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Monday, November 9, 2020

पेट के रोग और उनके समाधान

 पेट के रोग


अरूचि

*पहला प्रयोगः सोंठ और गुड़ को चाटने से अथवा लहसुन की कलियों को घी में तलकर रोटी के साथ खाने से अरूचि मिटती है।


*दूसरा प्रयोगः नींबू की दो फाँक करके उसके ऊपर सोंठ, काली मिर्च एवं जीरे का पाउडर तथा सेंधा नमक डालकर थोड़ा-सा गर्म करके चूसने से अरूचि मिटती है।


*तीसरा प्रयोगः अनार के रस में सेंधा नमक व शहद मिलाकर लेने से लाभ होता है।


 

 *💫आफरा व पेटदर्द

 *पहला प्रयोगः पेट पर हींग लगाने तथा हींग की चने जितनी गोली को घी के साथ निगलने से आफरा मिटता है।


*दूसरा प्रयोगः छाछ में जीरा एवं सेंधा नमक या काला नमक डालकर पीने से पेट नहीं फूलता।


*तीसरा प्रयोगः 1 से 2 ग्राम काले नमक के साथ उतनी ही सोनामुखी खाने से वायु का गोला मिटता है।


*चौथा प्रयोगः भोजन के पश्चात् पेट भारी होने पर 4-5 इलायची के दाने चबाकर ऊपर से नींबू का पानी पीने से पेट हल्का होता है।


*पाँचवाँ प्रयोगः गर्म पानी के साथ सुबह-शाम 3 ग्राम त्रिफला चूर्ण लेने से पत्थर जैसा पेट मखमल जैसा नर्म हो जाता है।


*छठा प्रयोगः अदरक एवं नींबू का रस 5-5 ग्राम एवं 3 काली मिर्च का पाउडर दिन में दो-तीन बार लेने से उदरशूल मिटता है।


*सातवाँ प्रयोगः काली मिर्च के 10 दानों को गुड़ के साथ पकाकर खाने से लाभ होता है।


*आठवाँ प्रयोगः प्रातःकाल एक गिलास पानी में 20-25 ग्राम पुदीने का रस व 20-25 ग्राम शहद मिलाकर पीने से गैस की बीमारी में विशेष लाभ होता है।


नौवाँ प्रयोगः

 पेट में दर्द रहता हो व आँतें ऊपर की ओर आ गई है ऐसा आभास होता हो तो पेट पर अरण्डी का तेल लगाकर आक के पत्ते को थोड़ा गर्म करके बाँध दें। एक घंटे तक बँधा रहने दें। रात को एक चम्मच अरण्डी का तेल व एक चम्मच शिवा का चूर्ण लें। गोमूत्र का सेवन हितकर है। पचने में भारी हो ऐसी वस्तुएँ न खायें।


दसवाँ प्रयोगः

 वायु के प्रकोप के कारण पेट के फूलने एवं अपानवायु के न निकलने के कारण पेट का तनाव बढ़ जाता है। जिससे बहुत पीड़ा होती है एवं चलना भी मुश्किल हो जाता है। अजवायन एवं काला नमक को समान मात्रा में मिलाकर इस मिश्रण को गर्म पानी के साथ एक चम्मच लेने से उपरोक्त पीड़ा में लाभ होता है।



Friday, October 30, 2020

जुगल किशोर जैथलिया

 कर्मपथ के पथिक जुगल किशोर जैथलिया


राजस्थान में जन्म लेकर कोलकाता को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले श्री जुगल किशोर जैथलिया का जन्म दो अक्तूबर, 1937 को छोटीखाटू (जिला नागौर) में हुआ था। उनके पिता श्री कन्हैया लाल एवं माता श्रीमती पुष्पादेवी थीं। अकेले पुत्र होने के कारण 15 वर्ष में ही उनका विवाह कर दिया गया। 


