क्रांतिकारी निराला साहित्य में स्त्री विमर्श
प्रत्येक मानवतावादी व्यक्ति सकारात्मक शक्ति के संपर्क में शीघ्र ही आ जाता है। जिसकी अमर झलक उसके संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व में स्पष्ट दिखती है। ऐसे ही मानवीय मूल्यों एवं संवेदनशीलता से परिपूर्ण महाकवि निराला थे। उनके जीवन पर इन मूल्यों का प्रभाव इतना गहरा था कि उसकी प्रखर अभिव्यक्ति उनके साहित्य में बड़ी सहजता से देखी जा सकती है। समाज हितैषी रामकृष्ण परमहंस, रवींद्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद जैसे मनीषियों के चिंतन से प्रभावित एवं उनके प्रति अनन्य आस्था रखने वाले मानवतावादी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला उद्तीप्त सूर्य की भांति हिंदी साहित्य में आज भी दैदीप्यमान हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी निराला वास्तव में निराले ही थे। उन्होंने अपने समय की हर समस्या को न केवल साहित्य का विषय बनाया, बल्कि उसे सशक्त अभिव्यक्ति भी दी।
निराला ने तत्कालीन समाज
में व्याप्त साम्राज्यवादी शक्तियों के अमानवीय दृष्टिकोण और आर्थिक शोषण को अपने
साहित्य में मुखरित किया। सामंतवादी सत्ता के प्रतीक जमींदार, ताल्लुकेदार, देशी
रजवाड़े और महाजन आदि के शोषण चक्र में पिसते किसानों की दुर्दशा का चित्रण अपने
साहित्य में किया। वह वर्ण-व्यवस्था और छुआछूत के विरुद्ध आव़ाज उठाना, जातिवाद का
प्रबल विरोध, मानवतावाद की प्रतिष्ठा और दलितों-उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति
व्यक्त करते थे। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर निराला का स्त्रियों
के प्रति कैसा दृष्टिकोण था, क्या वह पितृसत्तात्मक सत्ता के प्रतिनिधि थे? या शताब्दियों से पीड़ित स्त्री के प्रति उदारवादी थे या
नहीं।
स्त्रियों से संबंधित अनेकानेक प्रश्नों का उत्तर उनके साहित्य में अनायास ही मिल जाता है। निराला-साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि पितृसत्तात्मक आचार-संहिता की यातना की शिकार नारी की दर्दनाक स्थिति का अनुभुव वह बहुत पहले ही कर चुके थे; जो स्त्री-विमर्श आज साहित्य का प्रमुख विषय बन हुआ है। उससे भी अधिक संतुलित स्त्री-विमर्श की उपस्थिति निराला साहित्य में मिलती है। निराला ने स्त्री-विमर्श को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल प्रस्तुत किया है। जिसमें स्त्री पुरुषों के विरुद्ध नहीं, उसकी संगीनी है जो उसके साथ कंधे से कंधा मिलकर हर स्थिति का सामना करती है। अर्थात् दोनों की समानता पर बल दिया।
निराला अपने साहित्य में केवल समस्याओं को ही नहीं, उनका
ठोस समाधान भी वह प्रस्तुत करते चले हैं। निराला ने सही अर्थों में स्त्री-विमर्श
की चर्चा की है। किंतु आज जिस स्त्री-विमर्श की चर्चा है, वह कभी तो पाश्चत्य का
अंधानुकरण लगता है, तो कभी नारी-देह की अभिव्यक्ति मात्र। वर्तमान स्त्री-विमर्श
में स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी या वैरी से दिखाई देते हैं,
जबकि सत्य एकदम इसके विपरीत है। स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी
