हिन्दी नाट्य साहित्य में
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
हिन्दी साहित्य में अनेक विधाएं
विद्यमान हैं जो मानव जीवन के सत्य को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में प्रस्तुत करने
का सामर्थ्य रखती है। इन विधाओं के अंतर्गत ही नाट्य विधा निहित है जिसमें सत्य को
पराकाष्ठा तक ले जाने का सामर्थ्य है। नाटक जीवन की अनुकृति है और मनुष्य चेतना
उसका अनुष्ठान है। इसलिए बीज से वट होकर नाटक आज संवेदना और शिल्प दोनों स्तरों पर
अनेक पडाव को पार करता हुआ समूचे जीवन को काल-चक्रीय संदर्भों में पूरी तरह
व्याख्यायित-विश्लेषित कर रहा है। इसकी महीन नाट्य बुनावट में व्यक्ति से राष्ट्र
का पूरा भूगोल अक्स होकर युगधर्मी कसौटियों पर अपने साहित्यिक धर्म को निभाता चला
है।
गत्यात्मक चिन्तन में काल को
विस्फोटक व्याकरण ने मनुष्य वजूद के अंर्तबाह्य को तलदर्शी होकर मथा है। इस तल
मंथन में समय की कोई परत छूटी हो ऐसा सम्भव नहीं है। इसलिए नाटक के पारदर्शी
चिन्तन के पैनेपन और समाज की द्रवणशील कठोरताओं ने एकरस होकर सृष्टि के सूर्यकोणी
रंगों को बिखेरा है।
अनुकृति और अनुष्ठान के इस
महाकाव्यात्मक बीजवटी नाट्य-दर्शन में काल की सम्पूर्ण चक्र भंगिमाएं जन्म से लेकर
आज तक मनुष्य जीवन का इतिहास रचती चली हैं और नखदन्ती वर्तमान अर्कदृष्टि से
निचोडकर भविष्य को ‘बीजने’ की कठिन चुनौतियों
से सामना कर रही है। नाट्य हथेली पर रखा खौलता हुआ वह तेजाब है जो उन सभी समकालीन
अग्निधर्मी प्रश्नों, ज्वालामुखी सम्वेदनाओं से जूझता रहा है। जिसके सम्मुख
समय-समय पर व्यक्ति लाचार-विवश रहा है। लाचार त्रासदियों के इस अरण्यभेदी की रुदन
की भयावह जंगल ध्वनियों के विष को पीकर नाटक आज नीलकंठी मुद्रा में आ गया है।
इसके बावजूद नाटक ने अनेक प्रकार
की मानस चेतनाओं को उद्घाटित कर उन्हें राष्ट्रीय, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक,
धार्मिक आदि क्षेत्रों में उत्पन्न विदुर्ताओं, असंगत मानवीय संबंधों की कशमकश,
वैज्ञानिक, औद्योगिक, बुद्धिवादी युग की अभिशप्त यांत्रिक जिंदगी, बेरोजगारी के
कारण असुरक्षित भविष्य, पूंजीवाद और सत्ता की प्रतिकूल भ्रष्टनीति, पीढ़ी-संघर्ष
अर्थतंत्र से संक्रमित मूल्य-संत्रास, स्त्री-पुरूष संबंधों की जटिलता,
लक्ष्यहीन-दिग्भ्रमित युवा मानस की द्वंदमयी स्थिति आदि रूपायित कर नाटक से
जिन्दगी का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करवाने का प्रयत्न किया है। यही कार्य समय-समय
पर राष्ट्रवाद के द्वारा भी किया जाता रहा है।
राष्ट्रवाद की उत्पत्ति मूल शब्द
राष्ट्र में वद् धातु जुडने के कारण हुई है।
‘राष्ट्र’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘चमकना’ अर्थ वाली राज धातु से हुई
है, जिसमें औणादिक ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय जोड़ा गया
है तदानुसार इसका अर्थ है –राजते दीप्यते, प्रकाशते शोभते इति राष्ट्रम् अर्थात् ‘जो स्वयं देदीप्यमान होने
वाला है वह राष्ट्र कहलाता है।’ कहीं इसे जनपद तो कहीं विषय की संज्ञा भी दी गयी है।
बर्गेस के अनुसार राष्ट्र जातीय
एकता के सूत्र में बंधी हुई वह जनता है जो अखंड भौगोलिक प्रदेश में निवास करती है।