1953 में वे कोलकाता आ गये, जहां उनके पिताजी एक राजस्थानी फर्म में काम करते थे। जुगलजी ने यहां काम के साथ पढ़ाई जारी रखी और कानून और एम.काॅम की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान वे एक वकील के पास बैठने लगे और फिर अलग से आयकर सलाहकार के रूप में काम शुरू कर दिया।


जुगलजी का रुझान साहित्यिक गतिविधियों की ओर विशेष था। कोलकाता आकर भी वे अपनी जन्मभूमि से जुड़े रहे। उन्होंने अपने मित्रों के साथ 1958 में ‘श्री छोटीखाटू हिन्दी पुस्तकालय’ की स्थापना की। यहां पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन के साथ विचार गोष्ठियां भी होती थीं, जिसमें वे सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक जगत की बड़ी हस्तियों को बुलाते थे। 


पुस्तकालय के भवन का उद्घाटन उन्होंने प्रख्यात साहित्यकार वैद्य गुरुदत्त से कराया। इससे उस गांव की पहचान पूरे प्रदेश में हो गयी। इसके बाद ‘पंडित दीनदयाल साहित्य सम्मान’ तथा ‘महाकवि कन्हैयालाल सेठिया मायड़ भाषा सम्मान’ प्रारम्भ किये। कई स्मारिकाएं भी प्रकाशित की गयीं। गांव में टेलीफोन, पेयजल, अस्पताल जैसे लोक कल्याण के कामों में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।


कोलकाता में राजस्थान परिषद, सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय, बड़ाबाजार लाइब्रेरी आदि के उन्नयन में उनकी भूमिका सदा याद की जाएगी। 1973 में उन्होंने ‘श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय’ का काम संभाला और उसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलाई। इसमें श्री विष्णुकांत शास्त्री का भी विशेष योगदान रहा। 


उनके संयोजन में आपातकाल के दौरान हल्दीघाटी चतुःशती समारोह एवं कवि सम्मेलन हुआ। 1994 में अटल बिहारी वाजपेयी का एकल काव्यपाठ तो अद्भुत था। आज अटलजी की जो कविताएं उनके स्वर में उपलब्ध हैं, वे उसी कार्यक्रम की देन हैं। संस्था द्वारा 1986 से ‘स्वामी विवेकानंद सेवा सम्मान’ तथा 1990 से ‘डा. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान’ भी दिया जा रहा है। 


जुगलजी स्मारिकाओं के प्रकाशन पर विशेष जोर देते थे। इससे जहां संस्था की आर्थिक स्थिति सुधरती थी, वहां उस विषय पर अधिकृत जानकारी भी पाठकों को उपलब्ध होती थी। गद्य एवं पद्य के कई गं्रथों का सम्पादन उन्होंने स्वयं किया। 65 वर्ष के होने पर उन्होंने वकालत छोड़ दी और पूरा समय सामाजिक कामों में लगाने लगे। 


वे कोलकाता की कई संस्थाओं के सदस्य थे। उनके प्रयास से कोलकाता में महाराणा प्रताप की स्मृति में एक पार्क तथा सड़क का नामकरण हुआ तथा एक बड़ी कांस्य प्रतिमा स्थापित हुई। वे भारत सरकार द्वारा संचालित ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के निदेशक एवं न्यासी भी थे। उनके प्रयास से इस संस्था ने राजस्थानी भाषा में भी पुस्तकें प्रकाशित कीं।


जुगलजी 1946 में अपने गांव में शाखा जाने लगे थे। कोलकाता में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और फिर संघ में सक्रिय रहे। उन पर महानगर बौद्धिक प्रमुख और फिर प्रांत के सह बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी रही। 1982 में वे भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर जोड़ाबागान विधानसभा से चुनाव लड़े। वे बंगाल भा.ज.पा. के कोषाध्यक्ष तथा वरिष्ठ उपाध्यक्ष भी रहे। 


