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Tuesday, September 29, 2020

भगतसिंह

28 सितम्बर/जन्म-दिवस

इन्कलाब जिन्दाबाद के उद्धघोषक भगतसिंह


क्रान्तिवीर भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को ग्राम बंगा, (जिला लायलपुर, पंजाब) में हुआ था। उसके जन्म के कुछ समय पूर्व ही उसके पिता किशनसिंह और चाचा अजीतसिंह जेल से छूटे थे। अतः उसे भागों वाला अर्थात भाग्यवान माना गया। घर में हर समय स्वाधीनता आन्दोलन की चर्चा होती रहती थी। इसका प्रभाव भगतसिंह के मन पर गहराई से पड़ा। 


13 अपै्रल 1919 को जलियाँवाला बाग, अमृतसर में क्रूर पुलिस अधिकारी डायर ने गोली चलाकर हजारों नागरिकों को मार डाला। यह सुनकर बालक भगतसिंह वहाँ गया और खून में सनी मिट्टी को एक बोतल में भर लाया। वह प्रतिदिन उसकी पूजा कर उसे माथे से लगाता था। 


भगतसिंह का विचार था कि धूर्त अंग्रेज अहिंसक आन्दोलन से नहीं भागेंगे। अतः उन्होंने आयरलैण्ड, इटली, रूस आदि के क्रान्तिकारी आन्दोलनों का गहन अध्ययन किया। वे भारत में भी ऐसा ही संगठन खड़ा करना चाहते थे। विवाह का दबाव पड़ने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और कानपुर में स्वतन्त्रता सेनानी गणेशशंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम करने लगे। 


कुछ समय बाद वे लाहौर पहुँच गये और ‘नौजवान भारत सभा’ बनायी। भगतसिंह ने कई स्थानों का प्रवास भी किया। इसमें उनकी भेंट चन्द्रशेखर आजाद जैसे साथियों से हुई। उन्होंने कोलकाता जाकर बम बनाना भी सीखा। 


1928 में ब्रिटेन से लार्ड साइमन के नेतृत्व में एक दल स्वतन्त्रता की स्थिति के अध्ययन के लिए भारत आया। लाहौर में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में इसके विरुद्ध बड़ा प्रदर्शन हुआ। इससे बौखलाकर पुलिस अधिकारी स्काॅट तथा सांडर्स ने लाठीचार्ज करा दिया। वयोवृद्ध लाला जी के सिर पर इससे भारी चोट आयी और वे कुछ दिन बाद चल बसे।


इस घटना से क्रान्तिवीरों का खून खौल उठा। उन्होंने कुछ दिन बाद सांडर्स को पुलिस कार्यालय के सामने ही गोलियों से भून दिया। पुलिस ने बहुत प्रयास किया; पर सब क्रान्तिकारी वेश बदलकर लाहौर से बाहर निकल गये। कुछ समय बाद दिल्ली में केन्द्रीय धारासभा का अधिवेशन होने वाला था। क्रान्तिवीरों ने वहाँ धमाका करने का निश्चय किया। इसके लिए भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त चुने गये। 


निर्धारित दिन ये दोनों बम और पर्चे लेकर दर्शक दीर्घा में जा पहुँचे। भारत विरोधी प्रस्तावों पर चर्चा शुरू होते ही दोनों ने खड़े होकर सदन मे बम फंेक दिया। उन्होंने ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए पर्चे फंेके, जिन पर क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्देश्य लिखा था।


पुलिस ने दोनों को पकड़ लिया। न्यायालय में भगतसिंह ने जो बयान दिये, उससे सारे विश्व में उनकी प्रशंसा हुई। भगतसिंह पर सांडर्स की हत्या का भी आरोप था। उस काण्ड में कई अन्य क्रान्तिकारी भी शामिल थे; जिनमें से सुखदेव और राजगुरु को पुलिस पकड़ चुकी थी। इन तीनों को 24 मार्च, 1931 को फाँसी देने का आदेश जारी कर दिया गया।


भगतसिंह की फाँसी का देश भर में व्यापक विरोध हो रहा था। इससे डरकर धूर्त अंग्रेजों ने एक दिन पूर्व 23 मार्च की शाम को इन्हेंे फाँसी दे दी और इनके शवों को परिवारजनों की अनुपस्थिति में जला दिया; पर इस बलिदान ने देश में क्रान्ति की ज्वाला को और धधका दिया। उनका नारा ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ आज भी सभा-सम्मेलनों में ऊर्जा का संचार कर देता है।