इस प्रकार यह कहना अर्थपूर्ण होगा
कि एक सुरक्षित स्थान को राष्ट्र की संज्ञा दी गयी है। उसी सुरक्षित भू-भाग में
पनपने वाले राष्ट्रवादी विचारों को राष्ट्रवाद की संज्ञा दी गयी है।
इस प्रकार राष्ट्रवाद की जड़ें
नाटक के आदि गर्भ से लेकर अपनी गतिशील परमपरा में नाटक स्वाधीनतापूर्व और
स्वाधीनोत्तर काल में कभी काल विमुख नहीं हुआ। नाट्य-स्वर कहीं परंपरावादी है तो
कहीं सुधारवादी, कहीं पीड़ाजनित है तो कहीं परिवर्तन के पोषक हैं, कहीं विघटन के
समर्थक हैं तो कहीं विद्रोहात्मक। अनेक नए रूपों में समय-समय पर नाटक अपनी कैंचुली
बदलता रहा और निरंतर गतिशील रहा। अपनी इसी प्रभावी भूमिका के कारण नाट्यसाहित्य ने
भरपूर रूप से जनमानस में राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का बीजवपन किया है। राष्ट्रवाद
परिवर्तन की सोच है परिवर्तन नहीं। जिसकी झलक नाट्यसाहित्य में स्पष्ट है।
स्पष्ट है कि “राष्ट्रवाद एक ऐसा अवतार है जिसका वध नहीं किया
जा सकता। राष्ट्रवाद को दैव द्वारा नियुक्त उस शाश्वत की एक ऐसी शक्ति है जिसे
ईश्वर प्रदत्त उत्तरदायित्व पूरा करना ही है। केवल तभी वह उस सार्वभौम ऊर्जा के
अलिंगन में लौटेगी जिससे वह निकली थी। क्योंकि यह विचारधारा मानव जीवन में
प्राचीनकाल से ही किसी न किसी रूप में विद्यमान थी।”
साहित्य की दृष्टि से नाटक की
श्रेष्ठता इस बात में है कि वह कितनी जटिल मानवीय स्थितियों, द्वंदों, मन की
सूक्ष्म परतों और अंर्तद्वंदों की आवेगमय मार्मिकता को उभार पाता है। जो नाटक इस
हद तक ऐसा कर पाता है उस में अभिनय की सम्भावनाएं अधिक होने के साथ-साथ जनमानस में
राष्ट्रप्रेम और अशिष्ट के प्रति वाद-विवाद करने की शक्ति होती है। क्योंकि यह
पाठकों को मानसिक स्तर पर पूर्णत: प्रभावित करने वाला साहित्य है।
जब 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों का
भारत में आगमन हुआ और शासन व्यवस्था का संचालन अंग्रेजी शासन द्वारा किया जाने लगा
तो शासन को संतुलित और दृढ़ करने की दिशा में अंग्रेजी शिक्षा का प्रारम्भ हुआ
जिसके कारण भारतीयों और यूरोपीयों की विचारधाराएं आपस में टकरानें लगीं जिसकी
परिणति नवजागरण काल में हुई। उस समय भारतवर्ष की अधिकांश जनता निरक्षर थी। जन
सहभागिता के मूल्य को आंकते हुए निरक्षरों की शिक्षा के लिए नाट्य लेखन और नाट्य
प्रदर्शन अभीष्ट समझे गए।
यदि आचार्यों के मतों पर ध्यान
केन्द्रित किया जाए तो पाते हैं कि नाटक का आरम्भ भारतेन्दु के पदार्पण के साथ
अस्तित्व में आया। डॉ. नगेन्द्र ने नाट्य का आरम्भ भारतेन्दु युग से माना है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी
गद्य के विकास की चर्चा करते हुए नाट्य साहित्य को तीन श्रेणियों विभक्त किया है।
प्रथम उत्थान के अंतर्गत उन्होंने भारतेन्दु कालीन नाटक, द्वितीय उत्थान में
द्वेदी युगीन जासूसी एवं तिलस्मी नाटक, तृतीय उत्थान में साहित्यिक एवं नवीन शैली
के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद के नाटकों को रखा है। अर्थात् सम्पूर्ण हिन्दी नाट्य
साहित्य का विकास तीन श्रेणियों में हुआ है जिन्हें निम्नलिखित कालों के अंतर्गत
आंका जाता है-
1 पूर्व भारतेन्दु युगीन नाट्य साहित्य- 1610 से 1868 ई.