कोलकाता में बड़ी संख्या में राजस्थानी व्यापारी रहते हैं। अपने मूल स्थानों के अनुसार उनकी संस्थाएं भी हैं। उन्हें एक साथ लाने और संघ से जोड़ने में जुगलजी की भूमिका बड़े महत्व की रही। वे पृष्ठभूमि में रहकर सभी शैक्षिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं का सहयोग करते थे। अनेक सम्मानों से विभूषित जुगल किशोर जैथलिया का एक जून, 2016 को कोलकाता में ही निधन हुआ। 


Wednesday, October 28, 2020

गणेश शंकर विद्यार्थी


गणेशशंकर विद्यार्थी 


श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद के घर में 25 अक्तूबर, 1890 को हुआ था। इनके नाना सहायक जेलर थे। इनके पुरखे जिला फतेहपुर (उ.प्र.) के हथगाँव के मूल निवासी थे; पर जीवनयापन के लिए इनके पिता श्री जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना, मध्य प्रदेश के गंगवली कस्बे में बस गये। वहीं गणेश को स्थानी jiय एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में भर्ती करा दिया गया। 


अंग्रेजी शासन के विरुद्ध सामग्री से भरपूर प्रताप समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे। अतः प्रताप की लोकप्रियता बढ़ने लगी। दूसरी ओर वह अंग्रेज शासकों की निगाह में भी खटकने लगा। 1920 में विद्यार्थी जी ने प्रताप को साप्ताहिक के बदले दैनिक कर दिया। इससे प्रशासन बौखला गया। उसने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।


इतनी बाधाओं के बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ। उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिए जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, विद्यार्थी जी उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। इतना ही नहीं, वे क्रान्तिकारियों की भी हर प्रकार से सहायता करते थे। उनके लिए रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरणपोषण की भी चिन्ता वे करते थे। 

क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।


स्वतन्त्रता आन्दोलन में पहले तो मुसलमानों ने अच्छा सहयोग दिया; पर फिर वे पाकिस्तान की माँग करने लगे। भगतसिंह आदि की फांसी का समाचार अगले दिन 24 मार्च, 1931 को देश भर में फैल गया। लोगों ने जुलूस निकालकर शासन के विरुद्ध नारे लगाये। इससे कानपुर में मुसलमान भड़क गये और उन्होंने भयानक दंगा किया। विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या को भंग होते देख बौखला गये। वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े। 


दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे। उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उनकी लाश के बदले केवल एक बाँह मिली, जिस पर लिखे नाम से वे पहचाने गये। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब धर्मान्धता की बलिवेदी पर भारत माँ के सपूत गणेशशंकर विद्यार्थी का बलिदान हुआ।


Saturday, October 24, 2020

 

 

अनुवाद के सिद्धांत

अनुवाद एक भाषा की बात को दूसरी भाषा में व्यक्त करने का नाम है। जिसकी उत्पत्ति अनु+वाद के संयोग से हुई है। जिसका अर्थ है


बाद में कहना अर्थात् पहले कही हुई बात को पुनः नए सिरे से उसी भाषा या अन्य भाषा कहना ही अनुवाद है। हिंदी में इसके लिए उल्था, तर्जुमा, भाषांतर, व्याख्या, अनुवचन, लिप्यंतरण इत्यादि शब्द हैं। जबकि अंग्रेजी में इसके लिए Translation शब्द को पर्याय रूप में चुना गया है।

          जब पर्याय की बात प्रबल हुई तो अन्य भाषाओं में अनुवाद की प्रक्रिया भी तीव्र हुई। फलतः विद्वानों ने अनेक भाषाओं के अनुवाद के दौरान होने वाली कठिनाईयों और सुलभता को आकंते हुए इसके लिए कुछ सिद्धांत दिए हैं। जिन पर आगे चलकर विभिन्न आधारों पर अनुवाद सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया। उन्हीं सिद्धांतों की चर्चा नीचे की जाएगी।

