के बदले केवल एक बाँह मिली, जिस पर लिखे नाम से वे पहचाने गये। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब धर्मान्धता की बलिवेदी पर भारत माँ के सपूत गणेशशंकर विद्यार्थी का बलिदान हुआ।


Saturday, October 24, 2020

 

 

अनुवाद के सिद्धांत

अनुवाद एक भाषा की बात को दूसरी भाषा में व्यक्त करने का नाम है। जिसकी उत्पत्ति अनु+वाद के संयोग से हुई है। जिसका अर्थ है


बाद में कहना अर्थात् पहले कही हुई बात को पुनः नए सिरे से उसी भाषा या अन्य भाषा कहना ही अनुवाद है। हिंदी में इसके लिए उल्था, तर्जुमा, भाषांतर, व्याख्या, अनुवचन, लिप्यंतरण इत्यादि शब्द हैं। जबकि अंग्रेजी में इसके लिए Translation शब्द को पर्याय रूप में चुना गया है।

          जब पर्याय की बात प्रबल हुई तो अन्य भाषाओं में अनुवाद की प्रक्रिया भी तीव्र हुई। फलतः विद्वानों ने अनेक भाषाओं के अनुवाद के दौरान होने वाली कठिनाईयों और सुलभता को आकंते हुए इसके लिए कुछ सिद्धांत दिए हैं। जिन पर आगे चलकर विभिन्न आधारों पर अनुवाद सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया। उन्हीं सिद्धांतों की चर्चा नीचे की जाएगी।

अनुवाद संबंधी सिद्धांतों पर स्वतंत्र ग्रंथों का लेखन वस्तुतः बीसवीं शताब्दी से आरंभ हुआ है। इसी शताब्दी के दौरान साहित्यिक और भाषा-वैज्ञानिक पत्रिकाओं में अनुवाद पर लेखों का प्रकाशन आरंभ हुआ और अनुवाद संबंधी पत्रिकाएँ आरंभ हुई। विभिन्न कालों में पश्चिम में अनुवाद को तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। कुछ परिभाषाएँ हैं—

जे. सी. केटफोर्ट के अनुसारअनुवाद स्रोत भाषा की पाठ-सामग्री को लक्ष्य भाषा के समानार्थी पाठ में प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया है।

सेंट जेरोम के अनुसार अनुवाद में भाव की जगह भाव होना चाहिए न कि शब्द की जगह शब्द।[1]

अनुवाद सिद्धांत अनुवाद सिद्धांत मुख्यतः निम्न प्रकार के हो सकते हैं    

समतुल्यता का सिद्धांत

समतुल्यता का सिद्धांत अनुवाद सिद्धांतों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कैटफोर्ड इस सिद्धांत के प्रवर्तक माने जाते हैं। कैटफोर्ट का मानना था कि स्रोत भाषा की पाठ्यसामग्री को लक्ष्य भाषा की सभ्यता में स्थापित करना ही अनुवाद है। इन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में गंभीरता से विचार करते हुए योजना एवं समतुल्यता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। सूक्ष्मता से विचार करने पर ज्ञात होता है कि विभिन्न भाषाओं में शत-प्रतिशत समतुल्यता संभव नहीं। अतः अनुवाद में भी उतनी समतुल्यता नहीं हो सकती। अच्छा अनुवाद मूल के निकट हो सकता है मूल नहीं। यह तभी संभव है जब अनुवादक को स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा दोनों का अच्छा ज्ञान होता हो। समतुल्यता के लिए अनुवादक को अन्य विषय का भी पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। यह अनुवादक का अत्यंत अपेक्षित गुण है। जिससे अनुवाद मूल के निकट जाकर मूल की ही भांति प्रतीत हो सके।

 

व्याख्या का सिद्धांत

व्याख्या का सिद्धांत पाश्चात्य और भारतीय दृष्टिकोण दोनों में ही अनुवाद को ही व्याख्या माना गया है। जेम्स होम्स ने भी अनुवाद को व्याख्या ही माना है। अनुवादक को कुछ जगह अनिवार्यता व्याख्या का सहारा लेना ही पड़ता है। भाषाओं की लोकोक्तियां, मुहावरें, स्थानीय युक्तियाँ इत्यादि सामाजिक संदर्भ का शाब्दिक अनुवाद संभव नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में अनुवादक को अनुवाद के लिए सिद्धांत का विनियोग करना पड़ता है। व्याख्या से अनुवाद करने के लिए लक्ष्य भाषा वही अर्थ निकले इसके लिए पाद टिप्पणी का प्रयोग किया जाता है। इस सिद्धांत की सबसे बड़ी सीमा यह है कि आवश्यकता से अधिक व्याख्या होने पर अनुवाद अपनी सार्थकता खो देता है। अतः अनुवादक को विशेष सावधान रहना चाहिए कि काव्य तत्व को स्पष्ट करने के लिए ही व्याख्या का प्रयोग करे न की स्वयं की दक्षता को प्रदर्शित करने के लिए। उदाहरणतः AIIMS को करने पर स्पष्ट भाव व्यक्त होते हैं। इसलिए इसकी व्याख्या ऑल इंडिया इंस्टीयूट ऑफ मेडिकल साइंसेज या अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान कहना उपयुक्त रहा।

 

अर्थसंप्रेषण का सिद्धांत

भाषा-संवाद अनुवाद की सार्थकता को यथावत बनाए रखने में अर्थ संप्रेषण की भूमिका अतुलनीय है। प्रायः सभी भाषा वैज्ञानिक और अनुवाद चिंतक इस बात से सहमत हैं कि अर्थ अनुवाद का मुख्य तत्त्व है। अर्थ संप्रेषित न होने पर अनुवाद निरर्थक हो जाता है। डॉ. जॉनसन का मत हैअर्थ को बनाएं रखते हुए किसी अन्य भाषा में अंतरण करना ही अनुवाद है। अनुवादक को विशेष ध्यान रखना चाहिए कि अपनी सीमा में रहते हुए अर्थ संप्रेषण की दृष्टि से वह लेखक के निकट रहे। अनुवाद मूल की छाया होती है किंतु मूल नहीं। वस्तुतः अनुवादक सदैव अनुवाद में कुछ जोड़ता और घटता रहता है। क्योंकि अर्थ के लिए शत-प्रतिशत अनुवाद संभव नहीं। इसलिए हर अनुवादक यह प्रयास करता है कि वह श्रेष्ठ अनुवाद करके मूल के निकट जा सके। मूल के निकट जाने वाला अनुवाद ही श्रेष्ठ समझा जाता है।

 

सांस्कृतिक संदर्भों के एकीकरण का सिद्धांत

इस सिद्धांत को सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री मर्लिनो बख्शी ने प्रतिपादित किया है। अनुवाद का सांस्कृतिक महत्त्व सर्वविदित है कि अनुवाद एक सांस्कृतिक सेतु है। प्रत्येक भाषा की अपनी संस्कृति होती है। यही कारण है कि सांस्कृतिक पक्ष से संबंधित अभिव्यक्तियों के अनुवाद में विशेष कठिनाई होती है। स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के सांस्कृतिक संदर्भों को भली-भांति समझकर अनुवाद करना उपयुक्त होता है। मैलिनोवस्की मानते हैं कि अनुवाद संस्कृत संदर्भों का एकीकरण है। यही विचार अंग्रेजी अनुवाद चिंतक देने है— वह मानते हैं कि अनुवाद भाषाओं का अंतरण नहीं अपितु संस्कृतियों का अंतर है। इसलिए अनुवाद सिद्धांत के अंतर्गत सांस्कृतिक संदर्भों का एकीकरण चिंतन अनुवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन करती है। यही कारण है कि भारत विश्व-बधुंत्व की भावना को साकार करते हुए एकीकरण की भावना पर बल देता है। अनुवाद के कारण ही आज संपूर्ण विश्व एक ग्राम रूप में प्रतिष्ठापित होता जा रहा है।

 

निष्कर्षतः अनुवाद सिद्धांत निरूपण यद्यपि इस शताब्दी की महत्त्वपूर्ण घटना है। किंतु अनुवाद संबंधी विवेचन सैकड़ों वर्षों से हो रहा है। पश्चिम में इसकी एक सुधीर परंपरा रही है। बाईबल के अनुवाद के माध्यम से अनुवाद की प्रक्रिया और स्वरूप पर बहुत विचार हुआ है। भारत में भी अनुवाद की परंपरा से अनुवाद के अन्य सूत्र मिले हैं। इस पूरे विवेचन से स्पष्ट है कि अनुवाद के मुख्यतःउपर्युक्त सिद्धांत है। जिसमें व्याख्या का सिद्धांत, अर्थ-संप्रेषण का सिद्धांत और संदर्भों के एकीकरण का सिद्धांत है। अंततः अनुवाद विभिन्न विचारधाराओं को एक माला में मोती की भांति संग्रहित रूप में प्रस्तुत करने की अतुलनीय कला है। अर्थात् अनुवाद की एक सूक्ष्म चर्चा पाश्चात्य क्षेत्र में मिलती है। भारत में अनुवाद की परंपरा के सूत्र एक लंबे समय से विद्यमान है।

 

संदर्भ ग्रंथसूची

·       गुप्त अवधेश मोहन, अनुवाद विज्ञानः सिद्धांत और सिद्धि, एक्सप्रेस बुक सर्विस, दिल्ली।

