राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और हिन्दी
जब हम गांधी को शांति अहिंसा और मानवीय प्रेम के अग्रदूत के रूप में स्मरण करते हैं तो उनका एक उज्ज्वल एवं अलग विश्व महमनवीय रूप सामने झलकने लगता है।
गांधी जी ने अपने दक्षिण अफ्रीका के प्रवास काल में ही भारत के संदर्भ में तथा विदेशों में रह रहे भारतियों के संदर्भ में हिन्दी को भारत की संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो सकने वाली भाषा के रूप में पहचान लिया था।
सन 1916 में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में हुआ। उसमें पहली बार महात्मा गांधी भी सम्मिलित हुये थे। अब तक काँग्रेस-अधिवेशन की समस्त कार्यवाई और भाषण अँग्रेजी में हुआ करते थे।
गांधी जी ने पत्रकारों तथा अन्य सदस्यों के बहुत विरोध करने पर भी अपना भाषण हिन्दी में किया। दक्षिण भारत में इस हिन्दी का प्रसार एक आंदोलन के रूप में स्वतन्त्रता संग्राम के साथ महात्मा गांधी की प्रेरणा से 20 वीं सदी में प्रारम्भ हुआ।
“हिन्दी-भाषी लोगों को दक्षिण की भाषा सीखने की जितनी जरूरत है उसकी अपेक्षा दक्षिण वालों को हिन्दी सीखने की आवश्यकता ही अधिक है। सारे हिंदुस्तान में हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या दक्षिण की भाषा बोलने वालों से दुगुनी है। एक प्रांत का दूसरे प्रांत से संबंध जोड़ने की भाषा तो हिन्दी या हिंदुस्तानी ही हो सकती है।”
गांधी जी से प्रभावित होकर हिन्दी-साहित्य सम्मेलन-प्रयाग ने सन 1918 में इंदौर में होने वाले हिन्दी सम्मेलन के अधिवेशन का सभापति गांधी को निर्वाचित किया। गांधी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में दक्षिण भारत के तमिल,तेलगु,मलयालम,कन्नड भाषी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार की अवश्यकता बताई और उसके लिए पैसा एकट्ठा करने की अपील की।
गांधी जी के मांग पर इंदौर नरेश- महाराज यशवंत राव होल्कर और नगर- सेठ हुकुमचंद जी ने 10-10 हजार रुपए हिन्दी-प्रचार-कार्य की सहायता में दिये। इस अधिवेशन में यह भी प्रस्ताव स्वीकृत हुआ कि 6 युवक हिन्दी सीखने के लिए प्रयाग भेजे जाएँ और उतर भारत के 6 युवक दक्षिण कि भाषाओं को सीखने तथा हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत भेजे जायें।
सन1918 में मद्रास ‘भारत सेवा संघ’(इंडियन सर्विस लीग) के हिन्दी-प्रेमी युवकों ने गांधी जी को लिखा हम हिन्दी सीखना चाहते हैं, हमारे लिए एक हिन्दी प्रचारक भेजा जाए। गांधी ने अपने पुत्र श्री देवदास गांधी तथा स्वामी स्त्यदेव को,जो उस समय 18 वर्ष के ही थे, शीघ्र ही हिन्दी प्रचार के लिए मद्रास भेजा। वहा वे लोग सबसे पहले उन बुद्धजीवियों से संपर्क किया जिनके मन में विशाल एवं उदार राष्ट्रीय भाव थे। उनमें से प्रमुख थे मोटूरी सत्यनारायण, श्री हरिकेश शर्मा, पंडित हरिदत्त शर्मा, के.एम. मुंशी,शिवराम शर्मा,पंडित सिद्धार्थ नाथ पंत,तथा श्री एस.आर. शास्त्री आदि। वहाँ सर्वसम्मति से गोखले हाल में डॉ. एनी वेसेंट की अध्यक्षयता में एक बैठक हुई और एक हिन्दी संस्था की स्थापना करने का निर्णय लिया गया।
एक संस्था की स्थापना की गई जिसका नाम ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन-प्रचार-कार्यालय’ रखा गया तथा 1927 तक इसी नाम का प्रयोग किया जाता रहा किन्तु बाद में के सलाह से इस प्रचार-कार्यालय का नाम परिवर्तित करके दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा,मद्रास कर दिया गया। अतः 1927 से सम्मेलन का उक्त कार्यालय स्वतंत्र रूप से एक नई संस्था बन गई।