Thursday, September 24, 2020

नवदधीचि अनंत रामचंद्र गोखले

 सितम्बर/जन्म-दिवस

नवदधीचि अनंत रामचंद्र गोखले

अनुशासन प्रति अत्यन्त कठोर श्री अनंत रामचंद्र गोखले का जन्म 23 सितम्बर, 1918 (अनंत चतुर्दशी) को म.प्र. के खंडवा नगर में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनका हवेली जैसा निवास ‘गोखले बाड़ा’ कहलाता था। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के पिता श्री सदाशिव गोलवलकर जब खंडवा में अध्यापक थे, तब वे इस घर में ही रहते थे। 


नागपुर से इंटर करते समय गोखले जी धंतोली सायं शाखा में जाने लगे। एक सितम्बर, 1938 को वहीं उन्होंने प्रतिज्ञा ली। इंटर की प्रयोगात्मक परीक्षा वाले दिन उन्हें सूचना मिली कि डा. हेडगेवार ने सब स्वयंसेवकों को तुरंत रेशीम बाग बुलाया है। उन दिनों शाखा पर ऐसे आकस्मिक बुलावे (urgent call) के कार्यक्रम भी होते थे। जब गोखले जी वहां पहुंचे, तो डा. जी ने कहा कि तुम्हारी परीक्षा है, इसलिए तुम वापस जाओ। युवा गोखले जी इससे बहुत प्रभावित हुए कि डा. जी जैसे बड़े व्यक्ति को भी उनकी परीक्षा का ध्यान था।


डा. जी के निधन के बाद दिसम्बर, 1940 में नागपुर में अम्बाझरी तालाब के पास तरुण-शिविर लगा था। उसमें श्री गुरुजी ने युवाओं से प्रचारक बनने का आह्नान किया। गोखले जी कानून की प्रथम वर्ष की परीक्षा दे चुके थे; पर पढ़ाई छोड़कर वे प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें उ.प्र. के कानपुर नगर में भेजा गया। वहां के बाद उन्होंने उरई, उन्नाव, कन्नौज, फरुखाबाद, बांदा आदि में भी शाखाएं खोलीं। प्रवास और भोजन आदि के व्यय का कुछ भार कानपुर के संघचालक जी वहन करते थे, शेष गोखले जी अपने घर से मंगाते थे।


1948-49 में संघ पर प्रतिबंध लगा हुआ था; पर तब तक ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ का गठन हो चुका था। गोखले जी ने 150 स्वयंसेवकों को परिषद की ओर से ‘साक्षरता प्रसार’ के लिए गांवों में भेजा। ये युवक बालकों को खेल खिलाते थे तथा बुजुर्गो में भजन मंडली चलाते थे। प्रतिबंध हटने पर ये खेलकूद और भजन मंडली ही शाखा में बदल गयीं। इस प्रकार उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता से प्रतिबंध काल में भी सैकड़ों शाखाओं की वृद्धि कर दी। 


गोखले जी 1942 से 51 तक कानुपर, 1954 तक लखनऊ, 1955 से 58 तक कटक (उड़ीसा) और फिर 1973 तक दिल्ली में रहे। आपातकाल के दौरान उनका केन्द्र नागपुर रहा। तब उन पर मध्यभारत, महाकौशल और विदर्भ का काम था। आपातकाल के बाद उन पर कुछ समय मध्य भारत प्रांत का काम रहा। इस समय उनका केन्द्र इंदौर था। 1978 में वे फिर उ.प्र. में आ गये और पूर्वी उ.प्र. में जयगोपाल जी के साथ सहप्रांत प्रचारक बनाये गये।


गोखले जी को पढ़ने और पढ़ाने का शौक था। जब प्रवास में कष्ट होने लगा, तो उन्हें लखनऊ में ‘लोकहित प्रकाशन’ का काम दिया गया। उन्होंने इस दौरान 150 नयी पुस्तकें प्रकाशित कीं। तथ्यों की प्रामाणिकता और प्रूफ आदि पर वे बहुत ध्यान देते थे। वर्ष 2002 में वृद्धावस्था के कारण उन्होंने सब दायित्वों से मुक्ति ले ली और लखनऊ के ‘भारती भवन’ कार्यालय पर ही रहने लगे। घंटे भर की शाखा के प्रति उनकी श्रद्धा अंत तक बनी रही। चाय, भोजन आदि के लिए समय से पहुंचना उनके स्वभाव में था। अपने कमरे की सफाई और कपड़े धोने से लेकर पौधों की देखभाल तक वे बड़ी रुचि से करते थे। 