अनुवाद संबंधी सिद्धांतों पर स्वतंत्र ग्रंथों का लेखन वस्तुतः बीसवीं शताब्दी से आरंभ हुआ है। इसी शताब्दी के दौरान साहित्यिक और भाषा-वैज्ञानिक पत्रिकाओं में अनुवाद पर लेखों का प्रकाशन आरंभ हुआ और अनुवाद संबंधी पत्रिकाएँ आरंभ हुई। विभिन्न कालों में पश्चिम में अनुवाद को तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। कुछ परिभाषाएँ हैं—

जे. सी. केटफोर्ट के अनुसारअनुवाद स्रोत भाषा की पाठ-सामग्री को लक्ष्य भाषा के समानार्थी पाठ में प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया है।

सेंट जेरोम के अनुसार अनुवाद में भाव की जगह भाव होना चाहिए न कि शब्द की जगह शब्द।[1]

अनुवाद सिद्धांत अनुवाद सिद्धांत मुख्यतः निम्न प्रकार के हो सकते हैं    

समतुल्यता का सिद्धांत

समतुल्यता का सिद्धांत अनुवाद सिद्धांतों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कैटफोर्ड इस सिद्धांत के प्रवर्तक माने जाते हैं। कैटफोर्ट का मानना था कि स्रोत भाषा की पाठ्यसामग्री को लक्ष्य भाषा की सभ्यता में स्थापित करना ही अनुवाद है। इन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में गंभीरता से विचार करते हुए योजना एवं समतुल्यता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। सूक्ष्मता से विचार करने पर ज्ञात होता है कि विभिन्न भाषाओं में शत-प्रतिशत समतुल्यता संभव नहीं। अतः अनुवाद में भी उतनी समतुल्यता नहीं हो सकती। अच्छा अनुवाद मूल के निकट हो सकता है मूल नहीं। यह तभी संभव है जब अनुवादक को स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा दोनों का अच्छा ज्ञान होता हो। समतुल्यता के लिए अनुवादक को अन्य विषय का भी पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। यह अनुवादक का अत्यंत अपेक्षित गुण है। जिससे अनुवाद मूल के निकट जाकर मूल की ही भांति प्रतीत हो सके।

 

व्याख्या का सिद्धांत

व्याख्या का सिद्धांत पाश्चात्य और भारतीय दृष्टिकोण दोनों में ही अनुवाद को ही व्याख्या माना गया है। जेम्स होम्स ने भी अनुवाद को व्याख्या ही माना है। अनुवादक को कुछ जगह अनिवार्यता व्याख्या का सहारा लेना ही पड़ता है। भाषाओं की लोकोक्तियां, मुहावरें, स्थानीय युक्तियाँ इत्यादि सामाजिक संदर्भ का शाब्दिक अनुवाद संभव नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में अनुवादक को अनुवाद के लिए सिद्धांत का विनियोग करना पड़ता है। व्याख्या से अनुवाद करने के लिए लक्ष्य भाषा वही अर्थ निकले इसके लिए पाद टिप्पणी का प्रयोग किया जाता है। इस सिद्धांत की सबसे बड़ी सीमा यह है कि आवश्यकता से अधिक व्याख्या होने पर अनुवाद अपनी सार्थकता खो देता है। अतः अनुवादक को विशेष सावधान रहना चाहिए कि काव्य तत्व को स्पष्ट करने के लिए ही व्याख्या का प्रयोग करे न की स्वयं की दक्षता को प्रदर्शित करने के लिए। उदाहरणतः AIIMS को करने पर स्पष्ट भाव व्यक्त होते हैं। इसलिए इसकी व्याख्या ऑल इंडिया इंस्टीयूट ऑफ मेडिकल साइंसेज या अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान कहना उपयुक्त रहा।

 