नहीं, एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरा पूर्णतः अधूरा है। इस सत्य की
संगति निराला साहित्य स्पष्ट होती है।
नवीनता को उद्घाटित करने
वाले निराला का साहित्य सही अर्थों में स्त्री-विमर्श का साहित्य है। उन्होंने
पुरुष को स्त्री का दुश्मन नहीं कहा, बल्कि स्त्री-विमर्श के आधारभूत चिंतन के
द्वारा उसकी शिक्षा के विषय में अपना बुलंद स्वर प्रकट किया है। स्त्री-शिक्षा के
विषय में उनका मत था कि यदि स्त्री को उचित प्रकार से शिक्षित किया जाए तो वह हर
प्रकार की गुलामी एवं परतंत्रता से मुक्त हो सकती है। मुक्ति की इस कामना को आधार
बनाकर उन्होंने यह मत प्रकट किया—“शिक्षित महिलाएँ ही अविवेक
और परतंत्रता के अंधकार को दूर करके स्वतंत्र व्यक्तित्व का निर्माण कर सकती हैं। शिक्षा
ही स्त्रियों में स्वतंत्र, तेजस्वी, मेधावी बालक-बालिकाओं को जन्म देंगी।” [1]
यदि स्त्री सदियों से गुलाम
रहीं तो उसका एकमात्र कारण यही है कि उसे पूर्वनियोजित षड्यंत्र के अंतर्गत शिक्षा
के अधिकार से वंचित रखा गया। अपने साहित्य के माध्यम से वह स्त्री-शिक्षा के लिए
अत्यंतावश्यक प्रयास की बात प्रखर करते रहे। इस स्वर में स्त्री-विमर्श पर बहुत बल
दिया, जो निराला की रचनाओं में सहज, स्वाभाविक रूप में दिखता है। स्त्री के
चहुँमुखी विकास के लिए स्त्री की स्वतंत्रता को आवश्यक मानते थे। उन्होंने स्पष्ट
कहा— “महिलाओं की स्वतंत्रता ही
उनके जीवन की सब दिशाओं का विकास करेगा। हमें सिर्फ स्वतंत्रता का स्वरूप बतलाना
है।”[2]
स्वतंत्रता के इस विचार की अभिव्यक्ति उनके ‘अलका’ नामक उपन्यास की नायिका
अलका के रूप में देखा जा सकता है। ‘अलका’ नारी स्वातंत्र्य की प्रतिमा है। वह जमींदार मुरलीधर का डटकर मुकाबला
करते हुए स्वयं को उसकी वासना का शिकार होने से बचाती है। इस बचाव में वह उसे गोली
तक मारने से पीछे नहीं हटती। निराला साहित्य के माध्यम स्त्री-स्वातंत्र्य के लिए
ऐसा मार्गदर्शन करते हैं। जिससे प्रेरित होकर वर्तमान में ‘स्त्री-विर्मश’ नामक नवीन मुहिम चलायी जा रही है। ताकि स्त्रियों को उनके हिस्से का
मान-सम्मान दिलाया जा सके।
निराला स्त्री-स्वतंत्रता का हनन करने वाले पुरुष के
स्वार्थपूर्ण अधिकारों का विरोध करते हैं। वह सुहाग-चिह्नों को धारण करने वाले
सिंदूर, बिंदी, बिछुवे, मंगलसूत्र आदि को नारी-परतंत्रता का विषय मानते हैं। उनकी दृष्टि
में सुहाग को प्राण समझकर, उसके चिह्नों को धारण करना, स्त्रियों के लिए सम्मानजनक
कदापि नहीं हो सकता। उनके ‘अलका’ नामक उपन्यास की स्त्री-पात्र सावित्री बिंदी, सिंदूर और चूड़ी कभी नहीं
पहनती। आज स्त्री-विमर्श की जो आवाज़ का उठाती है, वैसी आवाज़ निराला दर्शकों पहले
ही मुखरित कर चुके थे।
महाकवि निराला के संदर्भ में एक बात ध्यातव्य है कि यद्यपि
वह स्त्री-स्वातंत्र्य के पक्षधर थे। परंतु वह स्वतंत्रता के अंधानुकरण के समर्थक
कदापि नहीं। वह भारतीय नारी का पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध से अभिभूत हो जाना भी
बहुत बुरा मानते थे। वह भारतीय-पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के संतुलन के