लगभग 10 वर्ष के अनंतर पुनः सम्मेलन ने मद्रास की भांति हिन्दी-प्रचार के लिए एक दूसरा केंद्र वर्धा में प्रवर्तित किया। सन1936 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 25वां अधिवेशन नागपुर में देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद जी की अध्यक्षता में हुआ। उसी अधिवेशन में गांधी की सलाह से हिन्दी-प्रचार-समिति वर्धा का संगठन किया गया,जिसका उद्देश्य उन चार अहिंदी भाषी प्रदेशों को छोडकर,जिनमें हिन्दी का प्रचार दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (मद्रास) कर रही थी, शेष अहिंदी भाषी प्रदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना सुनिश्चित किया गया।
1938 में इसका नाम ‘राष्ट्रभाषा-प्रचार-समिति वर्धा केआर दिया गया। उसकी शाखाएँ भारत के पूर्वी-पश्चिमी सभी अहिंदी भाषी प्रदेशों में हैं और यह संस्था अब भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का अंग है। इस राष्ट्रभाषा प्रचार-समिति वर्धा के सहयोग करने वाली 16 ऐसी अंगभूत संस्थाएं हैं, जो प्रदेश-स्तर की राष्ट्रभाषा-प्रचार समितियां हैं।
इन बड़ी संस्थाओं की प्रेरणा से समस्त दक्षिण भारत में हिन्दी-प्रचार ने तीव्र आंदोलन का रूप ले लिया। राष्ट्र के सभी कर्णधार,जो देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे,उनके सामने यह समस्या थी कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद समूचे देश की राष्ट्रभाषा, राष्ट्रीय कार्य-व्यवहार की भाषा कौन होगी? इसका उतर था-हिन्दी। अतः हिन्दी के प्रति समूचे देश में, विशेषतः दक्षिण भारत में जो आकर्षण पैदा हुआ, वह राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत था। हिन्दी सीखना या सिखाना एक राष्ट्रीय कर्तव्य पालन था। फ़्ल्स्वरूप उक्त बड़ी संस्थाओं के कार्य-क्षेत्र अत्यंत विस्तृत होते रहे और हिन्दी प्रचार को और भी सुव्यवस्थित करने के लिए प्रदेशीय स्तर पर अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं का भी जन्म हुआ।
उनमें मुख्य नाम ये हैं-1. हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद (स्थापना 1935 ई.), 2. मैसूर हिन्दी प्रचार-परिषद, बंगलौर (1943), 3.महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे (1945), 4.हिंदुस्तानी प्रचार सभा, वर्धा(1942), 5.केरल हिन्दी प्रचार सभा, तिरुअनंतपुरम, 6.साहित्यनुशीलन समिति, मद्रास, 7.कर्नाटक हिन्दी-प्रचार सभा, धारवाड़।
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास को अपने हिन्दी-प्रचार कार्य में राष्ट्र के प्रमुख नेताओं का सहयोग मिलता रहा है। महात्मा गांधी इसके आजीवन सभापति रहे। मद्रास के प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ के संपादक श्री ए. रंगास्वामी अय्यंगार उपसभापति। इसका प्रचार-कार्य योजनाबद्ध हुआ। इसका कार्य-क्षेत्र मद्रास, आंध्र, मैसूर और केरल अर्थात तमिल, तेलगु, कन्नड और मलयालम भाषा-भाषी प्रदेश रहे हैं।
दक्षिण भारत में हिन्दी का जो प्रचार-कार्य विगत दो-तीन दशाब्दियों में हुआ और अब भी हो रहा है, उसकी मुख्य प्रवृतियां ये हैं-1.हिन्दी प्रचारकों का संगठन, 2.हिन्दी-शिक्षण विद्यालयों की स्थापना, 3.परीक्षाओं का संचालन, 4.हिन्दी के प्रकाशन-कार्य, पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें, 5.हिन्दी प्रशिक्षण के सत्र, 6.वाक-स्पर्धा, लेखन-स्पर्धा, 7.नाटक-अभिनय, 8.पुरस्कार का आयोजन, 9.पदवीदान समारोह।
प्रचारकों का बहुत बड़ा संगठन दक्षिण भारत हिन्दी-प्रचार सभा मद्रास तथा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा का है। उनके अनुरूप ही इनकी परीक्षाओं में सम्मिलित परीक्षार्थीयों की संख्या भी अत्यधिक है। इन संस्थाओं ने हिन्दी की प्रारम्भिक परीक्षा से लेकर उच्चतम परीक्षाओं का आयोजन किया है। मद्रास की दक्षिण भारत प्रचार सभा 7 परीक्षाएँ और वर्धा की समिति 13 प्रकार की परीक्षाएँ संचालित करती है।
