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Monday, June 29, 2020

शोध प्रारूप बनाने का ढंग

शोध प्रारूप बनाने का तरीका

शोध प्रारूप शोध कार्य करने से पूर्व कि वह सुनियोजित योजना है। जिसमें कुछ विशेष घटक निहित होते हैं। जिनका शोध कार्य के दौरान विशेष  उद्देश्य एवं योगदान होता है। शोध प्रारूप के उद्देश्य से स्पष्ट है कि शोध वह युक्तिपूर्ण योजना का नाम है। जिसके अंतर्गत विविध घटक एक-दूसरे से परस्पर संबंधित होते हैं। इन्हीं घटनाओं के बल पर कोई शोध सफलतापूर्वक संपादित हो पाता है; जो अंतर्संबंधित होते हैं। वह घटक हैं--

  • सूचना प्राप्ति के स्रोत
  • अध्ययन की प्रकृति 
  • अध्ययन के उद्देश्य
  • अध्ययन के सामाजिक -सांस्कृतिक संदर्भ
  • अध्ययन द्वारा समाहित भौगोलिक क्षेत्र 
  • शोध कार्य में खर्च होने वाले समय का काल -निर्धारण
  • अध्ययन के आयाम 
  • आंकड़े संकलित करने का आधार 
  • आंकड़े संकलन हेतु प्रयोग की जाने वाली विभिन्न विधियां। 
अतः यह स्पष्ट है कि किसी भी शोध कार्य को करने से पूर्व उसकी एक ऐसी रूपरेखा का निर्माण किया जाता है जिसमें संपूर्ण शोध समाहित हो जाए। इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए विद्वानों ने उपर्युक्त बिंदुओं की ओर संकेत किया है। वर्तमान युग में शोध के क्षेत्र में इन्हीं बिंदुओं के आधार पर शोध प्रारूप को तैयार किया जाता है। इन बिंदुओं के अभाव में तैयार किया गया शोध प्रारूप अमान्य सा अस्पष्ट होता है।

Friday, June 26, 2020

भाषा की समृद्धि में अनुवाद



भाषा की समृद्धि में अनुवाद
अनुवाद से भाषा की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। नए भावों, विचारों और अभिव्यक्तियों से एक ओर जहाँ अभिव्यक्ति-क्षमता बढ़ती है, वहीं दूसरी ओर उसका शब्द-भण्डर भी विस्तृत होता है। इस प्रक्रिया में उनके समकक्ष पर्याय खोजने, नये शब्द निर्माण एवं अन्य भाषाओं के शब्दों को ज्यों का त्यों थोड़ा फेर-बदल करके ग्रहण कर लिया जाता है। उदाहरणतः अंग्रेजी के शब्द ‘hour’ के लिए हिंदी में घंटा’, ‘minute’ के लिए मिनट’, ‘tragedy’ के लिए त्रासदीऔर ‘comedy’ के लिए कामदीरखे गए हैं।
इसी क्रम में Toxin, venom, poison, App, Whatsapp, blue tooth, Wikipedia, verse, internet, sms, Facebook आदि अंग्रेजी शब्दों ने कहीं न कहीं हिंदी को समृद्ध किया है। किंतु बाजारीकरण के बाजारूपन ने भाषा को निरंतर घटिया और अस्पष्ट बना दिया है। इसके अतिरिक्त उर्दू, अरबी, फारसी एवं अनेक देशज भाषा शब्दों के आगमन ने भी भाषिक विकास में सहयोग किया हैवकालतनामा, हलफ़नामा, मराठी की पावती (knowledgement), आवक (inward), जावक (outward), कन्नड़ से सांध (Annex) आदि इसी संवर्धन का प्रमाण हैं।
         सच तो यह है कि भाषा संवर्धन की प्रक्रिया के दौरान भाषा में जो बाजारूपन आया, वह बाजार के कारण नहीं; बल्कि मानवीय समाज की क्रूरता के कारण हुआ है। जिसका प्रतिफल हम जनसंचार के विश्वसनीय माध्यम दूरदर्शन में देख सकते हैं।
रोचक बात तो यह है कि भारतीय जनसंचार में दूरदर्शन की भूमिका प्रभावी है। क्योंकि यह दृश्य के साथ-साथ श्रव्य माध्यम भी है। इसकी भाषा में रंगमंचीयता घोलने के प्रयास ने भाषा को बेहद कच्चा कर दिया है। जिसे हम दूरदर्शन की संवाद-शैली के एक उदाहरण में समझ जाएंगेसभी सर्वेक्षणों के द्वारा यह पाया गया है, संवाददाता का समाचार के दौरान कहनायदि हम विशेष की बात करें तो पाएगें इत्यादि।
          आज दूसरी भाषा सीखना न केवल व्यक्ति की सांस्कृतिक संपन्नता का प्रतीक है। बल्कि उसकी आवश्यकता बन गया है। आज यदि कोई व्यक्ति दूसरी भाषा सीखना चाहता है तो किसी शैक्षिणिक भाषा के रूप में सीख सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य भाषिक ज्ञान को उस भाषा में प्रणीत साहित्य का रसास्वादन कर सकता है। वह अन्य भाषा-भाषी के जीवन, परंपरा और संस्कृति को व्यापक स्तर पर जान सकता। जानने की यह प्रबल इच्छा अनुवाद के कारण ही जागृत होती है। इस कार्य में अनुवादक की निष्ठा, लगन और प्रभावी भूमिका उल्लेखनीय है जिसने संपूर्ण विश्व को एक ग्राम में परिवर्तित कर दिया है, जो निरंतर सिकुड़ रहा है।