·       नवीन,देवशंकर, अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य, प्रकाशन  विभाग, प्रथम संस्करण, दिल्ली।

·       खन्ना, संतोष, अनुवाद के नये परिप्रेक्ष्य, विधि भारती परिषद, दिल्ली, प्रथम संस्करण, दिल्ली।

·       सिंह, डॉ. रामगोपाल, अनुवाद विज्ञान, शांति प्रकाशन, दिल्ली।

 

नाम- सुमन 

कार्य- ज्वाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (शोधार्थी)

ईमेल आई डी- sumankumari10191@gmail.com         

ब्लॉग- sumansharmahot.blogspot.com

 

 

 

 

 

 

 



[1] गुप्त अवधेश मोहन, अनुवाद विज्ञानः सिद्धांत और सिद्धि, पृ-18

Sunday, October 11, 2020

तैंतीस कोटि देव

तैंतीस कोटि देव


*🔶भारतवर्ष में देवों का वर्णन बहुत रोचक है। देवों की संख्या तैंतीस करोड़ बतायी जाती है और इसमें नदी , पेड़ , पर्वत , पशु और पक्षी भी सम्मिलित कर लिये गये है, पर वास्तव में ये 33 करोड़ नही 33 कोटि है यानी प्रकार।ऐसी स्तिथि में यह बहुत आवश्यक है कि शास्त्रों के वचन समझे जाएँ और वेदों की वास्तविक शिक्षाएँ ही जीवन में धारण की जाएँ।*


*🔶देव कौन 


*'देव' शब्द के अनेक अर्थ हैं :-*

*देवो दानाद् वा , दीपनाद् वा , द्योतनाद् वा , द्युस्थानो भवतीति वा। " (निरुक्त - ७ / १५) तदनुसार 'देव' का लक्षण है 'दान' अर्थात देना। जो सबके हितार्थ अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु और प्राण भी दे दे , वह देव है। देव का गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना । सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि को प्रकाश करने के कारण देव कहते हैं । देव का कर्म है 'द्योतन' अर्थात सत्योपदेश करना । जो मनुष्य सत्य माने , सत्य बोले और सत्य ही करे , वह देव कहलाता है। देव की विशेषता है 'द्युस्थान' अर्थात ऊपर स्थित होना । ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को , समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को,और राष्ट्र में ऊपर स्थित होने से राजा को भी देव कहते हैं। इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों के लिए होता है। हाँ , भाव और प्रयोजन के अनुसार अर्थ भिन्न - भिन्न होते हैं।

Monday, October 5, 2020

मंगल पांडे और नादिर शाह


मंगल पांडे( 4 अक्टूबर)


1857 के स्वाधीनता संग्राम की ज्योति को अपने बलिदान से जलाने वाले मंगल पाण्डे को तो सब जानते हैं; पर उनके नाम से काफी मिलते-जुलते बिहार निवासी जयमंगल पाण्डे का नाम कम ही प्रचलित है।


बैरकपुर छावनी में हुए विद्रोह के बाद देश की अन्य छावनियों में भी क्रान्ति-ज्वाल सुलगने लगी। बिहार में सैनिक क्रोध से जल रहे थे। 13 जुलाई को दानापुर छावनी में सैनिकों ने क्रान्ति का बिगुल बजाया, तो 30 जुलाई को रामगढ़ बटालियन की आठवीं नेटिव इन्फैण्ट्री के जवानों ने हथियार उठा लिये। भारत माता को दासता की जंजीरों से मुक्त करने की चाहत हर जवान के दिल में घर कर चुकी थी। बस, सब अवसर की तलाश में थे।


सूबेदार जयमंगल पाण्डे उन दिनों रामगढ़ छावनी में तैनात थे। उन्होंने अपने साथी नादिर अली को तैयार किया और फिर वे दोनों 150 सैनिकों को साथ लेकर राँची की ओर कूच कर गये। वयोवृद्ध बाबू कुँवरसिंह जगदीशपुर में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। इस अवस्था में भी उनका जीवट देखकर सब क्रान्तिकारियों ने उन्हें अपना नेता मान लिया था। जयमंगल पाण्डे और नादिर अली भी उनके दर्शन को व्याकुल थे। 11 सितम्बर, 1857 को ये दोनों अपने जवानों के साथ जगदीशपुर की ओर चल दिये।


वे कुडू, चन्दवा, बालूमारथ होते हुए चतरा पहुँचे। उस समय चतरा का डिप्टी कमिश्नर सिम्पसन था। उसे यह समाचार मिल गया था कि ये दोनों अपने क्रान्तिकारी सैनिकों के साथ फरार हो चुके हैं। उन दिनों अंग्रेज अधिकारी बाबू कुँवरसिंह से बहुत परेशान थे। उन्हें लगा कि इन दोनों को यदि अभी न रोका गया, तो आगे चलकर ये भी सिरदर्द बन जाएंगे। अतः उसने मेजर इंगलिश के नेतृत्व में सैनिकों का एक दल भेजा। उसमें 53 वें पैदल दस्ते के 150 सैनिकों के साथ सिख दस्ते ओर 170 वें बंगाल दस्ते के सैनिक भी थे। इतना ही नहीं, तो उनके पास आधुनिक शस्त्रों का बड़ा जखीरा भी था।


इधर वीर जयमंगल पाण्डे और नादिर अली को भी सूचना मिल गयी कि मेजर इंगलिश अपने भारी दल के साथ उनका पीछा कर रहा है। अतः उन्होंने चतरा में जेल के पश्चिमी छोर पर मोर्चा लगा लिया। वह दो अक्तूबर, 1857 का दिन था। थोड़ी देर में ही अंग्रेज सेना आ पहुँची।


जयमंगल पाण्डे के निर्देश पर सब सैनिक मर मिटने का संकल्प लेकर टूट पड़े; पर इधर संख्या और अस्त्र शस्त्र दोनों ही कम थे, जबकि दूसरी ओर ये पर्याप्त मात्रा में थे। फिर भी दिन भर चले संघर्ष में 58 अंग्रेज सैनिक मारे गये। उन्हें कैथोलिक आश्रम के कुँए में हथियारों सहित फेंक दिया गया। बाद में शासन ने इस कुएँ को ही कब्रगाह बना दिया।


इधर क्रान्तिवीरों की भी काफी क्षति हुई। अधिकांश सैनिकों ने वीरगति पायी। तीन अक्तूबर को जयमंगल पाण्डे और नादिर अली पकड़े गये। अंग्रेज अधिकारी जनता में आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए अगले दिन चार अक्तूबर को पन्सीहारी तालाब के पास एक आम के पेड़ पर दोनों को खुलेआम फाँसी दे दी गयी। बाद में इस तालाब को फाँसी तालाब, मंगल तालाब, हरजीवन तालाब आदि अनेक नामों से पुकारा जाने लगा। स्वतन्त्रता के बाद वहाँ एक स्मारक बनाया गया। उस पर लिखा है -


जयमंगल पाण्डेय नादिर अली दोनों सूबेदार रे

दोनों मिलकर फाँसी चढ़े हरजीवन तालाब रे।।


Friday, October 2, 2020

महाराष्ट्रपुरुष गांधी जी

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2 अक्तूबर/जन्म-दिवस


राष्ट्रपुरुष गांधी जी


मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म दो अक्तूबर, 1869 को पोरबन्दर( गुजरात) में हुआ था। उनके पिता करमचन्द गांधी पहले पोरबन्दर और फिर राजकोट के शासक के दीवान रहे। गांधी जी की माँ बहुत धर्मप्रेमी थीं। वे प्रायः रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों का पाठ करती रहती थीं। वे मन्दिर जाते समय अपने साथ मोहनदास को भी ले जाती थीं। इस धार्मिक वातावरण का बालक मोहनदास के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा।


बचपन में गांधी जी ने श्रवण की मातृ-पितृ भक्ति तथा राजा हरिश्चन्द्र नामक नाटक देखे। इन्हें देखकर उन्होंने माता-पिता की आज्ञापालन तथा सदा सत्य बोलने का संकल्प लिया। 13 वर्ष की छोटी अवस्था में ही उनका विवाह कस्तूरबा से हो गया। विवाह के बाद भी गांधी जी ने पढ़ाई चालू रखी। जब उन्हें ब्रिटेन जाकर कानून की पढ़ाई का अवसर मिला, तो उनकी माँ ने उन्हें शराब और माँसाहार से दूर रहने की प्रतिज्ञा दिलायी। गांधी जी ने आजीवन इस व्रत का पालन किया।


कानून की पढ़ाई पूरी कर वे भारत आ गये; पर यहाँ उनकी वकालत कुछ विशेष नहीं चल पायी। गुजरात के कुछ सेठ अफ्रीका से भी व्यापार करते थे। उनमें से एक दादा अब्दुल्ला के वहाँ कई व्यापारिक मुकदमे चल रहे थे। उन्होंने गांधी जी को उनकी पैरवी के लिए अपने खर्च पर अफ्रीका भेज दिया। अफ्रीका में उन्हें अनेक कटु अनुभव हुए। वहाँ भी भारत की तरह अंग्रेजों का शासन था। वे स्थानीय काले लोगों से बहुत घृणा करते थे।