1991 में पुश्तैनी सम्पत्ति के बंटवारे से उन्हें जो भूमि मिली, वह उन्होंने संघ को दे दी। कुछ साल बाद प्रशासन ने पुल बनाने के लिए 19 लाख रु. में उसका 40 प्रतिशत भाग ले लिया। उस धन से वहां संघ कार्यालय भी बन गया, जिसका नाम ‘शिवनेरी’ रखा गया है। इसके बाद वहां एक इंटर कॉलिज की स्थापना की गयी, जिसमें दो पालियों में 2,500 छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं।



नारियल की तरह ऊपर से कठोर, पर भीतर से मृदुल, सैकड़ों प्रचारक और हजारों कार्यकर्ताओं के निर्माता गोखले जी का 25 मई, 2014 को लखनऊ में ही निधन हुआ।  



आचार्य तुलसीदास

 23 सितम्बर/पुण्य-तिथि


बहुआयामी व्यक्तित्व  : आचार्य तुलसी


भारत की पुण्य धरा पर अनेक ऋषियों, सन्तों तथा मनीषियों ने जन्म लेकर अपना तथा समाज का जीवन सार्थक किया है। ऐसे ही एक मनीषी थे आचार्य श्री तुलसी, जिनका जन्म 20 सितम्बर,  1914 को हुआ था। वे महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित जैन पन्थ की तेरापन्थ शाखा में मात्र 11 वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए और 22 वर्ष में इस धर्मसंघ के नौवें अधिशास्ता बन गये।


आचार्य तुलसी यों तो एक पन्थ के प्रमुख थे; पर उनका व्यक्तित्व सीमातीत था। अपनी मर्यादाओं का पालन करते हुए भी उनके मन में सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेम था। इसलिए सभी धर्म, मत और पन्थ, सम्प्रदायों के लोग उनका सम्मान करते थे। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था, जिसे पढ़ने के लिए किसी तरह के अक्षरज्ञान की भी आवश्यकता नहीं थी। इतना ही नहीं, उसे जितनी बार पढ़ो, हर बार नये अर्थ उद्घाटित होते थे। श्रद्धालु घण्टों उनके पास बैठकर उनके प्रवचन का आनन्द लेते थे।


आचार्य तुलसी अपने प्रवचन में गूढ़ तथ्यों को इतनी सरलता से समझाते थे कि सामान्य व्यक्ति को भी वे आसानी से समझ में आ जाते थे। यद्यपि उनकी भाषा व भाष्य अत्यन्त शुद्ध होते थे; फिर भी उनके चुम्बकीय आकर्षण से बँधकर लोग बैठे रहते थे। प्रवचन के समय उनकी वाणी ही नहीं, आँखें भी बोलती थीं। आचार्य जी कभी अनावश्यक बात नहीं करते थे; पर उनकी आँखों के संकेत मात्र से ही तेरापन्थ धर्मसंघ का अनुशासन चलता था। यह उनकी प्रशासनिक कुशलता का परिचायक है।


प्रखर बुद्धि एवं वक्तृत्व कौशल के धनी आचार्य जी आचरण व व्यवहार को भी अध्यात्म जितनी ही प्राथमिकता देते थे। इसलिए उनके प्रवचन एवं वार्तालाप में दैनन्दिन जीवन की समस्याओं एवं उनके समाधान की चर्चा भी होती थी। अपने पन्थ में काम करते हुए भी उनके मन में अनेक नये विषयों पर मन्थन होता रहता था। इसी को व्यवहार रूप देने के लिए दो मार्च, 1949 को राजस्थान के सरदार शहर कस्बे में विशाल जनसमूह के सम्मुख उन्होंने ‘अणुव्रत’ नामक एक नये आन्दोलन की नींव रखी।


अणुव्रत लोगों में नैतिकता जगाने का आन्दोलन था। अणु का अर्थ है छोटा और व्रत अर्थात संकल्प। आचार्य जी का मत था कि हम यदि जीवन में छोटा सा व्रत लेकर उसका निष्ठा से पालन करें, तो न केवल अपना अपितु परिवार एवं आसपास वालों का जीवन भी बदल जाता है। यह विषय इतना आसान था कि इससे जुड़ने वालों की संख्या क्रमशः बढ़ने लगी। लाखों लोगों ने अणुव्रत आन्दोलन से प्रेरित होकर हिंसा, मद्यपान, माँसाहार, झूठ, छल, कपट, फरेब आदि अवगुणों को त्याग दिया।


आचार्य जी जन-जन के कल्याण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। अणुव्रत को और अधिक सहज बनाने के लिए उन्होंने इसके साथ प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान को प्रचलित किया। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर स्वयं की अच्छाई एवं कमियों को जानने का प्रयास करता है। इसी प्रकार जीवन विज्ञान के द्वारा वे जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों के पीछे छिपे विज्ञान को सबके सम्मुख लाये।