पक्षपाती थे। वह इतना अवश्य चाहते थे कि उनकी स्त्रियाँ अन्याय का प्रतिकार करने
में सक्षम बने। कठोर बंधनों और रुढ़ियों को तोड़ने का साहसपूर्ण उद्योग कर पुरुष
के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में सक्रिय रहें।
निराला प्रेम और विवाह के संबंध में महिलाओं को पूर्णतः
स्वतंत्र देखना चाहते हैं। जिसका प्रमाण उनके उपन्यास ‘निरुपमा’ के कथन में दिखाई देता
है। इस उपन्यास में वरपक्ष कन्या को जितनी बार चाहे देख सकता है। किंतु कन्या को इसकी
आजादी नहीं। हर स्थिति में वर वरेण्य ही होगा। इस उपन्यास में नायिका के लिए यामिनी
बाबू मनोनीत नहीं, जिससे वह विवाह करना चाहती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वह
स्त्री-पुरुष के उन्मुक्त प्रेम पर बल देने वाले जातिगत संकीर्णताओं के विरोधी,
मानवतावादी लेखक थे। निराला ने अपने समय के साहित्य और समाज का गहन अध्ययन, चिंतन
एवं मनन किया। तब वह इस तथ्य पर पहुँचे कि आज स्त्री की जो दीन-हीन दशा है। उसका
उत्तरदायित्व मुल्लाओं और पंडितों पर है। अतः अपने साहित्य द्वारा वह इनके प्रति
अपना विरोध प्रकट करते हैं।
नारी दुर्दशा का एक बड़ा कारण आर्थिक परावलंबन है। इस भाव
को केंद्र में रखकर निराला, पुरुषों पर निर्भर होने के कारण ही स्त्रियों को
असंख्य अत्याचार सहने की घटना प्रकट करते हैं। यदि उनमें स्वावलंबन आ जाए, तो
पुरुष की श्रेष्ठता का भाव स्वयंमेव समाप्त हो जाएगा। नारी को दयनीय एवं पराधीन
बनाने वाली अमानवीय शक्तियों के विरुद्ध उन्होंने सशक्त स्वर में कहा है- ‘जब तक हमारी गृह देवियाँ लक्ष्मी और सरस्वती बनकर हमारे जीवन
के गृह अंधकार को दूर नहीं करतीं, तब तक हम अपने जीवन में सुख और किसी भी प्रकार
की शक्ति के विकास की कामना नहीं कर सकते।’ निराला की दृष्टि में जब तक हमारे घर की
बहन-बेटी आंसू बहाती रहेगी, तब तक हम विजय नहीं हो सकते। इस पर वह कहते हैं— “स्त्रियों को उत्साह देने से पुरुषों में कितनी बड़ी शक्ति का जागरण हो
सकता है।”[3]
निराला हर क्षेत्र में नवीन स्वर को लाने वाले साहित्यकार
थे। उनकी दृष्टि में महिला को हर मुक्ति के लिए कुंठित बंधनों से मुक्त करना
आवश्यक है। इसलिए वह स्त्री को हर प्रकार की ग्रंथियों एवं बाधाओं से मुक्त करने
की अभिलाषा इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं[4]—
नहीं लाज, भय, अनृत, अनय, दुःख,
लहराता उर मधुर प्रणय सुख,
अनायास ही ज्योतिर्मय मुख, स्नेह-पाश-कसना
निराला स्त्री स्वतंत्रता की मुहिम पर आकर ठहरे नहीं। इसके बाद उन्होंने
बाल-विवाह और दहेज-प्रथा पर प्रकाश डाला। विवाह की महत्ता के विषय में कहा— “विवाह एक ऐसा शब्द है जो स्वयं स्त्री-स्वतंत्रता का द्योतक
है, इसके लिए स्त्री-पुरुष की स्वतंत्र शक्ति उत्तरदायी है। बालक-बालिका इस शब्द
की सार्थकता नहीं करते। विशेष रूप से इस शक्ति को वहन करने का अधिकार उसी पुरुष
एवं स्त्री को है। जिसका पूरा-पूरा विकास हो चुका हो, जो संसार समझ गए हैं और अपनी
इच्छा से एक-दूसरे से मिलकर, एक-दूसरे का उत्तरदायित्व लेते हुए धर्म, नीति और