एक बार गांधी जी प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर रेल में यात्रा कर रहे थे; एक स्टेशन पर रात में उन्हें अंग्रेज यात्री के लिए अपनी सीट छोड़ने को कहा गया। मना करने पर उन्हें सामान सहित बाहर धक्का दे दिया गया। इसका उनके मन पर बहुत गहरा असर पड़ा। उन्होंने अफ्रीका में स्थानीय नागरिकों तथा भारतीयों के अधिकारों के लिए सत्याग्रह के माध्यम से संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली।


इससे उत्साहित होकर वे भारत लौटे और कांग्रेस में शामिल होकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने लगे। उनकी इच्छा थी कि भारत के सब लोग साथ मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला करें। इसके लिए उन्होंने मुसलमानों से अनेक प्रकार के समझौते किये, जिससे अनेक लोग उनसे नाराज भी हो गये; पर वे अपने सिद्धान्तों पर अटल रहकर काम करते रहे।


सविनय अवज्ञा, दाण्डी यात्रा, अंग्रेजो भारत छोड़ो..आदि आन्दोलनों में उन्होंने लाखों लोगों को जोड़ा। जब अंग्रेजों ने अलग चुनाव के आधार पर हिन्दू समाज के वंचित वर्ग को अलग करना चाहा, तो गांधी जी ने आमरण अनशन कर इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। 15 अगस्त, 1947 को देश को स्वतन्त्रता मिली; पर देश का विभाजन भी हुआ। अनेक लोगों ने विभाजन के लिए उन्हें और कांग्रेस को दोषी माना।


उन दिनों देश मुस्लिम दंगों से त्रस्त था। विभाजन के दौरान लाखों हिन्दू मारे गये थे। फिर भी गांधी जी हिन्दू-मुस्लिम एकता के पीछे पड़े थे। इससे नाराज होकर नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को सायंकाल प्रार्थना सभा में जाते समय उन्हें गोली मार दी। गांधी जी का वहीं प्राणान्त हो गया।


गांधी जी के ग्राम्य विकास एवं स्वदेशी अर्थ व्यवस्था सम्बन्धी विचार आज भी प्रासंगिक हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि जिन नेहरू जी को उन्होंने जिदपूर्वक प्रधानमन्त्री बनाया, उन्होंने ही उनके सब विचारों को ठुकरा दिया।

Tuesday, September 29, 2020

भगतसिंह

28 सितम्बर/जन्म-दिवस

इन्कलाब जिन्दाबाद के उद्धघोषक भगतसिंह


क्रान्तिवीर भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को ग्राम बंगा, (जिला लायलपुर, पंजाब) में हुआ था। उसके जन्म के कुछ समय पूर्व ही उसके पिता किशनसिंह और चाचा अजीतसिंह जेल से छूटे थे। अतः उसे भागों वाला अर्थात भाग्यवान माना गया। घर में हर समय स्वाधीनता आन्दोलन की चर्चा होती रहती थी। इसका प्रभाव भगतसिंह के मन पर गहराई से पड़ा। 


13 अपै्रल 1919 को जलियाँवाला बाग, अमृतसर में क्रूर पुलिस अधिकारी डायर ने गोली चलाकर हजारों नागरिकों को मार डाला। यह सुनकर बालक भगतसिंह वहाँ गया और खून में सनी मिट्टी को एक बोतल में भर लाया। वह प्रतिदिन उसकी पूजा कर उसे माथे से लगाता था। 


भगतसिंह का विचार था कि धूर्त अंग्रेज अहिंसक आन्दोलन से नहीं भागेंगे। अतः उन्होंने आयरलैण्ड, इटली, रूस आदि के क्रान्तिकारी आन्दोलनों का गहन अध्ययन किया। वे भारत में भी ऐसा ही संगठन खड़ा करना चाहते थे। विवाह का दबाव पड़ने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और कानपुर में स्वतन्त्रता सेनानी गणेशशंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम करने लगे। 


कुछ समय बाद वे लाहौर पहुँच गये और ‘नौजवान भारत सभा’ बनायी। भगतसिंह ने कई स्थानों का प्रवास भी किया। इसमें उनकी भेंट चन्द्रशेखर आजाद जैसे साथियों से हुई। उन्होंने कोलकाता जाकर बम बनाना भी सीखा। 


1928 में ब्रिटेन से लार्ड साइमन के नेतृत्व में एक दल स्वतन्त्रता की स्थिति के अध्ययन के लिए भारत आया। लाहौर में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में इसके विरुद्ध बड़ा प्रदर्शन हुआ। इससे बौखलाकर पुलिस अधिकारी स्काॅट तथा सांडर्स ने लाठीचार्ज करा दिया। वयोवृद्ध लाला जी के सिर पर इससे भारी चोट आयी और वे कुछ दिन बाद चल बसे।


इस घटना से क्रान्तिवीरों का खून खौल उठा। उन्होंने कुछ दिन बाद सांडर्स को पुलिस कार्यालय के सामने ही गोलियों से भून दिया। पुलिस ने बहुत प्रयास किया; पर सब क्रान्तिकारी वेश बदलकर लाहौर से बाहर निकल गये। कुछ समय बाद दिल्ली में केन्द्रीय धारासभा का अधिवेशन होने वाला था। क्रान्तिवीरों ने वहाँ धमाका करने का निश्चय किया। इसके लिए भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त चुने गये। 


निर्धारित दिन ये दोनों बम और पर्चे लेकर दर्शक दीर्घा में जा पहुँचे। भारत विरोधी प्रस्तावों पर चर्चा शुरू होते ही दोनों ने खड़े होकर सदन मे बम फंेक दिया। उन्होंने ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए पर्चे फंेके, जिन पर क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्देश्य लिखा था।


पुलिस ने दोनों को पकड़ लिया। न्यायालय में भगतसिंह ने जो बयान दिये, उससे सारे विश्व में उनकी प्रशंसा हुई। भगतसिंह पर सांडर्स की हत्या का भी आरोप था। उस काण्ड में कई अन्य क्रान्तिकारी भी शामिल थे; जिनमें से सुखदेव और राजगुरु को पुलिस पकड़ चुकी थी। इन तीनों को 24 मार्च, 1931 को फाँसी देने का आदेश जारी कर दिया गया।


भगतसिंह की फाँसी का देश भर में व्यापक विरोध हो रहा था। इससे डरकर धूर्त अंग्रेजों ने एक दिन पूर्व 23 मार्च की शाम को इन्हेंे फाँसी दे दी और इनके शवों को परिवारजनों की अनुपस्थिति में जला दिया; पर इस बलिदान ने देश में क्रान्ति की ज्वाला को और धधका दिया। उनका नारा ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ आज भी सभा-सम्मेलनों में ऊर्जा का संचार कर देता है।


Thursday, September 24, 2020

नवदधीचि अनंत रामचंद्र गोखले

 सितम्बर/जन्म-दिवस

नवदधीचि अनंत रामचंद्र गोखले

अनुशासन प्रति अत्यन्त कठोर श्री अनंत रामचंद्र गोखले का जन्म 23 सितम्बर, 1918 (अनंत चतुर्दशी) को म.प्र. के खंडवा नगर में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनका हवेली जैसा निवास ‘गोखले बाड़ा’ कहलाता था। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के पिता श्री सदाशिव गोलवलकर जब खंडवा में अध्यापक थे, तब वे इस घर में ही रहते थे। 


नागपुर से इंटर करते समय गोखले जी धंतोली सायं शाखा में जाने लगे। एक सितम्बर, 1938 को वहीं उन्होंने प्रतिज्ञा ली। इंटर की प्रयोगात्मक परीक्षा वाले दिन उन्हें सूचना मिली कि डा. हेडगेवार ने सब स्वयंसेवकों को तुरंत रेशीम बाग बुलाया है। उन दिनों शाखा पर ऐसे आकस्मिक बुलावे (urgent call) के कार्यक्रम भी होते थे। जब गोखले जी वहां पहुंचे, तो डा. जी ने कहा कि तुम्हारी परीक्षा है, इसलिए तुम वापस जाओ। युवा गोखले जी इससे बहुत प्रभावित हुए कि डा. जी जैसे बड़े व्यक्ति को भी उनकी परीक्षा का ध्यान था।


डा. जी के निधन के बाद दिसम्बर, 1940 में नागपुर में अम्बाझरी तालाब के पास तरुण-शिविर लगा था। उसमें श्री गुरुजी ने युवाओं से प्रचारक बनने का आह्नान किया। गोखले जी कानून की प्रथम वर्ष की परीक्षा दे चुके थे; पर पढ़ाई छोड़कर वे प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें उ.प्र. के कानपुर नगर में भेजा गया। वहां के बाद उन्होंने उरई, उन्नाव, कन्नौज, फरुखाबाद, बांदा आदि में भी शाखाएं खोलीं। प्रवास और भोजन आदि के व्यय का कुछ भार कानपुर के संघचालक जी वहन करते थे, शेष गोखले जी अपने घर से मंगाते थे।


1948-49 में संघ पर प्रतिबंध लगा हुआ था; पर तब तक ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ का गठन हो चुका था। गोखले जी ने 150 स्वयंसेवकों को परिषद की ओर से ‘साक्षरता प्रसार’ के लिए गांवों में भेजा। ये युवक बालकों को खेल खिलाते थे तथा बुजुर्गो में भजन मंडली चलाते थे। प्रतिबंध हटने पर ये खेलकूद और भजन मंडली ही शाखा में बदल गयीं। इस प्रकार उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता से प्रतिबंध काल में भी सैकड़ों शाखाओं की वृद्धि कर दी। 