2 भारतेन्दु युगीन नाट्य साहित्य- 1868 से 1910 ई.
3 प्रसाद युगीन नाट्य साहित्य- 1910 से 1933 ई.
भारतीय नाट्य साहित्य की परम्परा
ऋग्वेद के सम्वाद-सूक्तों से लेकर आज के आर्थिक, बौद्धिक युक तक अविच्छिन्न रूप
में मिलती है। इस अत्यंत समृद्ध और प्राचीन नाट्य परम्परा की भाषा का स्वरूप भी
समय के साथ-साथ रिवर्तित होता गया। इसी भाषा के परिवर्तित रूप के बल पर नाटककारों
ने जनता के हृदय में राष्ट्र शब्द से जुड़ी सभी अवधारणाओं को जीवित करने का प्रयास
किया जिसमें वह काफी हद तक सफल भी हुए।
भारतेन्दु का नाटक भारत दुर्दशा
में उन्होंने स्वाधीनता, दासता से मुक्ति, ऊंच-नीच की समाप्ति, जाति भेद से मुक्ति
से कामना का संकेत किया। जबकि नीलदेवी में जटिल से जटिल परिस्थिति आने पर भी अपने
राष्ट्र के प्रति सम्मान, सत्कार, उदारभाव एवं सदैव राष्ट्र उन्नति के लिए स्वयं
को निःसंकोच न्योछावर करने की बात की है।
भारतेन्दु ने भारत की दुर्दशा का
अंकन इन पंक्तियों में करते हुए स्पष्ट कहा है कि-
“हे भारत वासियों।
आओ सब मिलकर भारत की दीन-दशा पर दो आंसू बहाओ।
इसकी पतनावस्था मुझसे नहीं देखी जा सकती
यह देश एक समय परम उन्नत, परम सभ्य और संस्कृत था।
यहां भागीरथ, हरिशचन्द्र, अर्जुन, राम जैसे महापुरूषों ने जन्म लिया था।
आज भारत में सभी ओर पारस्पारिक कलह, रोग और बेकारी का राज्य है।”
अर्थात् उन्होंने अग्रेजों की फूट डालो राज करो की कूटनीति का भद्र और अमानवीय
शोषणपूर्ण रवैये पर चोट करते हुए भारत गौरव का गुणगान किया है।
उनके अंधेर नगरी नामक नाटक में भी
सम्कालीन भारतीय समाज का बड़ा व्यंग्यात्मक एवं आकर्षण चित्र अंकित किया है।
जिसमें राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रवाद की भावना निहित है। इसके लिए उन्होंने भाषा
को हथियार की भांति प्रयोग करते हुए कहा है-
“निज भाषा उन्नति
अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।”
भारतेन्दु के नाटकों में देशप्रेम,
राष्ट्रीय जागरण, सामाजिक सुधार, धार्मिक पाखण्ड, रूढ़िग्रस्त जर्जर परम्पराओं,
तात्कालीन मनुष्य के जीवन में बैठी बुराईयों पर तिलमिला देने वाले तीखे व्यंग्य कर
उन्हें देशप्रेम और राष्ट्रवाद की संकल्पना से परिचित कराया है।
भारतेन्दु की विचारधारा आदर्शों,
नवजागृति का प्रतीक थी जिनमें सम-सामाजिक राष्ट्रवादी विचारधारा को उनके उद्गारों
से अत्याधिक प्रोत्साहन मिला। इस प्रकार नीलदेवी भारत जननी, भारत दुर्दशा इत्यादि
राष्ट्रीयता के भाव से परिपूर्ण एवं राष्ट्र प्रेरणा देने वाले गीतों की कृतियां
हैं जिसमें राज्य, राष्ट्र, समाज, संस्कृति, सभ्यता एवं राष्ट्रवाद के वास्तविक
अर्थ से परिचित कराया गया है।
भारतेन्दु के पश्चात् प्रसाद के
नाटकों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अनुठी झलक देखने को मिलती है। प्रसाद के
