गणेशशंकर विद्यार्थी
श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद के घर में 25 अक्तूबर, 1890 को हुआ था। इनके नाना सहायक जेलर थे। इनके पुरखे जिला फतेहपुर (उ.प्र.) के हथगाँव के मूल निवासी थे; पर जीवनयापन के लिए इनके पिता श्री जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना, मध्य प्रदेश के गंगवली कस्बे में बस गये। वहीं गणेश को स्थानी jiय एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में भर्ती करा दिया गया।
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध सामग्री से भरपूर प्रताप समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे। अतः प्रताप की लोकप्रियता बढ़ने लगी। दूसरी ओर वह अंग्रेज शासकों की निगाह में भी खटकने लगा। 1920 में विद्यार्थी जी ने प्रताप को साप्ताहिक के बदले दैनिक कर दिया। इससे प्रशासन बौखला गया। उसने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।
इतनी बाधाओं के बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ। उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिए जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, विद्यार्थी जी उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। इतना ही नहीं, वे क्रान्तिकारियों की भी हर प्रकार से सहायता करते थे। उनके लिए रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरणपोषण की भी चिन्ता वे करते थे।
क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में पहले तो मुसलमानों ने अच्छा सहयोग दिया; पर फिर वे पाकिस्तान की माँग करने लगे। भगतसिंह आदि की फांसी का समाचार अगले दिन 24 मार्च, 1931 को देश भर में फैल गया। लोगों ने जुलूस निकालकर शासन के विरुद्ध नारे लगाये। इससे कानपुर में मुसलमान भड़क गये और उन्होंने भयानक दंगा किया। विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या को भंग होते देख बौखला गये। वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े।
दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे। उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उनकी लाश के बदले केवल एक बाँह मिली, जिस पर लिखे नाम से वे पहचाने गये। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब धर्मान्धता की बलिवेदी पर भारत माँ के सपूत गणेशशंकर विद्यार्थी का बलिदान हुआ।
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