गोखले जी 1942 से 51 तक कानुपर, 1954 तक लखनऊ, 1955 से 58 तक कटक (उड़ीसा) और फिर 1973 तक दिल्ली में रहे। आपातकाल के दौरान उनका केन्द्र नागपुर रहा। तब उन पर मध्यभारत, महाकौशल और विदर्भ का काम था। आपातकाल के बाद उन पर कुछ समय मध्य भारत प्रांत का काम रहा। इस समय उनका केन्द्र इंदौर था। 1978 में वे फिर उ.प्र. में आ गये और पूर्वी उ.प्र. में जयगोपाल जी के साथ सहप्रांत प्रचारक बनाये गये।


गोखले जी को पढ़ने और पढ़ाने का शौक था। जब प्रवास में कष्ट होने लगा, तो उन्हें लखनऊ में ‘लोकहित प्रकाशन’ का काम दिया गया। उन्होंने इस दौरान 150 नयी पुस्तकें प्रकाशित कीं। तथ्यों की प्रामाणिकता और प्रूफ आदि पर वे बहुत ध्यान देते थे। वर्ष 2002 में वृद्धावस्था के कारण उन्होंने सब दायित्वों से मुक्ति ले ली और लखनऊ के ‘भारती भवन’ कार्यालय पर ही रहने लगे। घंटे भर की शाखा के प्रति उनकी श्रद्धा अंत तक बनी रही। चाय, भोजन आदि के लिए समय से पहुंचना उनके स्वभाव में था। अपने कमरे की सफाई और कपड़े धोने से लेकर पौधों की देखभाल तक वे बड़ी रुचि से करते थे। 


1991 में पुश्तैनी सम्पत्ति के बंटवारे से उन्हें जो भूमि मिली, वह उन्होंने संघ को दे दी। कुछ साल बाद प्रशासन ने पुल बनाने के लिए 19 लाख रु. में उसका 40 प्रतिशत भाग ले लिया। उस धन से वहां संघ कार्यालय भी बन गया, जिसका नाम ‘शिवनेरी’ रखा गया है। इसके बाद वहां एक इंटर कॉलिज की स्थापना की गयी, जिसमें दो पालियों में 2,500 छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं।



नारियल की तरह ऊपर से कठोर, पर भीतर से मृदुल, सैकड़ों प्रचारक और हजारों कार्यकर्ताओं के निर्माता गोखले जी का 25 मई, 2014 को लखनऊ में ही निधन हुआ।  



आचार्य तुलसीदास

 23 सितम्बर/पुण्य-तिथि


बहुआयामी व्यक्तित्व  : आचार्य तुलसी


भारत की पुण्य धरा पर अनेक ऋषियों, सन्तों तथा मनीषियों ने जन्म लेकर अपना तथा समाज का जीवन सार्थक किया है। ऐसे ही एक मनीषी थे आचार्य श्री तुलसी, जिनका जन्म 20 सितम्बर,  1914 को हुआ था। वे महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित जैन पन्थ की तेरापन्थ शाखा में मात्र 11 वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए और 22 वर्ष में इस धर्मसंघ के नौवें अधिशास्ता बन गये।


आचार्य तुलसी यों तो एक पन्थ के प्रमुख थे; पर उनका व्यक्तित्व सीमातीत था। अपनी मर्यादाओं का पालन करते हुए भी उनके मन में सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेम था। इसलिए सभी धर्म, मत और पन्थ, सम्प्रदायों के लोग उनका सम्मान करते थे। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था, जिसे पढ़ने के लिए किसी तरह के अक्षरज्ञान की भी आवश्यकता नहीं थी। इतना ही नहीं, उसे जितनी बार पढ़ो, हर बार नये अर्थ उद्घाटित होते थे। श्रद्धालु घण्टों उनके पास बैठकर उनके प्रवचन का आनन्द लेते थे।


आचार्य तुलसी अपने प्रवचन में गूढ़ तथ्यों को इतनी सरलता से समझाते थे कि सामान्य व्यक्ति को भी वे आसानी से समझ में आ जाते थे। यद्यपि उनकी भाषा व भाष्य अत्यन्त शुद्ध होते थे; फिर भी उनके चुम्बकीय आकर्षण से बँधकर लोग बैठे रहते थे। प्रवचन के समय उनकी वाणी ही नहीं, आँखें भी बोलती थीं। आचार्य जी कभी अनावश्यक बात नहीं करते थे; पर उनकी आँखों के संकेत मात्र से ही तेरापन्थ धर्मसंघ का अनुशासन चलता था। यह उनकी प्रशासनिक कुशलता का परिचायक है।


प्रखर बुद्धि एवं वक्तृत्व कौशल के धनी आचार्य जी आचरण व व्यवहार को भी अध्यात्म जितनी ही प्राथमिकता देते थे। इसलिए उनके प्रवचन एवं वार्तालाप में दैनन्दिन जीवन की समस्याओं एवं उनके समाधान की चर्चा भी होती थी। अपने पन्थ में काम करते हुए भी उनके मन में अनेक नये विषयों पर मन्थन होता रहता था। इसी को व्यवहार रूप देने के लिए दो मार्च, 1949 को राजस्थान के सरदार शहर कस्बे में विशाल जनसमूह के सम्मुख उन्होंने ‘अणुव्रत’ नामक एक नये आन्दोलन की नींव रखी।


अणुव्रत लोगों में नैतिकता जगाने का आन्दोलन था। अणु का अर्थ है छोटा और व्रत अर्थात संकल्प। आचार्य जी का मत था कि हम यदि जीवन में छोटा सा व्रत लेकर उसका निष्ठा से पालन करें, तो न केवल अपना अपितु परिवार एवं आसपास वालों का जीवन भी बदल जाता है। यह विषय इतना आसान था कि इससे जुड़ने वालों की संख्या क्रमशः बढ़ने लगी। लाखों लोगों ने अणुव्रत आन्दोलन से प्रेरित होकर हिंसा, मद्यपान, माँसाहार, झूठ, छल, कपट, फरेब आदि अवगुणों को त्याग दिया।


आचार्य जी जन-जन के कल्याण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। अणुव्रत को और अधिक सहज बनाने के लिए उन्होंने इसके साथ प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान को प्रचलित किया। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर स्वयं की अच्छाई एवं कमियों को जानने का प्रयास करता है। इसी प्रकार जीवन विज्ञान के द्वारा वे जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों के पीछे छिपे विज्ञान को सबके सम्मुख लाये।


अणुव्रत के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने व्यापक भ्रमण किया। जैन मत को वे व्यापक हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग मानते थे। वे विश्व हिन्दू परिषद् के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। जन-जन में जागृति का प्रचार-प्रसार करते हुए 23 सितम्बर, 1999 को उन्होंने सदा के लिए आँखें मूँद लीं।

मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय

25 सितम्बर/जन्म-दिवस            

      

एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय


सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे।


दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे।


14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था।


अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।


1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।


1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।


उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में  किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।