समाज की उचित भावनाओं को स्वतंत्र वृत्ति से ढोने के लिए तैयार हैं।”[5]
विवाह जैसे पवित्र संबंध में दहेज प्रथा को निराला ने नासूर
माना है, जो आज भी रिस रहा है। गरीब पिता के घर कन्या का जन्म लेना अभिशाप है।
जिसकी विवशता को व्यक्त करते हुए निराला ने कहा—
ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार।
खाकर पत्तल में करें छेद
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषम-बेलि में विष ही फल।
निराला विधवा पुर्नविवाह की जोरदार वकालत करते हैं। जहाँ विधवा को दोबारा
विवाह का अधिकार नहीं, वहीं पुरुष कई विवाह कर सकता है। समाज की इस दोहरी नैतिकता
के वह सदा विरोधी रहे— ‘उनकी दृष्टि में जहाँ
पुरुष जब चाहे अपनी इच्छाओं की पूर्ति के
लिए अनेक विवाह कर सकता है। लेकिन स्त्री को पति की मृत्यु के बाद भी पुर्नविवाह
का अधिकार नहीं। यह गलत ही नहीं अपराध है।’ इस दोहरी नैतिकता
का विरोध वह ‘अलका’ नामक
उपन्यास में अजित से विधवा वीणा का विवाह कराकर करते हैं। इस ज्योतिर्मयी कहानी
में एक ऐसी विधवा को प्रस्तुत किया है। जिसने प्रेम को पति की मृत्यु के पश्चात्
भी प्राप्त पुर्नविवाह करके प्राप्त किया। वह स्त्री की विवशता और गुलामी के लिए
जिम्मेदार पुरुष समाज का प्रखर विरोध करती है।
उनके लिए सामान्य स्त्री तो
सम्माननीय है ही, वेश्या को भी वह हेय और त्याज्य नहीं समझते। पतित समझी जाने वाली
वेश्या में वह स्त्री-गरिमा के दर्शन करते हैं। ‘क्या देखा’ कहानी में हीरा नामक वेश्या के
त्यागपूर्ण जीवन का वर्णन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
वर्तमान समय में कन्या-भ्रूण
हत्या भीषण समस्या के रूप व्याप्त है। निरंतर नर और नारी का असंतुलन बढ़ता जा रहा
है। विभिन्न कारणों से समाज कन्या-भ्रूण-जन्म रोकने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा
है। ऐसे समाज में पिता द्वारा पुत्री की मृत्यु पर विलाप करना, अपना पितृत्व की
निरर्थकता का अनुभव कर उसे कविता के रूप में व्यक्त करना स्त्री के प्रति उनके
उदार हृदय का साक्षात्कार है। जिसे महाप्राण निराला ‘सरोज-स्मृति’ में व्यक्त करते हैं—
धन्य में पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित कर न सका
जाना तो अर्थागमोपाय
पर सदा रहा संकुचित काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर
निराला की दृष्टि पुत्र-पुत्री में कोई अंतर न करते हुए दोनों को समान समझती
है।
यद्यपि भारतीय समाज में पिता की मृत्यु के बाद तर्पण का अधिकार पुत्र को है।
किंतु निराला इस मान्यता को बिलकुल नहीं मानते। उनके लिए पुत्री-पुत्र के समान ही
महत्त्वपूर्ण है। उसे भी पिता का तर्पण करने का अधिकार होना चाहिए।
स्त्री-विमर्श का आधार
स्त्री-पुरुष की समानता पर पर्याप्त बल देता है। क्योंकि नर-नारी की समानता के
अभाव में मानव-समानता का सपना साकार नहीं हो सकता। वह नारी जागरण के समर्थक में नारी
के समर्पण का अनुचित लाभ उठाने वाले पुरुष का भर्त्सनापूर्ण विरोध करते हैं। वह
स्त्री को शक्ति का प्रतीक मानते हैं, तभी तो वह ज्ञान की देवी सरस्वती से विनती