इन परीक्षाओं में सवा लाख से अधिक तथा समिति की परीक्षाओं में सवा दो लाख से अधिक परीक्षार्थी सम्मिलित होते हैं। समिति के प्रचारकों की संख्या लगभग सात हजार है। हिन्दी-प्रचार-सभा हैदराबाद की परीक्षाओं में भी चालीस हजार के लगभग परीक्षार्थी सम्मिलित होते हैं।
संस्थाओं के अपने हिन्दी विद्यालय भी हैं, जिनके द्वारा वे हिन्दी वे शिक्षण कार्य को गति देते हैं। वर्धा की समिति के सहयोग से उसकी अंगभूत प्रादेशिक समितियां भी विद्यालयों का संचालन करती है। सन 1932 के अकड़ों के अनुसार समिति के तत्वावधान में 534 राष्ट्रभाषा विद्यालय और 36 महाविद्यालय संचालित होते रहे हैं। पाठ्यक्रम की दृष्टि से पुस्तकों का प्रकाशन भी संस्थाओं ने किया। उनकी मासिक पत्रिकाएँ भी निकलती हैं।
पत्रिकाओं के मुख्य नाम हैं- राष्ट्रभारती (वर्धा), हिन्दी-प्रचार-समाचार(मद्रास), राष्ट्रवाणी(पूना), राष्ट्र-वीणा(गुजरात), केरल-ज्योति(तिरुअनंतपुरम)। हिन्दी प्रचार-सभा हैदराबाद के ‘अजन्ता’ मासिक का प्रकाशन अब बंद हो चुका है।
वर्ष 1918 में ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ की स्थापना तब मद्रास के नाम से प्रसिद्ध चेन्नई में की गयी। आज यह 11 परास्नातक केंद्र, 33 शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान, पांच सीबीएसई स्कूल और कई प्रांतीय सभाएं संचालित करती है। गांधी ने कहा था कि सभा अधिक से अधिक लोगों को हिंदी पढ़ने, लिखने और बोलने में सक्षम बनायेगी।
हिंदी में प्रकाशित प्रचार सभा अभिलेखागार के अनुसार गांधी ने 1946 में छात्रों के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया था। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे संदेह है कि मैं जो कह रहा हूं, वह आपलोग समझ पा रहे हैं। लेकिन मेरे प्रति आपके मन में गहरा प्रेम है और इसलिए आप मुझे बड़े धैर्य से सुन रहे हैं।’’
उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन फिर भी अधिक से अधिक लोगों को हिंदुस्तानी सीखनी चाहिए। यह कोई कठिन भाषा नहीं है दक्षिण भारतीय लोग बुद्धिमान और प्रतिभावान हैं’’
इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रचार सभा ने बड़ी निष्ठा से गांधी की सलाह का अनुसरण पर मुश्किलों का भी सामना किया। हजारों प्रचारक आज तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में काम करते हैं।
अंततः यह कहा जा सकता है कि गांधी जी दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार हेतु जो कार्य किए वह भारत को एक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया। गांधी जी कभी भी क्षेत्रीय भाषाओं को छोडने या न सीखने या न जानने के विषय में नहीं कहते है, वह क्षेत्रीय भाषाओं को भी उतना ही महत्व देते थे जितना की राष्ट्रीय भाषा को । उनके प्रयास से ही आज भारत में हिन्दी की महत्ता को ज्यादा बढ़ावा मिला है।
क्योंकि गांधी जी प्रयोग कर्ता थे इसलिए हिन्दी प्रचार हेतु वह सबसे पहले प्रयोग अपने पुत्र को दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार हेतु भेजने से करते हैं। आज दक्षिण भारत में जो महिला हिन्दी से स्नातक की हुई होती है उसके विषय में जो शादी करने वाले आते है वो बहुत गर्व महसूस करते है कि उनकी बहू हिन्दी से स्नातक या परास्नातक है। गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा या राजभाषा में चुनकर राष्ट्र को एक करने में बहुत योगदान दिये है। गांधी के हिन्दी के प्रति योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।