Thursday, September 17, 2020

दैनिक जीवन में प्रचलित उर्दू के हिंदी शब्द


      #उर्दू                #हिंदी

01 ईमानदार       - निष्ठावान

02 इंतजार         - प्रतीक्षा

03 इत्तेफाक       - संयोग

04 सिर्फ            - केवल, मात्र

05 शहीद           - बलिदान

06 यकीन          - विश्वास, भरोसा

07 इस्तकबाल    - स्वागत

08 इस्तेमाल       - उपयोग, प्रयोग

09 किताब         - पुस्तक

10 मुल्क            - देश

11 कर्ज़             - ऋण

12 तारीफ़          - प्रशंसा

13 तारीख          - दिनांक, तिथि

14 इल्ज़ाम         - आरोप

15 गुनाह            - अपराध

16 शुक्रीया          - धन्यवाद, आभार

17 सलाम           - नमस्कार, प्रणाम

18 मशहूर           - प्रसिद्ध

19 अगर             - यदि

20 ऐतराज़          - आपत्ति

21 सियासत        - राजनीति

22 इंतकाम          - प्रतिशोध

23 इज्ज़त           - मान, प्रतिष्ठा

24 इलाका           - क्षेत्र

25 एहसान          - आभार, उपकार

26 अहसानफरामोश - कृतघ्न

27 मसला            - समस्या

28 इश्तेहार          - विज्ञापन

29 इम्तेहान          - परीक्षा

30 कुबूल             - स्वीकार

31 मजबूर            - विवश

32 मंजूरी             - स्वीकृति

33 इंतकाल          - मृत्यु, निधन 

34 बेइज्जती         - तिरस्कार

35 दस्तखत          - हस्ताक्षर

36 हैरानी              - आश्चर्य

37 कोशिश            - प्रयास, चेष्टा

38 किस्मत            - भाग्य

39 फै़सला             - निर्णय

40 हक                 - अधिकार

41 मुमकिन           - संभव

42 फर्ज़                - कर्तव्य

43 उम्र                  - आयु

44 साल                - वर्ष

45 शर्म                 - लज्जा

46 सवाल              - प्रश्न

47 जवाब              - उत्तर

48 जिम्मेदार          - उत्तरदायी

49 फतह               - विजय

50 धोखा               - छल

51 काबिल             - योग्य

52 करीब               - समीप, निकट

53 जिंदगी              - जीवन

54 हकीकत            - सत्य

55 झूठ                  - मिथ्या, असत्य

56 जल्दी                - शीघ्र

57 इनाम                - पुरस्कार

58 तोहफ़ा              - उपहार

59 इलाज               - उपचार

60 हुक्म                 - आदेश

61 शक                  - संदेह

62 ख्वाब                - स्वप्न

63 तब्दील              - परिवर्तित

64 कसूर                 - दोष

65 बेकसूर              - निर्दोष

66 कामयाब            - सफल

67 गुलाम                - दास

68 जन्नत                -स्वर्ग 

69 जहन्नुम             -नर्क

70 खौ़फ                -डर

71 जश्न                  -उत्सव

72 मुबारक             -बधाई/शुभेच्छा

73 लिहाजा़             -इसलीए

74 निकाह             -विवाह/लग्न

75 आशिक            -प्रेमी 

76 माशुका             -प्रेमिका 

77 हकीम              -वैध

78 नवाब               -राजसाहब

79 रुह                  -आत्मा 

80 खु़दकुशी          -आत्महत्या 

81 इज़हार             -प्रस्ताव

82 बादशाह           -राजा/महाराजा

83 ख़्वाहिश          -महत्वाकांक्षा

84 जिस्म             -शरीर/अंग

85 हैवान             -दैत्य/असुर

86 रहम              -दया

87 बेरहम            -बेदर्द/दर्दनाक

88 खा़रिज           -रद्द

89 इस्तीफ़ा          -त्यागपत्र 

90 रोशनी            -प्रकाश 

91मसीहा             -देवदुत

92 पाक              -पवित्र

93 क़त्ल              -हत्या 

94 कातिल           -हत्यारा

95 मुहैया             - उपलब्ध

96 फ़ीसदी           - प्रतिशत

97 कायल           - प्रशंसक

98 मुरीद             - भक्त

99 कींमत           - मूल्य (मुद्रा में)

100 वक्त            - समय

101 सुकून        - शाँति

102 आराम       - विश्राम

103 मशरूफ़    - व्यस्त

104 हसीन       - सुंदर

105 कुदरत      - प्रकृति

106 करिश्मा    - चमत्कार

107 इजाद       - आविष्कार

108 ज़रूरत     - आवश्यक्ता

109 ज़रूर       - अवश्य

110 बेहद        - असीम

111 तहत       - अनुसार


इनके अतिरिक्त हम प्रतिदिन अनायास ही अनेक उर्दू शब्द प्रयोग में लेते हैं, कारण है ये बाॅलिवुड और मीडिया जो एक इस्लामी षड़यंत्र के अनुसार हमारी मातृभाषा पर ग्रहण लगाते आ रहे हैं।


हिन्दी हमारी राजभाषा एवं मातृभाषा हैं इसका सम्मान करें, भाषा बचाईये, संस्कृति बचाईये।

Tuesday, September 15, 2020

महात्मा गांधी और हिन्दी

 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और हिन्दी 


जब हम गांधी को शांति अहिंसा और मानवीय प्रेम के अग्रदूत के रूप में स्मरण करते हैं तो उनका एक उज्ज्वल एवं अलग विश्व महमनवीय रूप सामने झलकने लगता है। 

गांधी जी ने अपने दक्षिण अफ्रीका के प्रवास काल में ही भारत के संदर्भ में तथा विदेशों में रह रहे भारतियों के संदर्भ में हिन्दी को भारत की संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो सकने वाली भाषा के रूप में पहचान लिया था। 

सन 1916 में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में हुआ। उसमें पहली बार महात्मा गांधी भी सम्मिलित हुये थे। अब तक काँग्रेस-अधिवेशन की समस्त कार्यवाई और भाषण अँग्रेजी में हुआ करते थे। 

गांधी जी ने पत्रकारों तथा अन्य सदस्यों के बहुत विरोध करने पर भी अपना भाषण हिन्दी में किया। दक्षिण भारत में इस हिन्दी का प्रसार एक आंदोलन के रूप में स्वतन्त्रता संग्राम के साथ महात्मा गांधी की प्रेरणा से 20 वीं सदी में प्रारम्भ हुआ।

“हिन्दी-भाषी लोगों को दक्षिण की भाषा सीखने की जितनी जरूरत है उसकी अपेक्षा दक्षिण वालों को हिन्दी सीखने की आवश्यकता ही अधिक है। सारे हिंदुस्तान में हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या दक्षिण की भाषा बोलने वालों से दुगुनी है। एक प्रांत का दूसरे प्रांत से संबंध जोड़ने की भाषा तो हिन्दी या हिंदुस्तानी ही हो सकती है।” 

 गांधी जी से प्रभावित होकर हिन्दी-साहित्य सम्मेलन-प्रयाग ने सन 1918 में इंदौर में होने वाले हिन्दी सम्मेलन के अधिवेशन का सभापति गांधी को निर्वाचित किया। गांधी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में दक्षिण भारत के तमिल,तेलगु,मलयालम,कन्नड भाषी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार की अवश्यकता बताई और उसके लिए पैसा एकट्ठा करने की अपील की। 

गांधी जी के मांग पर इंदौर नरेश- महाराज यशवंत राव होल्कर और नगर- सेठ हुकुमचंद जी ने 10-10 हजार रुपए हिन्दी-प्रचार-कार्य की सहायता में दिये। इस अधिवेशन में यह भी प्रस्ताव स्वीकृत हुआ कि 6 युवक हिन्दी सीखने के लिए प्रयाग भेजे जाएँ और उतर भारत के 6 युवक दक्षिण कि भाषाओं को सीखने तथा हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत भेजे जायें।

सन1918 में मद्रास ‘भारत सेवा संघ’(इंडियन सर्विस लीग) के हिन्दी-प्रेमी युवकों ने गांधी जी को लिखा हम हिन्दी सीखना चाहते हैं, हमारे लिए एक हिन्दी प्रचारक भेजा जाए। गांधी ने अपने पुत्र श्री देवदास गांधी तथा स्वामी स्त्यदेव को,जो उस समय 18 वर्ष के ही थे, शीघ्र ही हिन्दी प्रचार के लिए मद्रास भेजा। वहा वे लोग सबसे पहले उन बुद्धजीवियों से संपर्क किया जिनके मन में विशाल एवं उदार राष्ट्रीय भाव थे। उनमें से प्रमुख थे मोटूरी सत्यनारायण, श्री हरिकेश शर्मा, पंडित हरिदत्त शर्मा, के.एम. मुंशी,शिवराम शर्मा,पंडित सिद्धार्थ नाथ पंत,तथा श्री एस.आर. शास्त्री आदि। वहाँ सर्वसम्मति से गोखले हाल में डॉ. एनी वेसेंट की अध्यक्षयता में एक बैठक हुई और एक हिन्दी संस्था की स्थापना करने का निर्णय लिया गया। 

एक संस्था की स्थापना की गई जिसका नाम ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन-प्रचार-कार्यालय’ रखा गया तथा 1927 तक इसी नाम का प्रयोग किया जाता रहा किन्तु बाद में के सलाह से इस प्रचार-कार्यालय का नाम परिवर्तित करके दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा,मद्रास कर दिया गया। अतः 1927 से सम्मेलन का उक्त कार्यालय स्वतंत्र रूप से एक नई संस्था बन गई। 

लगभग 10 वर्ष के अनंतर पुनः सम्मेलन ने मद्रास की भांति हिन्दी-प्रचार के लिए एक दूसरा केंद्र वर्धा में प्रवर्तित किया। सन1936 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 25वां अधिवेशन नागपुर में देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद जी की अध्यक्षता में हुआ। उसी अधिवेशन में गांधी की सलाह से हिन्दी-प्रचार-समिति वर्धा का संगठन किया गया,जिसका उद्देश्य उन चार अहिंदी भाषी प्रदेशों को छोडकर,जिनमें हिन्दी का प्रचार दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (मद्रास) कर रही थी, शेष अहिंदी भाषी प्रदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना सुनिश्चित किया गया।

 1938 में इसका नाम ‘राष्ट्रभाषा-प्रचार-समिति वर्धा केआर दिया गया। उसकी शाखाएँ भारत के पूर्वी-पश्चिमी सभी अहिंदी भाषी प्रदेशों में हैं और यह संस्था अब भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का अंग है। इस राष्ट्रभाषा प्रचार-समिति वर्धा के सहयोग करने वाली 16 ऐसी अंगभूत संस्थाएं हैं, जो प्रदेश-स्तर की राष्ट्रभाषा-प्रचार समितियां हैं।   

इन बड़ी संस्थाओं की प्रेरणा से समस्त दक्षिण भारत में हिन्दी-प्रचार ने तीव्र आंदोलन का रूप ले लिया। राष्ट्र के सभी कर्णधार,जो देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे,उनके सामने यह समस्या थी कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद समूचे देश की राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय कार्य-व्यवहार की भाषा कौन होगी? इसका उतर था-हिन्दी। अतः हिन्दी के प्रति समूचे देश में, विशेषतः दक्षिण भारत में जो आकर्षण पैदा हुआ, वह राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत था। हिन्दी सीखना या सिखाना एक राष्ट्रीय कर्तव्य पालन था। फ़्ल्स्वरूप उक्त बड़ी संस्थाओं के कार्य-क्षेत्र अत्यंत विस्तृत होते रहे और हिन्दी प्रचार को और भी सुव्यवस्थित करने के लिए प्रदेशीय स्तर पर अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं का भी जन्म हुआ।

