छायावाद की राजनीतिक परिस्थितियाँ
हिंदी की छायावादी काव्यधारा में निहित
परिस्थितियों के अध्ययन के लिए जिस तत्कालीन जनमानस जीवन दृष्टि की आवश्यकता थी,
उसे इस काव्यधारा ने बखूवी निभाया है। यह काव्यधारा दो महायुद्धों के बीच की वह कविता
है। जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृव्य राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कर रहे थे।
अहिंसा, सत्य और असहयोग की नीति जिसके मूल तत्त्व रहे। यद्यपि इन प्रांरभिक
उपकरणों से कोई विशेष सफलता नहीं मिली। किंतु न तो गाँधीजी इससे निरुत्साहित हुए
और न ही देशवासी।
हिंदी के कुछ विद्वानों ने छायावादी काव्य की वेदना और उसकी निराशा
का संबंध प्रथम महायुद्ध के बाद अंग्रेजी शासन का अपने वचनों को पूरा न करना, रौलट
एक्ट और 1919 के अवज्ञा आंदोलन की असफलता के साथ जोड़ा। किंतु यह नितांत असंगत है।
साहित्य पर तत्कालीन परिस्थिति का प्रभाव होने के कारण उसकी अभिव्यक्ति छायावादी
काव्य में आनी स्वाभाविक थी। जिसका प्रतिफल पंत, निराला, दिनकर, प्रसाद आदि की
काव्य रचनाओं में उजागर होता है, जो सौ वर्ष बाद आज भी प्रांसागिक और लोकप्रिय
हैं।
लगातार असफलता
होने के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों के लक्ष्य, नीति
और अदम्य उत्साह में तिल भर अंतर नहीं आया। इन्हीं सतत् प्रयत्नों और उत्साह-शक्ति के परिणामस्वरूप सन् 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
छायावादी
कवियों की राजनीतिक आंदोलन के प्रति उदासीनता ने तत्कालीन राजनीतिक निराशा
नहीं बल्कि औद्योगिकता से प्रेरित उनका व्यक्तिवाद है। उनका काव्य के प्रति
एक विशेष दृष्टिकोण है। यह मात्र संयोग था कि छायावाद तब जन्मा, जब राष्ट्रीय आंदोलन
चल रहे थे, यदि वे न भी होते तब भी छायावादी काव्य का जन्म अवश्यंभावी था। साथ ही
उसका स्वरूप भी वही होता जो आज है।
डॉ. शिवदान सिंह के शब्दों में कहें तो इस बात
को स्पष्ट समझ लेना जरूरी है कि यदि हमारा देश पराधीन न होता और हमारे यहाँ
राष्ट्रीय आंदोलन की आवश्यकता न रही होती, तब भी आधुनिक औद्योगिक समाज (पूँजीवाद)
का विकास होता ही। काव्य में स्वच्छंदतावादी भावना और व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति
मुखर हो उठती। उस समय छायावादी कविता राष्ट्रीय आंदोलन या जागृति का सीधा परिणाम न
होते हुए पाश्चात्य अर्थव्यवस्था और संस्कृति के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप हमारे
देश और समाज के बाहरी एवं भीतरी जीवन में प्रत्यक्ष और परोक्ष परिवर्तन कर रही थी।
इस परिवर्तन ने जिस प्रकार सामूहिक व्यवहार और कर्म के क्षेत्र में राष्ट्रीय संघर्ष
को प्रेरणा दी। उसी प्रकार सांस्कृतिक क्षेत्र में स्वच्छंदतावाद की प्रवृत्ति को
भी प्रेरणा दी।
इस
प्रकार देश की प्राचीन संस्कृति और पाश्चात्य काव्य के प्रभावों को ग्रहण करती हुई
छायावादी कविता राष्ट्रीय जागरण के रूप में पनपते हुए फली-फूली। हाँ, राष्ट्रीय
आंदोलनों का यह लाभ अवश्य हुआ कि व्यक्तिवाद असामाजिक पथों पर न भटका।
जनसामान्य
में भटकाव का अभाव होने के कारण नवजागरण पर सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विचारधारा का
गहरा प्रभाव रहा। भारतीय दर्शन और वेदांत का विदेशों में प्रचार-प्रसार करके पुनः भारतीय दर्शन के झंडे गाढ़ दिए। जिसने सत्य एवं मनुष्यता को सार्थकता का आईना
दिखाया। निराला द्वारा प्रस्तुत ‘राम की शक्तिपूजा’ तो रामकृष्ण और विवेकानंद की वेदांती
विचारधारा से प्रभावित नज़र आती है। जिसे निराला की आत्मीयता और रामकृष्ण एवं
विवेकानंद की दूरदर्शिक सिद्धांतों की काव्यात्मक प्रस्तुति कहा जा सकता है।1
- श्री शरण एवं आलोक रस्तोगी, हिंदी साहित्य का इतिहास, द्वितीय भाग, पृ-155
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, साहित्य का इतिहास