अर्थसंप्रेषण का सिद्धांत

भाषा-संवाद अनुवाद की सार्थकता को यथावत बनाए रखने में अर्थ संप्रेषण की भूमिका अतुलनीय है। प्रायः सभी भाषा वैज्ञानिक और अनुवाद चिंतक इस बात से सहमत हैं कि अर्थ अनुवाद का मुख्य तत्त्व है। अर्थ संप्रेषित न होने पर अनुवाद निरर्थक हो जाता है। डॉ. जॉनसन का मत हैअर्थ को बनाएं रखते हुए किसी अन्य भाषा में अंतरण करना ही अनुवाद है। अनुवादक को विशेष ध्यान रखना चाहिए कि अपनी सीमा में रहते हुए अर्थ संप्रेषण की दृष्टि से वह लेखक के निकट रहे। अनुवाद मूल की छाया होती है किंतु मूल नहीं। वस्तुतः अनुवादक सदैव अनुवाद में कुछ जोड़ता और घटता रहता है। क्योंकि अर्थ के लिए शत-प्रतिशत अनुवाद संभव नहीं। इसलिए हर अनुवादक यह प्रयास करता है कि वह श्रेष्ठ अनुवाद करके मूल के निकट जा सके। मूल के निकट जाने वाला अनुवाद ही श्रेष्ठ समझा जाता है।

 

सांस्कृतिक संदर्भों के एकीकरण का सिद्धांत

इस सिद्धांत को सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री मर्लिनो बख्शी ने प्रतिपादित किया है। अनुवाद का सांस्कृतिक महत्त्व सर्वविदित है कि अनुवाद एक सांस्कृतिक सेतु है। प्रत्येक भाषा की अपनी संस्कृति होती है। यही कारण है कि सांस्कृतिक पक्ष से संबंधित अभिव्यक्तियों के अनुवाद में विशेष कठिनाई होती है। स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के सांस्कृतिक संदर्भों को भली-भांति समझकर अनुवाद करना उपयुक्त होता है। मैलिनोवस्की मानते हैं कि अनुवाद संस्कृत संदर्भों का एकीकरण है। यही विचार अंग्रेजी अनुवाद चिंतक देने है— वह मानते हैं कि अनुवाद भाषाओं का अंतरण नहीं अपितु संस्कृतियों का अंतर है। इसलिए अनुवाद सिद्धांत के अंतर्गत सांस्कृतिक संदर्भों का एकीकरण चिंतन अनुवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन करती है। यही कारण है कि भारत विश्व-बधुंत्व की भावना को साकार करते हुए एकीकरण की भावना पर बल देता है। अनुवाद के कारण ही आज संपूर्ण विश्व एक ग्राम रूप में प्रतिष्ठापित होता जा रहा है।

 

निष्कर्षतः अनुवाद सिद्धांत निरूपण यद्यपि इस शताब्दी की महत्त्वपूर्ण घटना है। किंतु अनुवाद संबंधी विवेचन सैकड़ों वर्षों से हो रहा है। पश्चिम में इसकी एक सुधीर परंपरा रही है। बाईबल के अनुवाद के माध्यम से अनुवाद की प्रक्रिया और स्वरूप पर बहुत विचार हुआ है। भारत में भी अनुवाद की परंपरा से अनुवाद के अन्य सूत्र मिले हैं। इस पूरे विवेचन से स्पष्ट है कि अनुवाद के मुख्यतःउपर्युक्त सिद्धांत है। जिसमें व्याख्या का सिद्धांत, अर्थ-संप्रेषण का सिद्धांत और संदर्भों के एकीकरण का सिद्धांत है। अंततः अनुवाद विभिन्न विचारधाराओं को एक माला में मोती की भांति संग्रहित रूप में प्रस्तुत करने की अतुलनीय कला है। अर्थात् अनुवाद की एक सूक्ष्म चर्चा पाश्चात्य क्षेत्र में मिलती है। भारत में अनुवाद की परंपरा के सूत्र एक लंबे समय से विद्यमान है।

 

संदर्भ ग्रंथसूची

·       गुप्त अवधेश मोहन, अनुवाद विज्ञानः सिद्धांत और सिद्धि, एक्सप्रेस बुक सर्विस, दिल्ली।