उनमें मुख्य नाम ये हैं-1. हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद (स्थापना 1935 ई.), 2. मैसूर हिन्दी प्रचार-परिषद, बंगलौर (1943), 3.महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे (1945), 4.हिंदुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा(1942), 5.केरल हिन्दी प्रचार सभा, तिरुअनंतपुरम, 6.साहित्यनुशीलन समिति, मद्रास, 7.कर्नाटक हिन्दी-प्रचार सभा, धारवाड़। 

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास को अपने हिन्दी-प्रचार कार्य में राष्ट्र के प्रमुख नेताओं का सहयोग मिलता रहा है। महात्मा गांधी इसके आजीवन सभापति रहे। मद्रास के प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ के संपादक श्री ए. रंगास्वामी अय्यंगार उपसभापति। इसका प्रचार-कार्य योजनाबद्ध हुआ। इसका कार्य-क्षेत्र मद्रास, आंध्र, मैसूर और केरल अर्थात तमिल, तेलगु, कन्नड और मलयालम भाषा-भाषी प्रदेश रहे हैं। 

दक्षिण भारत में हिन्दी का जो प्रचार-कार्य विगत दो-तीन दशाब्दियों में हुआ और अब भी हो रहा है, उसकी मुख्य प्रवृतियां ये हैं-1.हिन्दी प्रचारकों का संगठन, 2.हिन्दी-शिक्षण विद्यालयों की स्थापना, 3.परीक्षाओं का संचालन, 4.हिन्दी के प्रकाशन-कार्य, पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें, 5.हिन्दी प्रशिक्षण के सत्र, 6.वाक-स्पर्धा, लेखन-स्पर्धा, 7.नाटक-अभिनय, 8.पुरस्कार का आयोजन, 9.पदवीदान समारोह। 

      प्रचारकों का बहुत बड़ा संगठन दक्षिण भारत हिन्दी-प्रचार सभा मद्रास तथा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा का है। उनके अनुरूप ही इनकी परीक्षाओं में सम्मिलित परीक्षार्थीयों की संख्या भी अत्यधिक है। इन संस्थाओं ने हिन्दी की प्रारम्भिक परीक्षा से लेकर उच्चतम परीक्षाओं का आयोजन किया है। मद्रास की दक्षिण भारत प्रचार सभा 7 परीक्षाएँ और वर्धा की समिति 13 प्रकार की परीक्षाएँ संचालित करती है। 

इन परीक्षाओं में सवा लाख से अधिक तथा समिति की परीक्षाओं में सवा दो लाख से अधिक परीक्षार्थी सम्मिलित होते हैं। समिति के प्रचारकों की संख्या लगभग सात हजार है। हिन्दी-प्रचार-सभा हैदराबाद की परीक्षाओं में भी चालीस हजार के लगभग परीक्षार्थी सम्मिलित होते हैं। 

     संस्थाओं के अपने हिन्दी विद्यालय भी हैं, जिनके द्वारा वे हिन्दी वे शिक्षण कार्य को गति देते हैं। वर्धा की समिति के सहयोग से उसकी अंगभूत प्रादेशिक समितियां भी विद्यालयों का संचालन करती है। सन 1932 के अकड़ों के अनुसार समिति के तत्वावधान में 534 राष्ट्रभाषा विद्यालय और 36 महाविद्यालय संचालित होते रहे हैं। पाठ्यक्रम की दृष्टि से पुस्तकों का प्रकाशन भी संस्थाओं ने किया। उनकी मासिक पत्रिकाएँ भी निकलती हैं। 

पत्रिकाओं के मुख्य नाम हैं- राष्ट्रभारती (वर्धा), हिन्दी-प्रचार-समाचार(मद्रास), राष्ट्रवाणी(पूना), राष्ट्र-वीणा(गुजरात), केरल-ज्योति(तिरुअनंतपुरम)। हिन्दी प्रचार-सभा हैदराबाद के ‘अजन्ता’ मासिक का प्रकाशन अब बंद हो चुका है। 

वर्ष 1918 में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना तब मद्रास के नाम से प्रसिद्ध चेन्नई में की गयी। आज यह 11 परास्नातक केंद्र, 33 शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान, पांच सीबीएसई स्कूल और कई प्रांतीय सभाएं संचालित करती है। गांधी ने कहा था कि सभा अधिक से अधिक लोगों को हिंदी पढ़ने, लिखने और बोलने में सक्षम बनायेगी। 

हिंदी में प्रकाशित प्रचार सभा अभिलेखागार के अनुसार गांधी ने 1946 में छात्रों के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया था। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे संदेह है कि मैं जो कह रहा हूं, वह आपलोग समझ पा रहे हैं। लेकिन मेरे प्रति आपके मन में गहरा प्रेम है और इसलिए आप मुझे बड़े धैर्य से सुन रहे हैं।’’

उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन फिर भी अधिक से अधिक लोगों को हिंदुस्तानी सीखनी चाहिए। यह कोई कठिन भाषा नहीं है दक्षिण भारतीय लोग बुद्धिमान और प्रतिभावान हैं’’

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रचार सभा ने बड़ी निष्ठा से गांधी की सलाह का अनुसरण पर मुश्किलों का भी सामना किया। हजारों प्रचारक आज तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में काम करते हैं। 

अंततः यह कहा जा सकता है कि गांधी जी दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार हेतु जो कार्य किए वह भारत को एक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया। गांधी जी कभी भी क्षेत्रीय भाषाओं को छोडने या न सीखने या न जानने के विषय में नहीं कहते है, वह क्षेत्रीय भाषाओं को भी उतना ही महत्व देते थे जितना की राष्ट्रीय भाषा को । उनके प्रयास से ही आज भारत में हिन्दी की महत्ता को ज्यादा बढ़ावा मिला है।

क्योंकि गांधी जी प्रयोग कर्ता थे इसलिए हिन्दी प्रचार हेतु वह सबसे पहले प्रयोग अपने पुत्र को दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार हेतु भेजने से करते हैं। आज दक्षिण भारत में जो महिला हिन्दी से स्नातक की हुई होती है उसके विषय में जो शादी करने वाले आते है वो बहुत गर्व महसूस करते है कि उनकी बहू हिन्दी से स्नातक या परास्नातक है। गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा या राजभाषा में चुनकर राष्ट्र को एक करने में बहुत योगदान दिये है। गांधी के हिन्दी के प्रति योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। 


Sunday, September 13, 2020

योग भगाए रोग :वीरभद्रासन

  योग भगाए रोग :वीरभद्रासन है


शरीर को मजबूती देने वाले इस आसन के जानिये लाभ और योग विधि


नाम के रूप में दर्शाया गया है, यह योग मुद्रा आपके शरीर की मूल शक्ति बनाता है और आपकी मांसपेशियों के धीरज को बढ़ाता है। इस मुद्रा का नाम वीरभद्र, एक भयंकर योद्धा, हिंदू भगवान शिव का अवतार के नाम पर रखा गया है।योद्धा वीरभद्र की कहानी, उपनिषद की अन्य कहानियों की तरह, जीवन में प्रेरणा प्रदान करती है। यह आसन हाथों, कंधो ,जांघो एवं कमर की मांसपेशियों को मजबूती प्रदान करता है।


*वीरभद्रासन के लाभ* 


- छाती और फेफड़ों, कंधे और गर्दन, पेट, ग्राय्न में खिचाव लाता है।


- कंधों, बाज़ुओं, और पीठ की मांसपेशियों को मज़बूत करता है।


- जांघों, पिंडलियों, और टखनों को मज़बूत करता है और उनमें खिचाव लाता है।


- वीरभद्रासन साएटिका से राहत दिलाता है।


*वीरभद्रासन करने की विधि*


ताड़ासन में खड़े हो जायें। 

श्वास अंदर लें और 3 से 4 फीट पैर खोल लें। 

अपने बायें पैर को 45 से 60 दर्जे अंदर को मोड़ें, और दाहिने पैर को 90 दर्जे बाहर को मोड़ें। 

बाईं एड़ी के साथ दाहिनी एड़ी संरेखित करें। 

साँस छोड़ते हुए अपने धड़ को दाहिनी ओर 90 दर्जे तक घुमाने की कोशिश करें। 

आप शायद पूरी तरह धड़ ना घुमा पायें। अगर ऐसा हो तो जितना बन सके, उतना करें। 

धीरे से अपने हाथ उठाएँ जब तक हाथ सीधा आपके धड़ की सीध में ना आ जायें। 

हथेलियों को जोड़ लें और छत की ओर उंगलियों को पॉइंट करें।

ध्यान रखें की आपकी पीठ सीधी रहे। अगर पीठ मुडी होगी तो पीठ के निचले हिस्से में समय के साथ दर्द बैठ सकता है। 

अपने बाईं एड़ी को मज़बूती से ज़मीन पर टिकाए रखें और दाहिने घुटने को मोड़ें जब तक की घुटना सीधा टखने की ऊपर ना आ जाए। 

अगर आप में इतना लचीलापन हो तो अपनी जाँघ को ज़मीन से समांतर कर लें। 

अपने सिर को उठायें और दृष्टि को उंगलियों पर रखें। 

कुल मिला कर पाँच बार साँस अंदर लें और बाहर छोड़ें ताकि आप आसन में 30 से 60 सेकेंड तक रह सकें। 