करते हैं कि ज्ञान का नवीन प्रकाश कर संसार को नई गति प्रदान करे।
वर दे वीणा वादिनी वर दे
प्रिय स्वतंत्र नव अमृत मंत्र नव भारत में भर दे
वर दे वीणा वादिनी दे वर दे
चीर स्वतंत्र नव अमृत
स्त्री का मातृ रूप सदा से ही सम्मान का अधिकारी रहा है। किंतु पत्नी रूप में
स्त्री की स्थिति में परिवर्तन हो रहा है। निराला पत्नी रूप का भी सम्मान करते हैं।
वह स्त्री को मातृत्व की अतुलनीय शक्ति समझते हैं। जिसने संपूर्ण मानव-सृष्टि का
सर्जन किया है। अपनी ‘तुलसीदास’ नामक कविता में उन्होंने पत्नी के इसी शक्तिपूर्ण और
प्रेरणादायक स्वरूप का सशक्त वर्णन किया है।
तुलसीदास’ के परिवेश द्वारा निराला
ने अपने समय को व्यंजित किया है। अपने परिवेश से जैसे द्वंद्व का सामना तुलसीदास
ने किया, वैसा ही निराला को भी करना पड़ा। निराला ने ‘तुलसीदास’ में मध्यकालीन जीवन-मूल्यों एवं अपने आधुनिक-चिंतन के रचनात्मक द्वंद्व
से पंरपरा को परिमार्जित कर एक नई अर्थवत्ता प्रकट की है।
इस प्रकार निराला ने अपने
साहित्य द्वारा शताब्दियों से चली आ रही गुलामी की जंजीरों को उतार फैंककर लोकसामान्य
की दुर्दशा का निवारण आँसू बहाने से न होने की बात की है। इसके लिए वह उनका
आत्मनिर्भर होना आवश्यक मानते हैं। स्त्रियों को भी अपनी अबला छवि को दूर कर अपने
अधिकारों और अस्मिता के लिए सशक्त आवाज़ बुलंद करनी होगी। ताकि यह क्रूर समाज नारी
शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाए। उन्हें दूसरों को अपनी
आँखों से देखना होगा न कि स्वयं को दूसरों की आँखों से। उन्होंने स्पष्ट किया कि
जब स्त्री स्वतंत्र और सुखी होगी; तभी समाज और संपूर्ण देश
सुखी एवं संपन्न होगा। यदि वह पद-दलित रहेगी तो राष्ट्र भी दरिद्रता से भरा रहेगा।
छायावाद के दृढ़ लौह-स्तंभ
निराला के साहित्य में स्त्री के प्रति उनकी दृष्टि सच्ची मानवतावादी दृष्टि है।
उनके सभी नारी-पात्र शोषणकारी की बेड़ियों को तोड़कर स्वतंत्र वातावरण में साँस
लेने को तत्पर हैं। शिक्षित नारी-पात्र अशिक्षित बहनों की साक्षरता की जिम्मेदारी
उठाकर देश के विकास में योगदान करती दिखाई देती है। अंततः निराला समाज में व्याप्त नारी वेदना का साक्षात स्वरूप प्रकट कर रहे हैं।
संदर्भ ग्रंथसूची
-
सिंह, केदारनाथ, कल्पना और छायावाद, वाणी
प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996
-
गौतम, सुरेश, छायावाद का उत्तररागः
राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य, आलोकपर्व प्रकाशन, दिल्ली, 1997।
-
डॉ, नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास,
मयूर पेपरबैक्स, नोएडा।
-
डॉ राय, सच्चिदानंदन, हिंदी उपन्यास
सांस्कृतिक एवं मानववादी चेतना, राजीव प्रकाशन, इलाहाबाद।
-
डॉ. अय्यादत पांडेय, छायावादी काव्य में
लोकमंगल की भावना, प्रेम प्रकाशन मंदिर, दिल्ली-110066.
-
समाज और महिलाएँ, टिप्पाणी, निराला
रचनावली, भाग-6, पृ-315 ।
-
डॉ. आलोक कुमार रस्तोगी, हिंदी साहित्य का
इतिहास, द्वितीय खण्ड, प्रेम प्रकाशन मंदिर, प्रथम संस्करण, 1988, दिल्ली-110068.
-
बाहरी स्वतंत्रता, निबंध, निराला रचनावली, भाग-6.