·       नवीन,देवशंकर, अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य, प्रकाशन  विभाग, प्रथम संस्करण, दिल्ली।

·       खन्ना, संतोष, अनुवाद के नये परिप्रेक्ष्य, विधि भारती परिषद, दिल्ली, प्रथम संस्करण, दिल्ली।

·       सिंह, डॉ. रामगोपाल, अनुवाद विज्ञान, शांति प्रकाशन, दिल्ली।

 

नाम- सुमन 

कार्य- ज्वाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (शोधार्थी)

ईमेल आई डी- sumankumari10191@gmail.com         

ब्लॉग- sumansharmahot.blogspot.com

 

 

 

 

 

 

 



[1] गुप्त अवधेश मोहन, अनुवाद विज्ञानः सिद्धांत और सिद्धि, पृ-18

Sunday, October 11, 2020

तैंतीस कोटि देव

तैंतीस कोटि देव


*🔶भारतवर्ष में देवों का वर्णन बहुत रोचक है। देवों की संख्या तैंतीस करोड़ बतायी जाती है और इसमें नदी , पेड़ , पर्वत , पशु और पक्षी भी सम्मिलित कर लिये गये है, पर वास्तव में ये 33 करोड़ नही 33 कोटि है यानी प्रकार।ऐसी स्तिथि में यह बहुत आवश्यक है कि शास्त्रों के वचन समझे जाएँ और वेदों की वास्तविक शिक्षाएँ ही जीवन में धारण की जाएँ।*


*🔶देव कौन 


*'देव' शब्द के अनेक अर्थ हैं :-*

*देवो दानाद् वा , दीपनाद् वा , द्योतनाद् वा , द्युस्थानो भवतीति वा। " (निरुक्त - ७ / १५) तदनुसार 'देव' का लक्षण है 'दान' अर्थात देना। जो सबके हितार्थ अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु और प्राण भी दे दे , वह देव है। देव का गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना । सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि को प्रकाश करने के कारण देव कहते हैं । देव का कर्म है 'द्योतन' अर्थात सत्योपदेश करना । जो मनुष्य सत्य माने , सत्य बोले और सत्य ही करे , वह देव कहलाता है। देव की विशेषता है 'द्युस्थान' अर्थात ऊपर स्थित होना । ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को , समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को,और राष्ट्र में ऊपर स्थित होने से राजा को भी देव कहते हैं। इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों के लिए होता है। हाँ , भाव और प्रयोजन के अनुसार अर्थ भिन्न - भिन्न होते हैं।

Monday, October 5, 2020

मंगल पांडे और नादिर शाह


मंगल पांडे( 4 अक्टूबर)


1857 के स्वाधीनता संग्राम की ज्योति को अपने बलिदान से जलाने वाले मंगल पाण्डे को तो सब जानते हैं; पर उनके नाम से काफी मिलते-जुलते बिहार निवासी जयमंगल पाण्डे का नाम कम ही प्रचलित है।


बैरकपुर छावनी में हुए विद्रोह के बाद देश की अन्य छावनियों में भी क्रान्ति-ज्वाल सुलगने लगी। बिहार में सैनिक क्रोध से जल रहे थे। 13 जुलाई को दानापुर छावनी में सैनिकों ने क्रान्ति का बिगुल बजाया, तो 30 जुलाई को रामगढ़ बटालियन की आठवीं नेटिव इन्फैण्ट्री के जवानों ने हथियार उठा लिये। भारत माता को दासता की जंजीरों से मुक्त करने की चाहत हर जवान के दिल में घर कर चुकी थी। बस, सब अवसर की तलाश में थे।