Saturday, June 20, 2020

छायावाद की राजनीतिक परिस्थितियाँ




छायावाद की राजनीतिक परिस्थितियाँ


हिंदी की छायावादी काव्यधारा में निहित परिस्थितियों के अध्ययन के लिए जिस तत्कालीन जनमानस जीवन दृष्टि की आवश्यकता थी, उसे इस काव्यधारा ने बखूवी निभाया है। यह काव्यधारा दो महायुद्धों के बीच की वह कविता है। जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृव्य राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कर रहे थे। अहिंसा, सत्य और असहयोग की नीति जिसके मूल तत्त्व रहे। यद्यपि इन प्रांरभिक उपकरणों से कोई विशेष सफलता नहीं मिली। किंतु न तो गाँधीजी इससे निरुत्साहित हुए और न ही देशवासी। 

हिंदी के कुछ विद्वानों ने छायावादी काव्य की वेदना और उसकी निराशा का संबंध प्रथम महायुद्ध के बाद अंग्रेजी शासन का अपने वचनों को पूरा न करना, रौलट एक्ट और 1919 के अवज्ञा आंदोलन की असफलता के साथ जोड़ा किंतु यह नितांत असंगत है। साहित्य पर तत्कालीन परिस्थिति का प्रभाव होने के कारण उसकी अभिव्यक्ति छायावादी काव्य में आनी स्वाभाविक थी। जिसका प्रतिफल पंत, निराला, दिनकर, प्रसाद आदि की काव्य रचनाओं में उजागर होता है, जो सौ वर्ष बाद आज भी प्रांसागिक और लोकप्रिय हैं।
          
लगातार असफलता होने के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों के लक्ष्य, नीति और अदम्य उत्साह में तिल भर अंतर नहीं आया। इन्हीं सतत् प्रयत्नों और उत्साह-शक्ति के परिणामस्वरूप सन् 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई। 

छायावादी कवियों की राजनीतिक आंदोलन के प्रति उदासीनता ने तत्कालीन राजनीतिक निराशा नहीं बल्कि औद्योगिकता से प्रेरित उनका व्यक्तिवाद है। उनका काव्य के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण है। यह मात्र संयोग था कि छायावाद तब जन्मा, जब राष्ट्रीय आंदोलन चल रहे थे, यदि वे न भी होते तब भी छायावादी काव्य का जन्म अवश्यंभावी था। साथ ही उसका स्वरूप भी वही होता जो आज है। 

डॉ. शिवदान सिंह के शब्दों में कहें तो इस बात को स्पष्ट समझ लेना जरूरी है कि दि हमारा देश पराधीन न होता और हमारे यहाँ राष्ट्रीय आंदोलन की आवश्यकता न रही होती, तब भी आधुनिक औद्योगिक समाज (पूँजीवाद) का विकास होता ही। काव्य में स्वच्छंदतावादी भावना और व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति मुखर हो उठती। उस समय छायावादी कविता राष्ट्रीय आंदोलन या जागृति का सीधा परिणाम न होते हुए पाश्चात्य अर्थव्यवस्था और संस्कृति के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप हमारे देश और समाज के बाहरी एवं भीतरी जीवन में प्रत्यक्ष और परोक्ष परिवर्तन कर रही थी। 