अणुव्रत के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने व्यापक भ्रमण किया। जैन मत को वे व्यापक हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग मानते थे। वे विश्व हिन्दू परिषद् के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। जन-जन में जागृति का प्रचार-प्रसार करते हुए 23 सितम्बर, 1999 को उन्होंने सदा के लिए आँखें मूँद लीं।

मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय

25 सितम्बर/जन्म-दिवस            

      

एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय


सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे।


दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में सर्वाधिक अंक पाये थे।


14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये। एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान मिला था।


अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे। इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।


1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।


1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।


उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में  किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।


Thursday, September 17, 2020

दैनिक जीवन में प्रचलित उर्दू के हिंदी शब्द


      #उर्दू                #हिंदी

01 ईमानदार       - निष्ठावान

02 इंतजार         - प्रतीक्षा

03 इत्तेफाक       - संयोग

04 सिर्फ            - केवल, मात्र

05 शहीद           - बलिदान

06 यकीन          - विश्वास, भरोसा

07 इस्तकबाल    - स्वागत

08 इस्तेमाल       - उपयोग, प्रयोग

09 किताब         - पुस्तक

10 मुल्क            - देश

11 कर्ज़             - ऋण

12 तारीफ़          - प्रशंसा

13 तारीख          - दिनांक, तिथि

14 इल्ज़ाम         - आरोप

15 गुनाह            - अपराध

16 शुक्रीया          - धन्यवाद, आभार

17 सलाम           - नमस्कार, प्रणाम

18 मशहूर           - प्रसिद्ध

19 अगर             - यदि

20 ऐतराज़          - आपत्ति

21 सियासत        - राजनीति

22 इंतकाम          - प्रतिशोध

23 इज्ज़त           - मान, प्रतिष्ठा

24 इलाका           - क्षेत्र

25 एहसान          - आभार, उपकार

26 अहसानफरामोश - कृतघ्न

27 मसला            - समस्या

28 इश्तेहार          - विज्ञापन

29 इम्तेहान          - परीक्षा

30 कुबूल             - स्वीकार

31 मजबूर            - विवश

32 मंजूरी             - स्वीकृति

33 इंतकाल          - मृत्यु, निधन 

34 बेइज्जती         - तिरस्कार

35 दस्तखत          - हस्ताक्षर

36 हैरानी              - आश्चर्य

37 कोशिश            - प्रयास, चेष्टा

38 किस्मत            - भाग्य

39 फै़सला             - निर्णय

40 हक                 - अधिकार

41 मुमकिन           - संभव

42 फर्ज़                - कर्तव्य

43 उम्र                  - आयु

44 साल                - वर्ष

45 शर्म                 - लज्जा

46 सवाल              - प्रश्न

47 जवाब              - उत्तर

48 जिम्मेदार          - उत्तरदायी

49 फतह               - विजय

50 धोखा               - छल

51 काबिल             - योग्य

52 करीब               - समीप, निकट

53 जिंदगी              - जीवन

54 हकीकत            - सत्य

55 झूठ                  - मिथ्या, असत्य

56 जल्दी                - शीघ्र

57 इनाम                - पुरस्कार

58 तोहफ़ा              - उपहार

59 इलाज               - उपचार

60 हुक्म                 - आदेश

61 शक                  - संदेह

62 ख्वाब                - स्वप्न

63 तब्दील              - परिवर्तित

64 कसूर                 - दोष

65 बेकसूर              - निर्दोष

66 कामयाब            - सफल

67 गुलाम                - दास

68 जन्नत                -स्वर्ग 

69 जहन्नुम             -नर्क

70 खौ़फ                -डर

71 जश्न                  -उत्सव

72 मुबारक             -बधाई/शुभेच्छा

73 लिहाजा़             -इसलीए

74 निकाह             -विवाह/लग्न

75 आशिक            -प्रेमी 

76 माशुका             -प्रेमिका 

77 हकीम              -वैध

78 नवाब               -राजसाहब

79 रुह                  -आत्मा 

80 खु़दकुशी          -आत्महत्या 

81 इज़हार             -प्रस्ताव

82 बादशाह           -राजा/महाराजा

83 ख़्वाहिश          -महत्वाकांक्षा

84 जिस्म             -शरीर/अंग

85 हैवान             -दैत्य/असुर

86 रहम              -दया

87 बेरहम            -बेदर्द/दर्दनाक

88 खा़रिज           -रद्द

89 इस्तीफ़ा          -त्यागपत्र 

90 रोशनी            -प्रकाश 

91मसीहा             -देवदुत

92 पाक              -पवित्र

93 क़त्ल              -हत्या 

94 कातिल           -हत्यारा

95 मुहैया             - उपलब्ध

96 फ़ीसदी           - प्रतिशत

97 कायल           - प्रशंसक

98 मुरीद             - भक्त

99 कींमत           - मूल्य (मुद्रा में)

