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Wednesday, May 27, 2020

एमएलए स्टाइल में संदर्भ सूची लिखने को सही ढंग


संदर्भ गंर्थसूची


  • राजूरकर, भ.ह. एवं राजमल बोरा (संपा), हिंदी अनुसंधान का स्वरुप, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, मुद्रित।
  • सिन्हा, सावित्री एवं डॉ. विजयेन्द्र स्नातक (संपा), अनुसंधान की प्रकिया, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1991, मुद्रित।
  •  सिंहल, बैजनाथ, शोध: स्वरुप एवं मानक कार्यविधि, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, मुद्रित।
  •  सिंहल, डॉ. सुरेश, अनुवाद की संवेदना और सरोकार, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, मुद्रित।
  • तिवारी, भोलानाथ, अनुवाद विज्ञान, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, मुद्रित।
  • चतुर्वेदी, मा. एवं कृष्णकुमार गोस्वामी, अनुवादविविध आयाम, केंद्रिय हिंदी निदेशालय. आगरा, मुद्रित।
  • नगेन्द्र डॉ, अनुवाद विज्ञान सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निर्देशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, मुद्रित।
  •  गोस्वामी, कृष्णकुमार, अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2008, मुद्रित।

Wednesday, May 20, 2020

अनुवाद पर प्रकाशन करने वाले संस्थान












अनुवाद पर प्रकाशन करने वाले संस्थान

भारतीय शिक्षा में अनुवाद की भूमिका हमेशा से सक्रिया रही है। भारत के हर प्रदेश में शिक्षा के लिए अनुवाद की मदद प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों से ली जाती रही है। विभिन्न राज्यों में ग्रंथ अकादमियाँ एवं राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार इत्यादि ने भारतीय भाषाओ में मौलिक लेखन के साथ-साथ स्तरीय ग्रंथों का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया है। हिंदी के माध्यम से विश्वविद्यालय की स्तरीय पुस्तकों को प्रकाशित करने वाली प्रमुख संस्थाएँ हैं—
vउत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान,
vमध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी,
vहरियाणा ग्रंथ अकादमी,
vराजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी,
vहिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय,
vदिल्ली विश्वविद्यालय,
vहिंदी माध्यम कक्ष,
vबनारस हिंदु विश्वविद्यालय (विज्ञान संबंधी प्रकाशनों के लिए) और
vपंत नगर कृषि विश्वविद्यालय का प्रकाशन निदेशालय (कृषि एवं इंजीनियरी संबंधी प्रकाशनों के लिए)।
इनके अतिरिक्त भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद और अलीगढ़ विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए इतिहास पुस्तकों के अनुवाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
                                                                                                           
प्राइवेट प्रकाशन संस्थानों द्वारा प्रकाशित ग्रंथ भी काफी महत्त्वपूर्ण है। इनमें मोतीलाल बनारसीदास द्वारा प्रकाशित प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद एवं मैक्मिल द्वारा प्रकाशित सामाजिक विज्ञानों की पुस्तकों के हिंदी अनुवादों का उल्लेख किया जा सकता है। परंतु यह वह संस्थान है जिनका अनुवाद के जरिए शिक्षा में योगदान तो है। परंतु अकादमिक रूप में अनुवाद शिक्षा का उल्लेख हमें कम ही मिलता है।

Saturday, May 16, 2020

अनुवाद के क्षेत्र में कार्य करती संस्थान



 अनुवाद के क्षेत्र में कार्यरत संस्था


भारत में वर्तमान में अनुवाद के क्षेत्र में अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं। उनका प्रयास है कि मूल साहित्य की भांति ही अनुवाद को दोयम दर्जे का दर्जा न मिलकर मूल भांति मूल्यवान होने का गौरव प्राप्त हो। इन संस्थानों को निम्नवत जान सकते हैं-


  • दिल्ली विश्वविद्यालय, 
  • जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, 
  • महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, 
  • हैदराबाद विश्वविद्यालय, 
  • इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, 
  • अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, 
  • भारतीय अनुवाद परिषद, 
  • संस्कृत विद्यापीठ, 
  • भारतीय विद्यापीठ।
यह कुछ ऐसे संस्थान हैं जहाँ अनुवाद का विधिवत् पाठ्यक्रम है। उदाहरणतः दिल्ली विश्वविद्यालय में महज अनुवाद में डिप्लोमा है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनुवाद में मास्टर्स (निष्णात) का पाठ्यक्रम है।जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय',हैदराबाद विश्वविद्यालय में अनुवाद विषय पर शोधकार्य कराया जाता है। अनुवाद का पाठ्यक्रम हैदराबाद विश्वविद्यालय में अलग से न होकर आदिवासी विमर्श और अनुवाद विभाग के रूप में चलता है।



Tuesday, May 12, 2020

शोध और अनुवाद की बढ़ती परस्परता


  
  