इस परिवर्तन ने जिस प्रकार सामूहिक व्यवहार और कर्म के क्षेत्र में राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरणा दी। उसी प्रकार सांस्कृतिक क्षेत्र में स्वच्छंदतावाद की प्रवृत्ति को भी प्रेरणा दी।

इस प्रकार देश की प्राचीन संस्कृति और पाश्चात्य काव्य के प्रभावों को ग्रहण करती हुई छायावादी कविता राष्ट्रीय जागरण के रूप में पनपते हुए फली-फूली। हाँ, राष्ट्रीय आंदोलनों का यह लाभ अवश्य हुआ कि व्यक्तिवाद असामाजिक पथों पर न भटका।
          
जनसामान्य में भटकाव का अभाव होने के कारण नवजागरण पर सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विचारधारा का गहरा प्रभाव रहा। भारतीय दर्शन और वेदांत का विदेशों में प्रचार-प्रसार करके  पुनः भारतीय दर्शन के झंडे गाढ़ दिए। जिसने सत्य एवं मनुष्यता को सार्थकता का आईना दिखाया। निराला द्वारा प्रस्तुत राम की शक्तिपूजा तो रामकृष्ण और विवेकानंद की वेदांती विचारधारा से प्रभावित नज़र आती है। जिसे निराला की आत्मीयता और रामकृष्ण एवं विवेकानंद की दूरदर्शिक सिद्धांतों की काव्यात्मक प्रस्तुति कहा जा सकता है।




  1. श्री शरण एवं आलोक रस्तोगी,  हिंदी साहित्य का इतिहास, द्वितीय भाग, पृ-155
  2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, साहित्य का इतिहास 


हिंदू विवाह की समस्याएँ और उनके विधिक निदान



      




हिंदू विवाह की समस्याएँ और उनके विधिक निदान


हमारे देश में विवाह संस्कार को एक बहुत ही सुंदर एवं स्मरणीय उत्सव माना जाता है। हमारी भारतीय संस्कृति में वैवाहिक बंधन को अटूट माना गया है। जिसे मुत्यु पर्यन्त निभाया जाता है। पतिव्रता धर्म की प्राचीन भारतीय अवधारणा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी पहले थी। पतिव्रता धर्म प्रत्येक स्त्री को प्यार, सेवा और अपने पति के प्रति समर्पण सिखाता है, वहीं यह पतियों को भी अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण समर्पण और संकट के समय उसकी सुरक्षा के प्रति सजक बनाता है।
 
प्राचीन काल में विधवाओं के विवाह की वैसी सुविधा नहीं थी, जैसी विधुरों के विवाह की। उनके ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था। वह विधुरों की भांति पुनः विवाह करने के लिए स्वतंत्र थीं। विधवा-पुनर्विवाह का समर्थन करते हुए राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद ने भारत से सती-प्रथा की समाप्ति पर बल दिया। 

स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने महिलाओं के उत्थान एवं विधवा विवाह के लिए अनेक प्रयत्न किए। भारत के अधिकांश हिस्सों में पितृसत्तात्मक परिवार की व्यवस्था है। यहाँ विवाह के बाद लड़की ससुराल में आकर रहती है। यहाँ पुरूष के नाम से ही परिवार का नाम चलता है। बच्चे अपने पिता के नाम से ही जाने और पहचाने जाते हैं। इसी कारण परिवार में लड़के के जन्म पर खुशियाँ मनाई जाती हैं और लड़की के जन्म पर दुःख। फलतः लड़कों के खाने-पीने पर विशेष ध्यान हीं दिया जाता है। आजकल कन्या जन्म से छुटकारा पाने के लिए कुछ स्थानों पर लड़की के पैदा होते ही उसे गला घोंटकर या भ्रूण हत्या के द्वारा मार दिया जाता है। कारण, लड़कियों से वंश आगे नहीं बढ़ सकता है। अधिकांश लड़कियाँ उचित शिक्षा से भी वंचित रह जाती हैं। 
          देश के कुछ हिस्सों में मातृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था है। इन परिवारों में लड़के शादी के बाद लड़की के घर जाकर रहते हैं। लड़की के कुल के नाम से ही परिवार का नाम आगे चलता है। लड़की ही परिवार की मुखिया होती है। पारिवारिक इकाई में महिला का निर्णय पुरूषों की तुलना अधिक प्रभावी होता है। ऐसी परिवार व्यवस्था मात्र कुछ समूह तक ही सीमित है। इसे विविधता में एकता और एकता में विविधता का अटूट दर्शन कहा जा सकता है।