-
कौन
हो तुम शुभ्र किरण-वसना, निराला रचनावली, भाग-1, पृ-221
[1]
समाज और महिलाएँ, टिप्पाणी, निराला रचनावली, भाग-6,
पृ-315
[2] वही, पृ-375
[3] बाहरी स्वतंत्रता, निबंध, निराला रचनावली, भाग-6
[4]
कौन हो तुम शुभ्र किरण-वसना, निराला रचनावली, भाग-1, पृ-221
[5]
निराला रचनावली, भाग-6, पृ-449
निराला स्त्री-स्वतंत्रता का हनन करने वाले पुरुष के
स्वार्थपूर्ण अधिकारों का विरोध करते हैं। वह सुहाग-चिह्नों को धारण करने वाले
सिंदूर, बिंदी, बिछुवे, मंगलसूत्र आदि को नारी-परतंत्रता का विषय मानते हैं। उनकी दृष्टि
में सुहाग को प्राण समझकर, उसके चिह्नों को धारण करना, स्त्रियों के लिए सम्मानजनक
कदापि नहीं हो सकता। उनके ‘अलका’ नामक उपन्यास की स्त्री-पात्र सावित्री बिंदी, सिंदूर और चूड़ी कभी नहीं
पहनती। आज स्त्री-विमर्श की जो आवाज़ का उठाती है, वैसी आवाज़ निराला दर्शकों पहले
ही मुखरित कर चुके थे।
निराला प्रेम और विवाह के संबंध में महिलाओं को पूर्णतः
स्वतंत्र देखना चाहते हैं। जिसका प्रमाण उनके उपन्यास ‘निरुपमा’ के कथन में दिखाई देता
है। इस उपन्यास में वरपक्ष कन्या को जितनी बार चाहे देख सकता है। किंतु कन्या को इसकी
आजादी नहीं। हर स्थिति में वर वरेण्य ही होगा। इस उपन्यास में नायिका के लिए यामिनी
बाबू मनोनीत नहीं, जिससे वह विवाह करना चाहती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वह
स्त्री-पुरुष के उन्मुक्त प्रेम पर बल देने वाले जातिगत संकीर्णताओं के विरोधी,
मानवतावादी लेखक थे। निराला ने अपने समय के साहित्य और समाज का गहन अध्ययन, चिंतन
एवं मनन किया। तब वह इस तथ्य पर पहुँचे कि आज स्त्री की जो दीन-हीन दशा है। उसका
उत्तरदायित्व मुल्लाओं और पंडितों पर है। अतः अपने साहित्य द्वारा वह इनके प्रति
अपना विरोध प्रकट करते हैं।
निराला हर क्षेत्र में नवीन स्वर को लाने वाले साहित्यकार
थे। उनकी दृष्टि में महिला को हर मुक्ति के लिए कुंठित बंधनों से मुक्त करना
आवश्यक है। इसलिए वह स्त्री को हर प्रकार की ग्रंथियों एवं बाधाओं से मुक्त करने
की अभिलाषा इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं[4]—
ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार।
वर्तमान समय में कन्या-भ्रूण
हत्या भीषण समस्या के रूप व्याप्त है। निरंतर नर और नारी का असंतुलन बढ़ता जा रहा
है। विभिन्न कारणों से समाज कन्या-भ्रूण-जन्म रोकने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा
है। ऐसे समाज में पिता द्वारा पुत्री की मृत्यु पर विलाप करना, अपना पितृत्व की
निरर्थकता का अनुभव कर उसे कविता के रूप में व्यक्त करना स्त्री के प्रति उनके
उदार हृदय का साक्षात्कार है। जिसे महाप्राण निराला ‘सरोज-स्मृति’ में व्यक्त करते हैं—
- सिंह, केदारनाथ, कल्पना और छायावाद, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996
- गौतम, सुरेश, छायावाद का उत्तररागः राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य, आलोकपर्व प्रकाशन, दिल्ली, 1997।
- डॉ, नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा।
- डॉ राय, सच्चिदानंदन, हिंदी उपन्यास सांस्कृतिक एवं मानववादी चेतना, राजीव प्रकाशन, इलाहाबाद।
- डॉ. अय्यादत पांडेय, छायावादी काव्य में लोकमंगल की भावना, प्रेम प्रकाशन मंदिर, दिल्ली-110066.
- समाज और महिलाएँ, टिप्पाणी, निराला रचनावली, भाग-6, पृ-315 ।
- डॉ. आलोक कुमार रस्तोगी, हिंदी साहित्य का इतिहास, द्वितीय खण्ड, प्रेम प्रकाशन मंदिर, प्रथम संस्करण, 1988, दिल्ली-110068.
- बाहरी स्वतंत्रता, निबंध, निराला रचनावली, भाग-6.
- कौन हो तुम शुभ्र किरण-वसना, निराला रचनावली, भाग-1, पृ-221
[4]
कौन हो तुम शुभ्र किरण-वसना, निराला रचनावली, भाग-1, पृ-221