100 वक्त            - समय

101 सुकून        - शाँति

102 आराम       - विश्राम

103 मशरूफ़    - व्यस्त

104 हसीन       - सुंदर

105 कुदरत      - प्रकृति

106 करिश्मा    - चमत्कार

107 इजाद       - आविष्कार

108 ज़रूरत     - आवश्यक्ता

109 ज़रूर       - अवश्य

110 बेहद        - असीम

111 तहत       - अनुसार


इनके अतिरिक्त हम प्रतिदिन अनायास ही अनेक उर्दू शब्द प्रयोग में लेते हैं, कारण है ये बाॅलिवुड और मीडिया जो एक इस्लामी षड़यंत्र के अनुसार हमारी मातृभाषा पर ग्रहण लगाते आ रहे हैं।


हिन्दी हमारी राजभाषा एवं मातृभाषा हैं इसका सम्मान करें, भाषा बचाईये, संस्कृति बचाईये।

Tuesday, September 15, 2020

महात्मा गांधी और हिन्दी

 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और हिन्दी 


जब हम गांधी को शांति अहिंसा और मानवीय प्रेम के अग्रदूत के रूप में स्मरण करते हैं तो उनका एक उज्ज्वल एवं अलग विश्व महमनवीय रूप सामने झलकने लगता है। 

गांधी जी ने अपने दक्षिण अफ्रीका के प्रवास काल में ही भारत के संदर्भ में तथा विदेशों में रह रहे भारतियों के संदर्भ में हिन्दी को भारत की संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो सकने वाली भाषा के रूप में पहचान लिया था। 

सन 1916 में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में हुआ। उसमें पहली बार महात्मा गांधी भी सम्मिलित हुये थे। अब तक काँग्रेस-अधिवेशन की समस्त कार्यवाई और भाषण अँग्रेजी में हुआ करते थे। 

गांधी जी ने पत्रकारों तथा अन्य सदस्यों के बहुत विरोध करने पर भी अपना भाषण हिन्दी में किया। दक्षिण भारत में इस हिन्दी का प्रसार एक आंदोलन के रूप में स्वतन्त्रता संग्राम के साथ महात्मा गांधी की प्रेरणा से 20 वीं सदी में प्रारम्भ हुआ।

“हिन्दी-भाषी लोगों को दक्षिण की भाषा सीखने की जितनी जरूरत है उसकी अपेक्षा दक्षिण वालों को हिन्दी सीखने की आवश्यकता ही अधिक है। सारे हिंदुस्तान में हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या दक्षिण की भाषा बोलने वालों से दुगुनी है। एक प्रांत का दूसरे प्रांत से संबंध जोड़ने की भाषा तो हिन्दी या हिंदुस्तानी ही हो सकती है।” 

 गांधी जी से प्रभावित होकर हिन्दी-साहित्य सम्मेलन-प्रयाग ने सन 1918 में इंदौर में होने वाले हिन्दी सम्मेलन के अधिवेशन का सभापति गांधी को निर्वाचित किया। गांधी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में दक्षिण भारत के तमिल,तेलगु,मलयालम,कन्नड भाषी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार की अवश्यकता बताई और उसके लिए पैसा एकट्ठा करने की अपील की। 

गांधी जी के मांग पर इंदौर नरेश- महाराज यशवंत राव होल्कर और नगर- सेठ हुकुमचंद जी ने 10-10 हजार रुपए हिन्दी-प्रचार-कार्य की सहायता में दिये। इस अधिवेशन में यह भी प्रस्ताव स्वीकृत हुआ कि 6 युवक हिन्दी सीखने के लिए प्रयाग भेजे जाएँ और उतर भारत के 6 युवक दक्षिण कि भाषाओं को सीखने तथा हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत भेजे जायें।

सन1918 में मद्रास ‘भारत सेवा संघ’(इंडियन सर्विस लीग) के हिन्दी-प्रेमी युवकों ने गांधी जी को लिखा हम हिन्दी सीखना चाहते हैं, हमारे लिए एक हिन्दी प्रचारक भेजा जाए। गांधी ने अपने पुत्र श्री देवदास गांधी तथा स्वामी स्त्यदेव को,जो उस समय 18 वर्ष के ही थे, शीघ्र ही हिन्दी प्रचार के लिए मद्रास भेजा। वहा वे लोग सबसे पहले उन बुद्धजीवियों से संपर्क किया जिनके मन में विशाल एवं उदार राष्ट्रीय भाव थे। उनमें से प्रमुख थे मोटूरी सत्यनारायण, श्री हरिकेश शर्मा, पंडित हरिदत्त शर्मा, के.एम. मुंशी,शिवराम शर्मा,पंडित सिद्धार्थ नाथ पंत,तथा श्री एस.आर. शास्त्री आदि। वहाँ सर्वसम्मति से गोखले हाल में डॉ. एनी वेसेंट की अध्यक्षयता में एक बैठक हुई और एक हिन्दी संस्था की स्थापना करने का निर्णय लिया गया। 