नाटकों में राष्ट्रीयता का भाव प्रधान रहा। उसके केन्द्र में सदैव राष्ट्र तत्व ही
रहा है। चन्द्रगुप्त नाटक में उनकी यह राष्ट्रीय चेतना अपने पूर्ण विकसित रूप में
है। प्रसाद ने वर्तमान को दृष्टि में रखकर इसमें अतीत के गौरव का ऐसा चित्रण किया
है जो पाठकों में राष्ट्रीय स्फूरती करने में सक्ष्म है। चन्द्रगुप्त की अलका का कहना-
“मेरा देश है, मेरे पहाड़
हैं, मेरी नदियां हैं और मेरे जंगल हैं। इस धरती के एक एक परमाणु मेरे हैं और मेरे
शरीर क्षुद्र अंश इन परमाणु से बने हुए हैं।”
नायक चन्द्रगुप्त के द्वारा यह
कहना कि- “हे मगध मैं तुझे
मिटा दूंगा, मिटा कर नया बनाऊंगा, नया न बना सका, तो मिटा जरूर दूंगा।” फिर विदेशी वाला
कार्नेलिया के मुख से भारत के गौरव और शोभा का सजीव चित्रण प्रस्तुत करना भी भारत
की विशिष्टता और अनुठेपन का प्रतीक है। प्रसाद की राष्ट्रीयता अंतर्राष्ट्रीयता को
भी एक आश्रय देती है और युगीन राष्ट्रीय भावना को विश्व बंधुत्व से जोड़ती है। तभी
तो कार्नेलिया चन्द्रगुप्त से कहती है- “मुझे इस देश से, जन्म भूमि के समान स्नेह होता
जा रहा है।... अन्य देश मनुष्य की जन्म भूमि है, यह भारत मानवता की जन्म भूमि है।”
नाटक स्कंदगुप्त का भी मुख्य
उद्देश्य देश को विदेशी हूणों से मुक्त कराना है। इसमें नाटककार ने भारत देश को
विश्व संस्कृति का जन्म स्थल बताते हुए लिखा है- “सभ्यता और संस्कृति के
संबंध में भारत को विश्व जननी का गौरव प्राप्त हो रहा है। वह प्रेम, सभ्यता, विद्या,
विभव का ग्रह रहा है। सबसे पहले संस्कृति का जन्म भारत में हुआ है।”
प्रसाद की राष्ट्रीयता पर समीक्षा
करते हुए महादेवी वर्मा ने लिखा है- ‘हमारे युग की समष्टि के हृदय और बुद्धि में जो
भाव और विचार नीरख उमड़-घुमड़ रहे थे, उन्हें कवि ने जाग्ण का स्वर देकर मुखरित
किया है।’
इतिहास और राष्ट्रीयता के सुखद
सम्मिलन से प्रसाद ने मौर्यकालीन निर्जीव इतिहास को सजीव कर नई धड़कनें दी हैं।
निःसंदेह ही प्रसाद पर पाश्चात्य नाट्यकला का प्रभाव रहा हो किन्तु उन्होंने
विशेषताओं की कभी अवहेलना नहीं की।
अंततः यह कहना उचित होगा कि नाट्य
साहित्य को प्रसाद ने नया चरित्र, नई घटनाऐं, नया ऐतिहासिक देशकाल, नया
आलाप-संलाप, स्वछंदतावादी दृष्टिकोण से ऐतिहासिक-सांस्कृतिक भूमि पर नवीन
जीवन-दर्शन, प्रेम की मानवीय सम्वेदना और जनमानस में व्यष्टि-समष्टि चेतना
(दाम्पत्य), राष्ट्र प्रेम, विश्व प्रेम (विश्व बंधुत्व और मानवतावाद), को जागृत
किया है।
निःसंदेह ही भारतेन्दु और प्रसाद
नाट्य साहित्य के ऐसे आधार स्तम्भ हैं जिन पर स्वतंत्रतापूर्व का नाट्य-साहित्य
पूरी तरह आश्रित है। इन दोनों नाटककारों ने मिलकर नाट्य साहित्य को समृद्ध करने के
साथ-साथ राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की वास्तविक अवधारणा से परिचित कराया है।