धीरे धीरे जैसे आपके शरीर में ताक़त और लचीलापन बढ़ने लगे, आप समय बढ़ा सकते हैं 

90 सेकेंड से ज़्यादा ना करें। 

जब 5 बार साँस लेने के बाद आप आसान से बाहर आ सकते हैं।

आसन से बाहर निकलने के लिए सिर नीचे कर लें, फिर दाहिनी जाँघ को उठायें, हाथ नीचे कर लें, धड़ को वापिस सीधा कर लें और पैरों को वापिस अंदर ले आयें

आसन को ख़तम ताड़ासन में करें। 

दाहिनी ओर करने के बाद यह सारे स्टेप बाईं ओर भी करें।


*वीरभद्रासन में सावधानियां*


उच्च रक्तचाप या दिल की समस्याओं से पीड़ित व्यक्ति ये आसन ना करें 


गर्दन की चोट या वर्तमान में गर्दन का दर्द हो तो आसन से बचे 


ये आसन ना करें जब रीढ़ की हड्डी में किसी भी प्रकार की तकलीफ हो।


गर्भवती महिलाओं को इस आसन से फायदा होगा, खासकर यदि वे अपने दूसरे और तीसरे तिमाही में हैं, लेकिन केवल तभी वे नियमित रूप से योग का अभ्यास कर रहे हैं।



सदाचार बनाम समलैंगिकता: एक नजर

 सदाचार बनाम समलैंगिकता


🔷सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैगिंकता को धारा 377 के अंतर्गत अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। अपने आपको सामाजिक कार्यकर्ता कहने वाले, आधुनिकता का दामन थामने वाले एक विशेष बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा सुप्रीम कोर्ट क निर्णय पर बहुत प्रसन्न हो रहे है। उनका कहना है कि अंग्रेजों द्वारा 1861 में बनाया गया कानून आज अप्रासंगिक है। धारा 377 को यह जमात सामाजिक अधिकारों में भेदभाव और मौलिक अधिकारों का हनन बताती है। समलैगिंकता का समर्थन करने वालो का पक्ष का कहना है कि इससे HIV कि रोकथाम करने में रुकावट होगी क्यूंकि समलैगिंक समाज के लोग रोक लगने पर खुलकर सामने नहीं आते।


🔷अधिकतर धार्मिक संगठन धारा 377 के हटाने के विरोध में हैं। उनका कहना है कि यह करोड़ो भारतीयों का जो नैतिकता में विश्वास रखते हैं उनकी भावनाओं का आदर हैं। आईये समलैंगिकता को प्रोत्साहन देना क्यों गलत है इस विषय की तार्किक विवेचना करें।


🔷हमें इस तथ्य पर विचार करने की आवश्यकता है कि अप्राकृतिक सम्बन्ध समाज के लिए क्यों अहितकारक है। अपने आपको आधुनिक बनाने की हौड़ में स्वछन्द सम्बन्ध की पैरवी भी आधुनिकता का परिचायक बन गया हैं। सत्य यह हैं कि इसका समर्थन करने वाले इसके दूरगामी परिणामों की अनदेखी कर देते हैं।


 प्रकृति ने मानव को केवल और केवल स्त्री-पुरुष के मध्य सम्बन्ध बनाने के लिए बनाया है। इससे अलग किसी भी प्रकार का सम्बन्ध अप्राकृतिक एवं निरर्थक है। चाहे वह पुरुष-पुरुष के मध्य हो, स्त्री स्त्री के मध्य हो। वह विकृत मानसिकता को जन्म देता है। उस विकृत मानसिकता कि कोई सीमा नहीं है। 


उसके परिणाम आगे चलकर बलात्कार (Rape) , सरेआम नग्न होना (Exhibitionism), पशु सम्भोग (Bestiality), छोटे बच्चों और बच्चियों से दुष्कर्म (Pedophilia), हत्या कर लाश से दुष्कर्म (Necrophilia), मार पीट करने के बाद दुष्कर्म (Sadomasochism) , मनुष्य के शौच से प्रेम (Coprophilia) और न जाने किस-किस रूप में निकलता हैं। अप्राकृतिक सम्बन्ध से संतान न उत्पन्न हो सकना क्या दर्शाता है? सत्य यह है कि प्रकृति ने पुरुष और नारी के मध्य सम्बन्ध का नियम केवल और केवल संतान की उत्पत्ति के लिए बनाया था। 


आज मनुष्य ने अपने आपको उन नियमों से ऊपर समझने लगा है। जिसे वह स्वछंदता समझ रहा है। वह दरअसल अज्ञानता है। भोगवाद मनुष्य के मस्तिष्क पर ताला लगाने के समान है। भोगी व्यक्ति कभी भी सदाचारी नहीं हो सकता। वह तो केवल और केवल स्वार्थी होता है। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य को सामाजिक हितकारक नियम पालन का करने के लिए बाध्य होना चाहिए। जैसे आप अगर सड़क पर गाड़ी चलाते है। तब आप उसे अपनी इच्छा से नहीं अपितु ट्रैफिक के नियमों को ध्यान में रखकर चलाता है। वहाँ पर क्यों स्वछंदता के मौलिक अधिकार का प्रयोग नहीं करता? अगर करेगा तो दुर्घटना हो जायेगी। जब सड़क पर चलने में स्वेच्छा की स्वतंत्रता नहीं है। तब स्त्री पुरुष के मध्य संतान उत्पत्ति करने के लिए विवाह व्यवस्था जैसी उच्च सोच को नकारने में कैसी बुद्धिमत्ता है?


🔷कुछ लोगो द्वारा समलैंगिकता के समर्थन में खजुराओ की नग्न मूर्तियाँ अथवा वात्सायन का कामसूत्र को भारतीय संस्कृति और परम्परा का नाम दिया जा रहा है। जबकि सत्य यह है कि भारतीय संस्कृति का मूल सन्देश वेदों में वर्णित संयम विज्ञान पर आधारित शुद्ध आस्तिक विचारधारा हैं।


🔷भौतिकवाद अर्थ और काम पर ज्यादा बल देता हैं। जबकि अध्यातम धर्म और मुक्ति पर ज्यादा बल देता हैं । वैदिक जीवन में दोनों का समन्वय हैं। एक ओर वेदों में पवित्र धनार्जन करने का उपदेश है। दूसरी ओर उसे श्रेष्ठ कार्यों में दान देने का उपदेश है। एक ओर वेद में सम्बन्ध केवल और केवल संतान उत्पत्ति के लिए है। दूसरी तरफ संयम से जीवन को पवित्र बनाये रखने की कामना है । एक ओर वेद में बुद्धि की शांति के लिए धर्म की और दूसरी ओर आत्मा की शांति के लिए मोक्ष (मुक्ति) की कामना है। 


धर्म का मूल सदाचार है। अत: कहाँ गया है कि आचार परमो धर्म: अर्थात सदाचार परम धर्म है। आचारहीन न पुनन्ति वेदा: अर्थात दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। अत: वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, ब्रह्मचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया है।


🔷जो लोग यह कुतर्क देते हैं कि समलैंगिकता पर रोक से AIDS कि रोकथाम होती है। उनके लिए विशेष रूप से यह कहना चाहूँगा कि समाज में जितना सदाचार बढ़ेगा, उतना समाज में अनैतिक सम्बन्धों पर रोकथाम होगी। आप लोगों का तर्क कुछ ऐसा है कि आग लगने पर पानी कि व्यवस्था करने में रोक लगने के कारण दिक्कत होगी, हम कह रहे हैं कि आग को लगने ही क्यूँ देते हो? भोग रूपी आग लगेगी तो नुकसान तो होगा ही होगा। कहीं पर बलात्कार होंगे, कहीं पर पशुओं के समान व्यभिचार होगा, कहीं पर बच्चों को भी नहीं बक्शा जायेगा। इसलिए सदाचारी बनो, नाकि व्यभिचारी।


🔷एक कुतर्क यह भी दिया जा रहा है कि समलैंगिक समुदाय अल्पसंख्यक है, उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्हें अपनी बात रखने का मौका मिलना चाहिए। मेरा इस कुतर्क को देने वाले सज्जन से प्रश्न है कि भारत भूमि में तो अब अखंड ब्रह्मचारी भी अल्प संख्यक हो चले है। उनकी भावनाओं का सम्मान रखने के लिए मीडिया द्वारा जो अश्लीलता फैलाई जा रही हैं उनपर लगाम लगाना भी तो अल्पसंख्यक के हितों की रक्षा के समान है।


🔷एक अन्य कुतर्की ने कहा कि पशुओं में भी समलैंगिकता देखने को मिलती हैं। मेरा उस बंधू से एक ही प्रश्न हैं कि अनेक पशु बिना हाथों के केवल जिव्हा से खाते हैं, आप उनका अनुसरण क्यूँ नहीं करते? अनेक पशु केवल धरती पर रेंग कर चलते है आप उनका अनुसरण क्यूँ नहीं करते ? चकवा चकवी नामक पक्षी अपने साथी कि मृत्यु होने पर होने प्राण त्याग देता हैं, आप उसका अनुसरण क्यूँ नहीं करते?