शोध और अनुवाद की बढ़ती परस्परता

आज का युग अंतर्राष्ट्रीयता एवं बहुभाषिकता का युग है। अंतर्राष्ट्रीयता विभिन्न देशों की संस्कृतियों, भाषाओं एवं भौगोलिक सीमाओं के बीच परस्पर आदान-प्रदान का केन्द्र बनी हुई है। विभिन्न देशों के बीच साहित्य के परस्पर अनुवाद ने इस सहभागिता को सुनिश्चित करने में अहम् भूमिका का निर्वाह किया है। यदि आज के इस युग को अनुवाद का युग कहा जाए तो अतिशोक्ति नहीं होगी। क्योंकि अनुवाद वह सशक्त माध्यम जिसके कारण एक भाषा, समाज, साहित्य एवं संस्कृति को नई पहचान मिलती है। अनुवाद के कारण आज वैश्विक स्तर पर अनेक ऐसे शोधकार्य हो रहे हैं। जिनका मूल देश या उसकी संस्कृति से कोई संबंध नहीं होता। शोधार्थी अपनी रुचि और क्षमता के अनुरुप अनूदित साहित्य के विषय का चुनाव करते हैं। अपनी क्षमता और ज्ञान के आधार पर वह एक नयी साहित्य कड़ी का निर्माण करते हैः जो भविष्य में साहित्य प्रेमियों के लिए वरदान की भांति होती है। हिंदी साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद, भारतेंदु, रांगेय राघव, श्रीधर पाठक समेत कई विद्वान ऐसी ही कड़ी के आरंभकर्ता हुए हैं।

     ज्ञान के विभिन्न विषय और क्षेत्र हैं। प्रत्येक क्षेत्र में शोध की संभावनाएँ भी पर्याप्त हैं। हिंदी साहित्य के अनुसंधान के लिए हिंदी भाषा, साहित्य, उसका इतिहास, प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक साहित्यिक प्रवृत्तियाँ एवं कवियों-लेखकों की उपलब्धियों के अतिरिक्त साहित्यशास्त्र आदि के विषय में जानना परमावश्यक है। अनुवाद जहाँ एक भाषा, समाज, संस्कृति, परिवेश और उसकी पंरपरा से परिचित कराता हैं, वहीं शोध इन अनूदित कृतियों पर शोधकार्य के लिए शोधार्थियों को निंरतर प्रेरित करता है। कारण, नई जिज्ञासाएँ नित नए प्रयोगों को पोषित करती हैं। फलतः आज एक भाषा का साहित्य विश्व की विभिन्न भाषाओं में बड़ी सहजता से मिल जाता हैं। जिस पर अध्ययन, अध्यापन और शोध आदि कार्य स्वतंत्र रुप से किये जा रहे हैं। इसका श्रेय अनुवाद को जाता है।

अनुवाद के विषय में विद्वानों के मतों में प्रायः भेद पाया जाता है। आचार्य भोलानाथ तिवारी के अनुसार अनुवाद का उत्पत्ति के पीछे यह भाव निहित रहा होगा—भाषा का जन्म व्यक्तियों में आपसी विचार-विनियम के प्रयत्न से हुआ तो अनुवाद का जन्म दो भाषा-भाषी व्यक्तियों या समुदायों में विचार-विनियम संभव बनाने के लिए। इसका आरंभ कदाचित ऐसे व्यक्तियों से हुआ होगा जो भाषा क्षेत्रों की सीमा पर रहने के कारण दो या अधिक भाषाओं के जानकार रहे होंगे तथा आवश्यकता पड़ने पर उन विभिन्न भाषाओं के व्यक्तियों के बीच दुभाषिये का काम करते रहे होंगे।[1]

     उपर्युक्त कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में व्यक्त करना ही अनुवाद है। परंतु यह कार्य दूर से जितना आसान लगता है उतना आसान है नहीं । अनुवाद की परिभाषा, अनुवाद शब्द का अर्थ समझना और समझाना एक बात है और अनुवाद करना दूसरी बात। अर्थात् अनुवाद का सैद्धांतिक पक्ष एक वस्तु है तो उसके व्यवहारिक पक्ष की अपनी कुछ समस्याएँ होती हैं।

अनुवाद शब्द संस्कृत की वद धातु में प्रत्यय एवं अनु उपसर्ग लगने से बना है। अनु उपसर्ग पीछे, बाद में आदि अर्थों का सूचक है जबकि संस्कृत की वद् धातु में प्रत्यय लगने से निर्मित वाद का अर्थ है— कथन, विचार-विमर्श, बोलना, भाषण आदि। इसका संयुक्त अर्थ है—  पहले कही गई बात को पुन: कहना है। अनुवाद के पर्यायों के रुप में हिंदी में तुर्जमा, उल्था, भाषातंरण, रुपातंरण, व्याख्या, पुनर्कथन, टीका एवं भाषानुवाद ग्रहण किये गये हैं। अंग्रेज़ी में translation शब्द को इसका पर्याय माना गया है। डॉ. पूरनचंद टंडन के अनुसार–अनुवाद मात्र भाषान्तरण नहीं, मन को जोड़ने और अजनबीपन तोड़ने का एक साधन है।