भारत विभिन्नताओं का राष्ट्र है जिसमें विविधता कहीं रीति-रिवाज तो कहीं संस्कृति के रूप में सक्रिय है। यह संस्कृति की भिन्नता ही है कि भारत के कुछ हिस्सों में बहु-पति तो उत्तर भारत के कुछ कबुलाई जातियों में बहु-पत्नी प्रथा का प्रचलन है। हिंदू विवाह अधिनियम के पारित होने के पश्चात् किसी पुरूष या स्त्री को एक से अधिक विवाह करने की अनुमति नहीं। हिंदू विवाह अधिनियम में हिंदू होने के कुछ खास प्रकार और उनकी प्रवृत्तियों की ओर इशारा किया गया है। हिंदू होने के संबंध में निम्नलिखित बातें निहित हैं—

·       किसी भी जाति या संप्रदाय से संबंधित व्यक्ति हिंदू है। जिसमें बौद्ध, जैन और सिक्ख आदि शामिल हैं।
·       कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसने अपना मूलधर्म छोड़कर हिंदू धर्म अपनाया हो वह भी हिंदू है।
·    प्रायः अनुसूचित जनजातियों पर यह कानून लागू नहीं होता। क्योंकि उनके आचार और विचार-विधान भिन्न हैं।
हिंदू विवाह विधि
·       हिंदू विवाह में वर-वधू का विवाह समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार होता है।
·       प्रायः हिंदू विवाह होम, यज्ञ, हवन और सप्तपदी रीतियों से पूर्ण होता है।
·     हिंदू विवाह में वर और वधू दोनों पक्षों के परिजन द्वारा समस्त विधियों के साथ-साथ कुल देव का पूजन भी पूरे विधि-विधान से किया जाता है। जिससे नवल दंपत्ति जोड़े को उनके पूर्वजों का आशीस प्राप्त हो सके।

हिंदू विवाह के अनिवार्य तत्त्व
हिंदू समाज अपनी रीति-रिवाजों के निर्वाह के लिए प्रसिद्ध है। यही कारण है कि इस धर्म के सभी संस्कार प्रत्येक धर्म के संस्कारों से भिन्न और प्रभावी हैं। जिन्हें निम्नलिखित बिंदुओं से बड़ी सहजता से जाना जा सकता है—
· विवाह के  लिए लड़का और लड़की दोनों के लिए हिंदू होना आवश्यक है।
·     वर्तमान विवाह से पूर्व लड़का-लड़की दोनों किसी भी प्रकार से विवाहित न हों। विवाह के समय लड़के की कोई जीवित पत्नी और लड़की का कोई जीवित पति न हो।
·    विवाह के लिए लड़का-लड़की दोनों मानसिक रूप से स्वस्थ हों। साथ ही दोनों एक-दूसरे के करीबी रिश्तेदार न हों। जैसे माँ की बहन का लड़के का विवाह माँ की बेटी से वर्जित है। ठीक वैसे ही पिता के भाई या सगी बहन के बेटे से पिता की बेटी का विवाह वर्जित है।
·    विवाह के लिए लड़के की उम्र कम से कम 21 वर्ष और लड़की की उम्र 18 वर्ष अनिवार्य है। इससे कम उम्र के लड़का-लड़की का विवाह कानूनी अपराध है। किंतु विवाह वैध होगा।
हिंदू विवाह विच्छेद के कारण
·    विवाह के पश्चात् पति की नामर्दगी के कारण विवाह टूट सकता है। इनमें सबसे दिलचस्प बात तो यह हैद कि— दोनों दम्पतिये जीवन जीने के लिए तत्पर हों
·    कई बार अनेक धोखे और दबाबों के कारण संपन्न शादी भी टूट जाती है। इन धोखों में वह सभी धोखे शामिल हैं जिनके कारण पति-पत्नी दोनों के बीच किसी भी प्रकार की दूरी का निर्माण होता है।