🔷ऐसे अनेक कुतर्क हमारे समक्ष आ रहे हैं जो केवल भ्रामक सोच का परिणाम हैं।


🔶जो लोग भारतीय संस्कृति और प्राचीन परम्पराओं को दकियानूसी और पुराने ज़माने कि बात कहते हैं वे वैदिक विवाह व्यवस्था के आदर्शों और मूलभूत सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं। चारों वेदों में वर-वधु को महान वचनों द्वारा व्यभिचार से परे पवित्र सम्बन्ध स्थापित करने का आदेश है। 


ऋग्वेद के मंत्र के स्वामी दयानंद कृत भाष्य में वर वधु से कहता है- हे स्त्री! मैं सौभाग्य अर्थात् गृहाश्रम में सुख के लिए तेरा हस्त ग्रहण करता हूँ और इस बात की प्रतिज्ञा करता हूँ कि जो काम तुझको अप्रिय होगा उसको मैं कभी ना करूँगा। ऐसे ही स्त्री भी पुरुष से कहती है कि जो कार्य आपको अप्रिय होगा वो मैं कभी न करूँगी और हम दोनों व्यभिचारआदि दोषरहित होके वृद्ध अवस्था पर्यन्त परस्पर आनंद के व्यवहार करेंगे। 

रोचक बात तो यह है कि विद्वानों ने मुझको तेरे लिए और तुझको मेरे लिए दिया हैं, हम दोनों परस्पर प्रीति करेंगे तथा उद्योगी हो कर घर का काम अच्छी तरह और मिथ्याभाषण से बचकर सदा धर्म में ही वर्तेंगे। सब जगत का उपकार करने के लिए सत्यविद्या का प्रचार करेंगे और धर्म से संतान को उत्पन्न करके उनको सुशिक्षित करेंगे। हम दूसरे स्त्री और दूसरे पुरुष से मन से भी व्यभिचार ना करेगे।


🔶एक और गृहस्थ आश्रम में इतने उच्च आचार और विचार का पालन करने का मर्यादित उपदेश हैं , दूसरी ओर पशु के समान स्वछन्द अमर्यादित सोच हैं। पाठक स्वयं विचार करे कि मनुष्य जाति कि उन्नति उत्तम गृहस्थी बनकर समाज को संस्कारवान संतान देने में हैं अथवा पशुओं के समान कभी इधर कभी उधर मुँह मारने में हैं।


🔷समलैंगिकता एक विकृत सोच है, मनोरोग है, बीमारी है। इसका समाधान इसका विधिवत उपचार है। नाकि इसे प्रोत्साहन देकर सामाजिक व्यवस्था को भंग करना है। इसका समर्थन करने वाले स्वयं अँधेरे में है औरो को भला क्या प्रकाश दिखायेंगे। कभी समलैंगिकता का समर्थन करने वालो ने भला यह सोचा है कि अगर सभी समलैंगिक बन जायेंगे तो अगली पीढ़ी कहाँ से आयेगी? सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिकता को दंड की श्रेणी से बाहर निकालने का हम पुरजोर असमर्थन करते है।

Thursday, September 3, 2020

भारतीय इतिहास के प्रमुख नरसंहार


भारतीय इतिहास के कुछ प्रमुख कत्लेआम/नरसंहार निम्न हैं-


1- दिल्ली का नरसंहार 1265 ई दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन बलबन द्वारा मेवाड़ के राजपूतों को पूर्णतया नष्ट कर दिया गया था, इसमें एक लाख हिन्दूओं की जान गयी थी।

2- बंगाल का नरसंहार 1353- फिरोज शाह तुगलक द्वारा एक लाख 90 हजार हिंदूओं का कत्लेआम।

3- दिल्ली नरसंहार 1398 ई- तैमूर लंग के सैनिकों द्वारा 1 लाख हिन्दूओं का कत्ल।

4- चित्तौड़गढ़ का नरसंहार 1568- उदयपुर में 30 हजार नागरिकों का कत्ल और 8 हजार औरतों का जौहर अकबर का शासन।

5 उत्तर भारत का नरसंहार 1738–40 - पर्शियन आक्रमणकारी नादिरशाह द्वारा मुगल साम्राज्य पर हमला 3 लाख भारतियों का कत्ल।

6- पानीपत 1761 अफगानों द्वारा 22 हजार मराठा औरतों और बच्चों का कत्ल।

7. Bangal femine 1943 to 1944 मरने वालों की संख्या 25 लाख से 35 लाख ।

7- कलकत्ता में दंगे 1946- आल इंडिया मुस्लिम लीग द्वारा प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस में 10 हजार हिन्दू मारे गये।

8- भारत का विभाजन 1947 -20 लाख लोगों का कत्लेआम,सिखों और हिन्दूओं का नरसंहार पश्चिमी पंजाब में और मुसलमानों का कत्लेआम पूर्व पंजाब में।

9- ब्राम्हणों का नरसंहार 1948 - महात्मा गांधी की हत्या के बाद पश्चिम महाराष्ट्र में चितपावन ब्राम्हणों का नरसंहार

10- सिखों का नरसंहार 1984- इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली और अन्य जगहों पर 8000 सिखों का कत्ल।

11- गोधरा हत्याकांड 2002 - 27 फरवरी 2002 को ट्रेन में आग लगाकर 59 हिन्दूओं का कत्ल, 28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद में दंगे हुए जिसमें 790 मुस्लिम और 254 हिंदू मारे गए।

Wednesday, September 2, 2020

नई शिक्षा नीति: बेसिक शिक्षा की कुछ न समझ आने वाली बातें

 

नई शिक्षा नीति: बेसिक शिक्षा की कुछ न समझ आने वाली बातें

  • जब किसी शिक्षक को बैंक में जाना होगा तो वह किस समय जाएगा?
  • शिक्षक 8 बजे स्कूल जाएगा और 3 बजे स्कूल बंद होने के बाद 30 मिनट और यानी 3:30 तक स्कूल में रहेगा और उसके बाद स्कूल बंद करके बैंक जाएगा तो 4 बजे तक बैंक बंद हो जाएगा तो शिक्षक बैंक का काम करेगा कब?
  • जबकि वह बैंक का काम भी स्कूल के बैंक वाला काम ही है


क्या अब शिक्षक स्कूल के काम के लिए अलग से छुट्टी ले जो उसकी खुद की छुट्टी है?

  • शिक्षक राशन लेने कब जाए? किस टाइम जाए स्कूल टाइम जाना नहीं है।
  • स्कूल खुलने के पहले राशन लेने के लिए वाहन और उसको स्कूल लेकर आना संभव नहीं है।
  • स्कूल बंद करने के बाद अगर ये काम किया जाए तो न तो टाइम से कोटेदार मिलेंगे और न ही सही टाइम पर वाहन और अगर ये सब मिल भी गया तो शिक्षक कितने टाइम तक स्कूल पर रहेगा उसकी कोई सीमा नहीं है।
  • प्रधान से किसी काम (mdm चेक/हस्ताक्षर) को करने किस टाइम जाया जाए?
  • सुबह स्कूल सही टाइम पर पहुंचने की टेंशन और शाम में 4 बजे के बाद जल्दी कोई प्रधान मिलता नहीं है और अगर काम सही टाइम पर न हो तो वेतन रोकने की धमकी अलग से हर वक्त मिलती रहती है। 


  • आज भी बहुत से स्कूलों में गैस की डिलीवरी सही टाइम पर नहीं होती। सिलेंडर लेने जाना होता है ये काम किस टाइम किया जाए? 
  • 4 बजे तक एजेन्सी बंद और सन्डे को तो वैसे भी बंद रहती है। सिलेंडर न आए तो खाना न बन पाए, वेतन रुके और सिलेंडर लेने जाओ तो भी वेटक रुके। 
  • सन्डे सिलेंडर  को मिलेगा  शिक्षक करे तो क्या करे कोई तो समझाए।


  • किताब/जूता/बैग/स्वेटर आदि स्कूल तक पहुंचाने का टेंडर होता है। पर स्कूल तक पहुंचती कैसे है ये चीज़ें ये सब लोग जानते है। 
  • ये सब समय से स्कूल में न मिले तो भी शिक्षक का ही वेतन रुकेगा।


  • यह जो हर दिन कोई न कोई सूचना विभाग द्वारा मांगी जाती है वो कैसे भेजी जाए?और किस समय शिक्षक उस सूचना को विभाग को दे इसका कोई समय है? 
  • अगर सूचना न दे तो आदेश की अवहेलना और वेतन रुकेगा ।


  • न तो प्राथमिक विद्यालयों में कोई चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है न कोई स्थाई गार्ड।
  • ऐसी स्थिति में बहुत से काम खुद शिक्षक को ही करने होते हैं तो वह काम शिक्षक किस समय में करे?


  • स्कूल टाइम में शिक्षक का इंटरनेट चलाना प्रतिबंधित है। ऐसा विभाग और सरकार बोलती है
  • पर विभाग सारी सूचना वॉट्सएप और इंटरनेट पर ही मांगता है। एक भी पत्र स्कूल नहीं आता जो भी काम सब व्हाट्स ऐप पर ही होता है तो शिक्षक करे तो क्या करे?


हम सरकार की हर बात मानने को तैयार हैं बल्कि हमें इसकी खुशी होगी। पर सरकार शिक्षक से सिर्फ़ शिक्षा देने का ही काम करवाए और कुछ नहीं। इससे हमारी छवि भी सरकार और समाज की नज़रों में अच्छी होगी और हमारी नजर में सबकी।