एक संस्था की स्थापना की गई जिसका नाम ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन-प्रचार-कार्यालय’ रखा गया तथा 1927 तक इसी नाम का प्रयोग किया जाता रहा किन्तु बाद में के सलाह से इस प्रचार-कार्यालय का नाम परिवर्तित करके दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा,मद्रास कर दिया गया। अतः 1927 से सम्मेलन का उक्त कार्यालय स्वतंत्र रूप से एक नई संस्था बन गई। 

लगभग 10 वर्ष के अनंतर पुनः सम्मेलन ने मद्रास की भांति हिन्दी-प्रचार के लिए एक दूसरा केंद्र वर्धा में प्रवर्तित किया। सन1936 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 25वां अधिवेशन नागपुर में देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद जी की अध्यक्षता में हुआ। उसी अधिवेशन में गांधी की सलाह से हिन्दी-प्रचार-समिति वर्धा का संगठन किया गया,जिसका उद्देश्य उन चार अहिंदी भाषी प्रदेशों को छोडकर,जिनमें हिन्दी का प्रचार दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (मद्रास) कर रही थी, शेष अहिंदी भाषी प्रदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना सुनिश्चित किया गया।

 1938 में इसका नाम ‘राष्ट्रभाषा-प्रचार-समिति वर्धा केआर दिया गया। उसकी शाखाएँ भारत के पूर्वी-पश्चिमी सभी अहिंदी भाषी प्रदेशों में हैं और यह संस्था अब भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का अंग है। इस राष्ट्रभाषा प्रचार-समिति वर्धा के सहयोग करने वाली 16 ऐसी अंगभूत संस्थाएं हैं, जो प्रदेश-स्तर की राष्ट्रभाषा-प्रचार समितियां हैं।   

इन बड़ी संस्थाओं की प्रेरणा से समस्त दक्षिण भारत में हिन्दी-प्रचार ने तीव्र आंदोलन का रूप ले लिया। राष्ट्र के सभी कर्णधार,जो देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे,उनके सामने यह समस्या थी कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद समूचे देश की राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय कार्य-व्यवहार की भाषा कौन होगी? इसका उतर था-हिन्दी। अतः हिन्दी के प्रति समूचे देश में, विशेषतः दक्षिण भारत में जो आकर्षण पैदा हुआ, वह राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत था। हिन्दी सीखना या सिखाना एक राष्ट्रीय कर्तव्य पालन था। फ़्ल्स्वरूप उक्त बड़ी संस्थाओं के कार्य-क्षेत्र अत्यंत विस्तृत होते रहे और हिन्दी प्रचार को और भी सुव्यवस्थित करने के लिए प्रदेशीय स्तर पर अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं का भी जन्म हुआ।

उनमें मुख्य नाम ये हैं-1. हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद (स्थापना 1935 ई.), 2. मैसूर हिन्दी प्रचार-परिषद, बंगलौर (1943), 3.महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे (1945), 4.हिंदुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा(1942), 5.केरल हिन्दी प्रचार सभा, तिरुअनंतपुरम, 6.साहित्यनुशीलन समिति, मद्रास, 7.कर्नाटक हिन्दी-प्रचार सभा, धारवाड़। 

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास को अपने हिन्दी-प्रचार कार्य में राष्ट्र के प्रमुख नेताओं का सहयोग मिलता रहा है। महात्मा गांधी इसके आजीवन सभापति रहे। मद्रास के प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ के संपादक श्री ए. रंगास्वामी अय्यंगार उपसभापति। इसका प्रचार-कार्य योजनाबद्ध हुआ। इसका कार्य-क्षेत्र मद्रास, आंध्र, मैसूर और केरल अर्थात तमिल, तेलगु, कन्नड और मलयालम भाषा-भाषी प्रदेश रहे हैं। 

दक्षिण भारत में हिन्दी का जो प्रचार-कार्य विगत दो-तीन दशाब्दियों में हुआ और अब भी हो रहा है, उसकी मुख्य प्रवृतियां ये हैं-1.हिन्दी प्रचारकों का संगठन, 2.हिन्दी-शिक्षण विद्यालयों की स्थापना, 3.परीक्षाओं का संचालन, 4.हिन्दी के प्रकाशन-कार्य, पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें, 5.हिन्दी प्रशिक्षण के सत्र, 6.वाक-स्पर्धा, लेखन-स्पर्धा, 7.नाटक-अभिनय, 8.पुरस्कार का आयोजन, 9.पदवीदान समारोह। 