हिंदू धर्म में दूसरा विवाहः एक कानूनी अपराध

हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि दूसरा विवाह किसी भी पति की पहली पत्नी और पत्नी का पहला पति जीवित रहते नहीं हो सकता। यदि ऐसा है तो इसे कानून के विरूद्ध अपराध माना जाएगा। कानून के अनुसार दूसरे विवाह के लिए उपर्युक्त स्थिति का होना अमान्य है। कानून कहता है कि किसी भी पति-पत्नी के जीते-जी दूसरा विवाह नहीं कर सकता। ऐसे में पहली पत्नी चाहे तो पति के खिलाफ थाने में या मजिस्ट्रेट कोर्ट में शिकायत दर्ज कर सकती है, ऐसे में पति को सात साल की कैद की सजा हो सकती है।

          यदि पहले पति या पत्नी के जीवित रहते हुए विवाह हो भी गया तो वैध नहीं होगा। अगर पत्नी दूसरे विवाह के लिए सहमति दे भी दे तब भी वह विवाह गैर-कानूनी ही होगा। ऐसी स्थिति में दूसरी पत्नी को वास्तव में पत्नी होने का कोई अधिकार नहीं मिलेगा और न ही उसे खर्चा प्राप्त करने का कोई अधिकार होगा। इसके साथ ही पति की संपत्ति में वह किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं रखेगी। हाँ, यदि पहली पत्नी की मौजूदगी दूसरी पत्नी से छिपाई जाए तो दूसरी पत्नी पति के खिलाफ धोखे का मुकदमा दर्ज कर मुआवजा प्राप्त कर सकती है। इसके साथ ही यदि वह किसी बच्चे को जन्म देती है तो उसे भी जायज संतान का तरह पिता की संपत्ति में सारे अधिकार मिलेंगे, जो जायज संतान को प्राप्त हैं।



Friday, June 5, 2020

भारतेंदु के अनूदित एवं मौलिक नाटकः एक संक्षिप्त वर्णन



भारतेन्दु के अनूदित एवं मौलिक नाटक


भारतेन्दु का संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी और बांग्ला आदि भाषाओं पर पर्याप्त अधिकार था। सच्चे नाटककार के नाटक सदैव से युग का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने राजनैतिक चोलों की चोटों से युक्त यथार्थवादी शैली का आदर्श रूप मुद्राराक्षस का पूर्ण अनुवाद करने मे ही श्रेयष्कर समझा।

रत्नावली भारतेन्दु का अनुवाद के क्षेत्र में प्रारम्भिक और सफल प्रयास है जिसमें पाखण्ड-विडम्बन में भावों का द्वंद बड़े मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से चित्रित हुआ है। धनंजय विजय नाटक के लेखक ने पद्य शैली अपनाई वहीं भारतेन्दु ने केवल पद्य शैली की सत्ता स्थापित की। उनका दुर्लभ बंधु शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक मर्चेन्ट आफ वैनिस का सफल अनुवाद है। विद्यासुन्दर भारतेन्दु की रुपान्तरित रचना है। यह बंग देश के नाटक विद्यासुन्दर की छाया लेकर निर्मित हुआ है। भारत जननी बंग्ला के भारतमाता का अनुवाद है। सत्य हरिशचन्द्र भारतेन्दु की सफल एवं प्रतिनिधि मौलिक रचना है। सती प्रताप भारतेन्दु की अपूर्ण कृति है इसमें सावित्री-सत्यवान के पौराणिक कथा इतिवृत्त को ग्रहण किया है। प्रेमजोगिनी काशीनगर के अधर्मरत ठेकेदारों व भारतीय धार्मिक पाखण्डों का प्रतिछलन रूप दिखाया है। वहीं वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति में भी धर्म की आड़ में दुराचार करने वाले तथा मांसभक्षियों मिथ्याचारी, पाखण्डियों की खिल्ली उड़ाई गई है। विषस्यविषमौषधम् में बड़ौदा के राजा मल्हार राव के कुशासन का वर्णन है। भारत दुर्दशा प्रतीकात्मक दुखांत नाटक है वहीं भारत जननी में पराधीन भारतीयों दयनीय स्थिति का मार्मिक चित्रण है। नीलदेवी में स्त्री की ओजस्वी छवि का चित्रण है।

भारतेन्दु ने अनुवादों के मूल में निहित मन्तव्यों व सामयिक, उपयोगिता का स्पष्टीकरण, भूमिकाओं व आरम्भिक राष्ट्र समर्पण से हो जाता है। इन्होंने पात्र और कथा का भारतीयकरण किया है। भारतेन्दु ने राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र कल्याण एवं जनजागृत नवचेतना को आधार संस्कृत, पारसी, अंग्रेजी से प्रभावित होकर ग्रहण किया है जिसका जीवांत उदाहरण मर्चेन्ट आफ वेनिस का दुर्लभबन्धु है।