सूबेदार जयमंगल पाण्डे उन दिनों रामगढ़ छावनी में तैनात थे। उन्होंने अपने साथी नादिर अली को तैयार किया और फिर वे दोनों 150 सैनिकों को साथ लेकर राँची की ओर कूच कर गये। वयोवृद्ध बाबू कुँवरसिंह जगदीशपुर में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। इस अवस्था में भी उनका जीवट देखकर सब क्रान्तिकारियों ने उन्हें अपना नेता मान लिया था। जयमंगल पाण्डे और नादिर अली भी उनके दर्शन को व्याकुल थे। 11 सितम्बर, 1857 को ये दोनों अपने जवानों के साथ जगदीशपुर की ओर चल दिये।


वे कुडू, चन्दवा, बालूमारथ होते हुए चतरा पहुँचे। उस समय चतरा का डिप्टी कमिश्नर सिम्पसन था। उसे यह समाचार मिल गया था कि ये दोनों अपने क्रान्तिकारी सैनिकों के साथ फरार हो चुके हैं। उन दिनों अंग्रेज अधिकारी बाबू कुँवरसिंह से बहुत परेशान थे। उन्हें लगा कि इन दोनों को यदि अभी न रोका गया, तो आगे चलकर ये भी सिरदर्द बन जाएंगे। अतः उसने मेजर इंगलिश के नेतृत्व में सैनिकों का एक दल भेजा। उसमें 53 वें पैदल दस्ते के 150 सैनिकों के साथ सिख दस्ते ओर 170 वें बंगाल दस्ते के सैनिक भी थे। इतना ही नहीं, तो उनके पास आधुनिक शस्त्रों का बड़ा जखीरा भी था।


इधर वीर जयमंगल पाण्डे और नादिर अली को भी सूचना मिल गयी कि मेजर इंगलिश अपने भारी दल के साथ उनका पीछा कर रहा है। अतः उन्होंने चतरा में जेल के पश्चिमी छोर पर मोर्चा लगा लिया। वह दो अक्तूबर, 1857 का दिन था। थोड़ी देर में ही अंग्रेज सेना आ पहुँची।


जयमंगल पाण्डे के निर्देश पर सब सैनिक मर मिटने का संकल्प लेकर टूट पड़े; पर इधर संख्या और अस्त्र शस्त्र दोनों ही कम थे, जबकि दूसरी ओर ये पर्याप्त मात्रा में थे। फिर भी दिन भर चले संघर्ष में 58 अंग्रेज सैनिक मारे गये। उन्हें कैथोलिक आश्रम के कुँए में हथियारों सहित फेंक दिया गया। बाद में शासन ने इस कुएँ को ही कब्रगाह बना दिया।


इधर क्रान्तिवीरों की भी काफी क्षति हुई। अधिकांश सैनिकों ने वीरगति पायी। तीन अक्तूबर को जयमंगल पाण्डे और नादिर अली पकड़े गये। अंग्रेज अधिकारी जनता में आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए अगले दिन चार अक्तूबर को पन्सीहारी तालाब के पास एक आम के पेड़ पर दोनों को खुलेआम फाँसी दे दी गयी। बाद में इस तालाब को फाँसी तालाब, मंगल तालाब, हरजीवन तालाब आदि अनेक नामों से पुकारा जाने लगा। स्वतन्त्रता के बाद वहाँ एक स्मारक बनाया गया। उस पर लिखा है -


जयमंगल पाण्डेय नादिर अली दोनों सूबेदार रे

दोनों मिलकर फाँसी चढ़े हरजीवन तालाब रे।।


Friday, October 2, 2020

महाराष्ट्रपुरुष गांधी जी

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2 अक्तूबर/जन्म-दिवस


राष्ट्रपुरुष गांधी जी


मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म दो अक्तूबर, 1869 को पोरबन्दर( गुजरात) में हुआ था। उनके पिता करमचन्द गांधी पहले पोरबन्दर और फिर राजकोट के शासक के दीवान रहे। गांधी जी की माँ बहुत धर्मप्रेमी थीं। वे प्रायः रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों का पाठ करती रहती थीं। वे मन्दिर जाते समय अपने साथ मोहनदास को भी ले जाती थीं। इस धार्मिक वातावरण का बालक मोहनदास के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा।