      प्रचारकों का बहुत बड़ा संगठन दक्षिण भारत हिन्दी-प्रचार सभा मद्रास तथा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा का है। उनके अनुरूप ही इनकी परीक्षाओं में सम्मिलित परीक्षार्थीयों की संख्या भी अत्यधिक है। इन संस्थाओं ने हिन्दी की प्रारम्भिक परीक्षा से लेकर उच्चतम परीक्षाओं का आयोजन किया है। मद्रास की दक्षिण भारत प्रचार सभा 7 परीक्षाएँ और वर्धा की समिति 13 प्रकार की परीक्षाएँ संचालित करती है। 

इन परीक्षाओं में सवा लाख से अधिक तथा समिति की परीक्षाओं में सवा दो लाख से अधिक परीक्षार्थी सम्मिलित होते हैं। समिति के प्रचारकों की संख्या लगभग सात हजार है। हिन्दी-प्रचार-सभा हैदराबाद की परीक्षाओं में भी चालीस हजार के लगभग परीक्षार्थी सम्मिलित होते हैं। 

     संस्थाओं के अपने हिन्दी विद्यालय भी हैं, जिनके द्वारा वे हिन्दी वे शिक्षण कार्य को गति देते हैं। वर्धा की समिति के सहयोग से उसकी अंगभूत प्रादेशिक समितियां भी विद्यालयों का संचालन करती है। सन 1932 के अकड़ों के अनुसार समिति के तत्वावधान में 534 राष्ट्रभाषा विद्यालय और 36 महाविद्यालय संचालित होते रहे हैं। पाठ्यक्रम की दृष्टि से पुस्तकों का प्रकाशन भी संस्थाओं ने किया। उनकी मासिक पत्रिकाएँ भी निकलती हैं। 

पत्रिकाओं के मुख्य नाम हैं- राष्ट्रभारती (वर्धा), हिन्दी-प्रचार-समाचार(मद्रास), राष्ट्रवाणी(पूना), राष्ट्र-वीणा(गुजरात), केरल-ज्योति(तिरुअनंतपुरम)। हिन्दी प्रचार-सभा हैदराबाद के ‘अजन्ता’ मासिक का प्रकाशन अब बंद हो चुका है। 

वर्ष 1918 में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना तब मद्रास के नाम से प्रसिद्ध चेन्नई में की गयी। आज यह 11 परास्नातक केंद्र, 33 शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान, पांच सीबीएसई स्कूल और कई प्रांतीय सभाएं संचालित करती है। गांधी ने कहा था कि सभा अधिक से अधिक लोगों को हिंदी पढ़ने, लिखने और बोलने में सक्षम बनायेगी। 

हिंदी में प्रकाशित प्रचार सभा अभिलेखागार के अनुसार गांधी ने 1946 में छात्रों के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया था। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे संदेह है कि मैं जो कह रहा हूं, वह आपलोग समझ पा रहे हैं। लेकिन मेरे प्रति आपके मन में गहरा प्रेम है और इसलिए आप मुझे बड़े धैर्य से सुन रहे हैं।’’

उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन फिर भी अधिक से अधिक लोगों को हिंदुस्तानी सीखनी चाहिए। यह कोई कठिन भाषा नहीं है दक्षिण भारतीय लोग बुद्धिमान और प्रतिभावान हैं’’

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रचार सभा ने बड़ी निष्ठा से गांधी की सलाह का अनुसरण पर मुश्किलों का भी सामना किया। हजारों प्रचारक आज तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में काम करते हैं। 

अंततः यह कहा जा सकता है कि गांधी जी दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार हेतु जो कार्य किए वह भारत को एक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया। गांधी जी कभी भी क्षेत्रीय भाषाओं को छोडने या न सीखने या न जानने के विषय में नहीं कहते है, वह क्षेत्रीय भाषाओं को भी उतना ही महत्व देते थे जितना की राष्ट्रीय भाषा को । उनके प्रयास से ही आज भारत में हिन्दी की महत्ता को ज्यादा बढ़ावा मिला है।