भारतेन्दु का जन्म 9 सितम्बर 1850 को और मृत्यु 6 जनवरी 1885 में हुई। इन्होंने अपने नाटक नामक निबंध में अपने 19 नाटकों का जिक्र किया है। जिसमें मौलिक और अनूदित दोनों सम्मिलित हैं। भारतेन्दु के नाटक लेखन का श्रीगणेश 1868 ई. से हुआ। सन् 1868 से 1885 ई. तक अपने अत्यंत व्यस्त जीवन के शेष 17 वर्षों में अनेक नाटकों का सृजन कर अभिनेय को भी प्रेरित किया।

काशी में भारतेन्दु के संरक्षण में नेशनल थियेटर की स्थापना हुई। जिसमें उन्होंने अपने मौलिक व अनूदित नाटकों का अभिनेय किया।

भारतेन्दु हरिश्चंद के अनूदित नाटकों में रत्नावली (1868), धनंजय विजय (1873), पाखण्ड विडम्बन (1872), मुद्राराक्षस (1875), कर्पूरमंजरी (1876), दुर्लभबंधु (1880), विद्यासुन्दर आदि अनूदित नाटक हैं जो संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी से अनूदित हैं। विद्यासुन्दर रूपान्तरित नाटक है।

भारतेन्दु के मैलिक नाटकों में कथावस्तु की अनेकरूपता, विविधता एवं मौलिकता के दर्शन होते हैं। विचार और भावपक्ष की दृष्टि से इनमें तत्कालीन अधिकांश विकासोन्मुखी नई प्रवत्तियां, विशेषकर राष्ट्रीयता और समाज-संस्कार आदि प्राण रूप में समाई हुई है। भारत दुर्दशा और भारत जननी में देशप्रेम, सत्यहरिशचन्द्र में सत्यप्रेम, सतीप्रताप में पतिप्रेम, चन्द्रावली में ईश्वरोन्मुखी प्रेम तथा सत्य हरिशचन्द्र नाटक में इनके प्रकृति प्रेम का परिचय मिलता है।

भारतेन्दु ने नाटकों में आत्महीनता के स्थान पर स्वाभिमान और आत्मगौरव की बात की है। भारत दुर्दशा के आरम्भ में योगी का गान इसी भावाशय का द्योतक है।

कार्यव्यापार और कौतूहल अधिकांश रचनाओं के अनिवार्य अंग हैं। सत्यहरिशचन्द्र, नीलदेवी, अंधेर नगरी तथा वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति में तो कार्यगति अत्यंत तीव्र है। प्रेम जोगिनी अपूर्ण में भी कार्यव्यापार एवं सजीवता की दृष्टि से सफल रचा है।

चन्द्रावली में कथा वैचित्य का अभाव होते हुए भी वस्तु संघटन बड़ी सुन्दरता से हुआ है। भारत दुर्दशा अन्यापेदशिक नाटकों की कोटि की रचना होते हुए भी वस्तु संगठन की दृष्टि से सफल है। चन्द्रावली में कृष्ण की प्रशंसा के साथ प्रयोगातिशय नामक प्रस्तावना का प्रयोग है।

भारतेन्दु ने रिश्वतखोरी, शोषक अंग्रेजों और भ्रष्ट पुलिस वालों पर व्यंग्य किया है। इन्होंने नाटकों में मनोरंजन और उपदेश दोनों की प्रक्रिया रखते हुए नाटक रचे हैं।

भारतेन्दु के अनुवादों की भाषा में संवाद सशक्त एवं गीत और पद्य अच्छे हैं। इनमें प्रयुक्त भाषा भी पौढ़, सजीव, व्यंजनापूर्ण है। कर्पूरमंजरी में विचक्षणा और विदूषक का संवाद अत्याकर्षक एवं सजीव हुआ है। मुद्राराक्षस अनुवाद की भाषा सबसे अधिक प्रांजल है। डा. सोमनाथ गुप्त के अनुसारमुद्राराक्षस तो हिन्दी गद्य की व्यंजना शक्ति और भारतेन्दु की गद्य दक्षता का निर्विवाद उदाहरण है।
                             