बचपन में गांधी जी ने श्रवण की मातृ-पितृ भक्ति तथा राजा हरिश्चन्द्र नामक नाटक देखे। इन्हें देखकर उन्होंने माता-पिता की आज्ञापालन तथा सदा सत्य बोलने का संकल्प लिया। 13 वर्ष की छोटी अवस्था में ही उनका विवाह कस्तूरबा से हो गया। विवाह के बाद भी गांधी जी ने पढ़ाई चालू रखी। जब उन्हें ब्रिटेन जाकर कानून की पढ़ाई का अवसर मिला, तो उनकी माँ ने उन्हें शराब और माँसाहार से दूर रहने की प्रतिज्ञा दिलायी। गांधी जी ने आजीवन इस व्रत का पालन किया।


कानून की पढ़ाई पूरी कर वे भारत आ गये; पर यहाँ उनकी वकालत कुछ विशेष नहीं चल पायी। गुजरात के कुछ सेठ अफ्रीका से भी व्यापार करते थे। उनमें से एक दादा अब्दुल्ला के वहाँ कई व्यापारिक मुकदमे चल रहे थे। उन्होंने गांधी जी को उनकी पैरवी के लिए अपने खर्च पर अफ्रीका भेज दिया। अफ्रीका में उन्हें अनेक कटु अनुभव हुए। वहाँ भी भारत की तरह अंग्रेजों का शासन था। वे स्थानीय काले लोगों से बहुत घृणा करते थे।


एक बार गांधी जी प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर रेल में यात्रा कर रहे थे; एक स्टेशन पर रात में उन्हें अंग्रेज यात्री के लिए अपनी सीट छोड़ने को कहा गया। मना करने पर उन्हें सामान सहित बाहर धक्का दे दिया गया। इसका उनके मन पर बहुत गहरा असर पड़ा। उन्होंने अफ्रीका में स्थानीय नागरिकों तथा भारतीयों के अधिकारों के लिए सत्याग्रह के माध्यम से संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली।


इससे उत्साहित होकर वे भारत लौटे और कांग्रेस में शामिल होकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने लगे। उनकी इच्छा थी कि भारत के सब लोग साथ मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला करें। इसके लिए उन्होंने मुसलमानों से अनेक प्रकार के समझौते किये, जिससे अनेक लोग उनसे नाराज भी हो गये; पर वे अपने सिद्धान्तों पर अटल रहकर काम करते रहे।


सविनय अवज्ञा, दाण्डी यात्रा, अंग्रेजो भारत छोड़ो..आदि आन्दोलनों में उन्होंने लाखों लोगों को जोड़ा। जब अंग्रेजों ने अलग चुनाव के आधार पर हिन्दू समाज के वंचित वर्ग को अलग करना चाहा, तो गांधी जी ने आमरण अनशन कर इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। 15 अगस्त, 1947 को देश को स्वतन्त्रता मिली; पर देश का विभाजन भी हुआ। अनेक लोगों ने विभाजन के लिए उन्हें और कांग्रेस को दोषी माना।


उन दिनों देश मुस्लिम दंगों से त्रस्त था। विभाजन के दौरान लाखों हिन्दू मारे गये थे। फिर भी गांधी जी हिन्दू-मुस्लिम एकता के पीछे पड़े थे। इससे नाराज होकर नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को सायंकाल प्रार्थना सभा में जाते समय उन्हें गोली मार दी। गांधी जी का वहीं प्राणान्त हो गया।


गांधी जी के ग्राम्य विकास एवं स्वदेशी अर्थ व्यवस्था सम्बन्धी विचार आज भी प्रासंगिक हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि जिन नेहरू जी को उन्होंने जिदपूर्वक प्रधानमन्त्री बनाया, उन्होंने ही उनके सब विचारों को ठुकरा दिया।