क्योंकि गांधी जी प्रयोग कर्ता थे इसलिए हिन्दी प्रचार हेतु वह सबसे पहले प्रयोग अपने पुत्र को दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार हेतु भेजने से करते हैं। आज दक्षिण भारत में जो महिला हिन्दी से स्नातक की हुई होती है उसके विषय में जो शादी करने वाले आते है वो बहुत गर्व महसूस करते है कि उनकी बहू हिन्दी से स्नातक या परास्नातक है। गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा या राजभाषा में चुनकर राष्ट्र को एक करने में बहुत योगदान दिये है। गांधी के हिन्दी के प्रति योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। 


Sunday, September 13, 2020

योग भगाए रोग :वीरभद्रासन

  योग भगाए रोग :वीरभद्रासन है


शरीर को मजबूती देने वाले इस आसन के जानिये लाभ और योग विधि


नाम के रूप में दर्शाया गया है, यह योग मुद्रा आपके शरीर की मूल शक्ति बनाता है और आपकी मांसपेशियों के धीरज को बढ़ाता है। इस मुद्रा का नाम वीरभद्र, एक भयंकर योद्धा, हिंदू भगवान शिव का अवतार के नाम पर रखा गया है।योद्धा वीरभद्र की कहानी, उपनिषद की अन्य कहानियों की तरह, जीवन में प्रेरणा प्रदान करती है। यह आसन हाथों, कंधो ,जांघो एवं कमर की मांसपेशियों को मजबूती प्रदान करता है।


*वीरभद्रासन के लाभ* 


- छाती और फेफड़ों, कंधे और गर्दन, पेट, ग्राय्न में खिचाव लाता है।


- कंधों, बाज़ुओं, और पीठ की मांसपेशियों को मज़बूत करता है।


- जांघों, पिंडलियों, और टखनों को मज़बूत करता है और उनमें खिचाव लाता है।


- वीरभद्रासन साएटिका से राहत दिलाता है।


*वीरभद्रासन करने की विधि*


ताड़ासन में खड़े हो जायें। 

श्वास अंदर लें और 3 से 4 फीट पैर खोल लें। 

अपने बायें पैर को 45 से 60 दर्जे अंदर को मोड़ें, और दाहिने पैर को 90 दर्जे बाहर को मोड़ें। 

बाईं एड़ी के साथ दाहिनी एड़ी संरेखित करें। 

साँस छोड़ते हुए अपने धड़ को दाहिनी ओर 90 दर्जे तक घुमाने की कोशिश करें। 

आप शायद पूरी तरह धड़ ना घुमा पायें। अगर ऐसा हो तो जितना बन सके, उतना करें। 

धीरे से अपने हाथ उठाएँ जब तक हाथ सीधा आपके धड़ की सीध में ना आ जायें। 

हथेलियों को जोड़ लें और छत की ओर उंगलियों को पॉइंट करें।

ध्यान रखें की आपकी पीठ सीधी रहे। अगर पीठ मुडी होगी तो पीठ के निचले हिस्से में समय के साथ दर्द बैठ सकता है। 

अपने बाईं एड़ी को मज़बूती से ज़मीन पर टिकाए रखें और दाहिने घुटने को मोड़ें जब तक की घुटना सीधा टखने की ऊपर ना आ जाए। 

अगर आप में इतना लचीलापन हो तो अपनी जाँघ को ज़मीन से समांतर कर लें। 

अपने सिर को उठायें और दृष्टि को उंगलियों पर रखें। 

कुल मिला कर पाँच बार साँस अंदर लें और बाहर छोड़ें ताकि आप आसन में 30 से 60 सेकेंड तक रह सकें। 

धीरे धीरे जैसे आपके शरीर में ताक़त और लचीलापन बढ़ने लगे, आप समय बढ़ा सकते हैं 

90 सेकेंड से ज़्यादा ना करें। 

जब 5 बार साँस लेने के बाद आप आसान से बाहर आ सकते हैं।

आसन से बाहर निकलने के लिए सिर नीचे कर लें, फिर दाहिनी जाँघ को उठायें, हाथ नीचे कर लें, धड़ को वापिस सीधा कर लें और पैरों को वापिस अंदर ले आयें

आसन को ख़तम ताड़ासन में करें। 

दाहिनी ओर करने के बाद यह सारे स्टेप बाईं ओर भी करें।


*वीरभद्रासन में सावधानियां*


उच्च रक्तचाप या दिल की समस्याओं से पीड़ित व्यक्ति ये आसन ना करें 


गर्दन की चोट या वर्तमान में गर्दन का दर्द हो तो आसन से बचे 


ये आसन ना करें जब रीढ़ की हड्डी में किसी भी प्रकार की तकलीफ हो।


गर्भवती महिलाओं को इस आसन से फायदा होगा, खासकर यदि वे अपने दूसरे और तीसरे तिमाही में हैं, लेकिन केवल तभी वे नियमित रूप से योग का अभ्यास कर रहे हैं।