भारतेन्दु ने अधिकांश नाटकों को सरल, दृश्य विधान और यथार्थवादी शैली में लिखा हैं। चन्द्रावली सरस प्रेमविधान नाटिका शैली में लिखा है। विषस्यविषमौधम भाण शैली में लिखा गया प्रहसन है। अंधेर नगरी व्यंग्य प्रधान वर्णन शैली का प्रहसन है। भारत दुर्दशा प्रतीकात्मक दुखांत नाटक है जो विश्लेषणात्मक शैली में है। नीलदेवी गीतिरूपक शैली में है। वहीं प्रेम जोगिनी गर्भांक शैली में रचित नाटक है।

भारतेन्दु ने अपने नाटकों के माध्यम से हिन्दी नाट्यकला को नवीन, स्वस्थ, मौलिक एवं स्पष्ट रूपरेखा प्रदान की है। वह अपनी नाट्यशक्ति और सामर्थ्य के बल पर नवोत्थान और पुरोधा नाटककार बने हैं। उन्होंने खड़ी बोली को स्वभाविक एवं निश्चित रूप दिलाने, गद्य, की प्रधानता को बढ़ाने तथा नाटक को अनिवार्य गुण अभिनेयत्व के साथ विकसित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

Wednesday, May 27, 2020

एमएलए स्टाइल में संदर्भ सूची लिखने को सही ढंग


संदर्भ गंर्थसूची


  • राजूरकर, भ.ह. एवं राजमल बोरा (संपा), हिंदी अनुसंधान का स्वरुप, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, मुद्रित।
  • सिन्हा, सावित्री एवं डॉ. विजयेन्द्र स्नातक (संपा), अनुसंधान की प्रकिया, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1991, मुद्रित।
  •  सिंहल, बैजनाथ, शोध: स्वरुप एवं मानक कार्यविधि, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, मुद्रित।
  •  सिंहल, डॉ. सुरेश, अनुवाद की संवेदना और सरोकार, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, मुद्रित।
  • तिवारी, भोलानाथ, अनुवाद विज्ञान, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, मुद्रित।
  • चतुर्वेदी, मा. एवं कृष्णकुमार गोस्वामी, अनुवादविविध आयाम, केंद्रिय हिंदी निदेशालय. आगरा, मुद्रित।
  • नगेन्द्र डॉ, अनुवाद विज्ञान सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निर्देशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, मुद्रित।
  •  गोस्वामी, कृष्णकुमार, अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2008, मुद्रित।

Wednesday, May 20, 2020

अनुवाद पर प्रकाशन करने वाले संस्थान












अनुवाद पर प्रकाशन करने वाले संस्थान

भारतीय शिक्षा में अनुवाद की भूमिका हमेशा से सक्रिया रही है। भारत के हर प्रदेश में शिक्षा के लिए अनुवाद की मदद प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों से ली जाती रही है। विभिन्न राज्यों में ग्रंथ अकादमियाँ एवं राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार इत्यादि ने भारतीय भाषाओ में मौलिक लेखन के साथ-साथ स्तरीय ग्रंथों का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया है। हिंदी के माध्यम से विश्वविद्यालय की स्तरीय पुस्तकों को प्रकाशित करने वाली प्रमुख संस्थाएँ हैं—
vउत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान,
vमध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी,
vहरियाणा ग्रंथ अकादमी,
vराजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी,
vहिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय,
vदिल्ली विश्वविद्यालय,
vहिंदी माध्यम कक्ष,
vबनारस हिंदु विश्वविद्यालय (विज्ञान संबंधी प्रकाशनों के लिए) और
vपंत नगर कृषि विश्वविद्यालय का प्रकाशन निदेशालय (कृषि एवं इंजीनियरी संबंधी प्रकाशनों के लिए)।
इनके अतिरिक्त भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद और अलीगढ़ विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए इतिहास पुस्तकों के अनुवाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
                                                                                                           
प्राइवेट प्रकाशन संस्थानों द्वारा प्रकाशित ग्रंथ भी काफी महत्त्वपूर्ण है। इनमें मोतीलाल बनारसीदास द्वारा प्रकाशित प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद एवं मैक्मिल द्वारा प्रकाशित सामाजिक विज्ञानों की पुस्तकों के हिंदी अनुवादों का उल्लेख किया जा सकता है। परंतु यह वह संस्थान है जिनका अनुवाद के जरिए शिक्षा में योगदान तो है। परंतु अकादमिक रूप में अनुवाद शिक्षा का उल्लेख हमें कम ही मिलता है।