 शोध की बात करें तो शोध के तीन कार्य हैं। मानक हिंदी कोश के अनुसार शोध का अर्थ शुद्ध करना या बनाना है। दूसरा कमी, त्रुटियाँ आदि ठीक करना। तीसरा छिपी हुई रहस्यपूर्ण बातों की खोज करना है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अध्येता जब किसी विषय के संघटक अवयवों की खोज और विश्लेषण कर उसके रचना-रहस्य को प्रकाश में लाता है, उसका कार्य शोध है। उसका लक्ष्य विषय का रुप नहीं, विषय की रुप रचना है।[2]

शोध शब्द शुध धातु से घञ् (अ) प्रत्यय द्वारा निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है— संस्कार या शुद्धि या शोधन प्रकिया। अंग्रेजी में इसके लिए रिसर्ज; हिंदी में अनुशीलन, परिशीलन, अन्वेषण, खोज, गवेषणा एवं अनुसंधान हैं। जिनमें से सबसे अच्छा शोध का पर्याय अनुसंधान माना गया है।

शोध का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। जिसका प्रमाण अरस्तु द्वारा रचित एथेक्स का संविधान है, जिसको केवल अनुसंधान के द्वारा ही पाया जा सका है। पुराने जमाने में पंडित और शास्त्र-निष्णात बनने की जो धुन थीं वह आधुनिक युग के रिसर्च या शोध की इच्छा से थोड़ी भिन्न थी। विज्ञान के सुलभ साधनों ने ही उस अनासक्त उदार अध्ययन-निष्ठा को जन्म दिया है, जिसका आनुषंगिक फल आधुनिक विश्वविद्यालयों के शोध-प्रयत्न हैं।[3]

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार— शोध अनवरत रुप से चलने वाला कार्य है।

शोध और अनुवाद का संबंध

भारत में अनुवाद एवं शोध का रिश्ता भले ही बहुत पुराना न हो। परन्तु शोध एवंअनुवाद में बहुत सी समानताएँ हैं। अनुवाद में स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते हुए समतुल्य शब्द की खोज करनी होती है, वहीं शोध में खोज एक महत्त्वपूर्ण बिंदु की होती है। कभी-कभी तो शोध और खोज पर्याय भी माने जाते हैं। यही नहीं अनुवाद और शोध दोनों की एक ही प्रविधि है। जिससे अनुवादक और शोधकर्ता दोनों को गुजरना पड़ता है। इन दोनों का मुख्य लक्ष्य मूल संदेश को उसकी मूलत: सहित नवीन जानकारी के साथ पूरी निष्ठा से संप्रेषित करना।

अनुवाद और शोधदोनों ही साध्य नहीं साधन है। कारण, कोई भी अनुवाद अंतिम और सबसे बेहतर नहीं होता, उससे बेहतर होने की संभावना उसमें सदैव बनी रहती है। यही कहानी शोध के साथ भी है। एक विषय पर अनेक शोध होने के बावजूद उसमें बहुत कुछ नया खोजने और करने की संभावना सदैव रहती है। यही कारण है कि आज एक विषय पर बार-बार कुछ नवीनता के साथ शोधकार्य हो रहे हैं।

भारतीय शिक्षा में अनुवाद की भूमिका हमेशा से विद्यमान रही है। भारत के हर प्रदेश में शिक्षा के लिए अनुवाद की मदद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ली जाती रही है। विभिन्न राज्यों में ग्रंथ अकादमियाँ एवं राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार आदि ने भारतीय भाषाओ में मौलिक लेखन के साथ-साथ स्तरीय ग्रंथों का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया है। हिंदी के माध्यम से विश्वविद्यालय की स्तरीय पुस्तकों को प्रकाशित करने वाली प्रमुख संस्थाएँ हैं—
·       उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान,
·       मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी,
·       हरियाणा ग्रंथ अकादमी,
·       राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी,
·       हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय,
·       दिल्ली विश्वविद्यालय,
·       हिंदी माध्यम कक्ष,
·       बनारस हिंदु विश्वविद्यालय (विज्ञान संबंधी प्रकाशनों के लिए) और
·       पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय का प्रकाशन निदेशालय (कृषि एवं इंजीनियरी संबंधी प्रकाशनों के लिए)।
इनके अतिरिक्त भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद और अलीगढ़ विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए इतिहास पुस्तकों के अनुवाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

प्राइवेट प्रकाशन संस्थानों द्वारा प्रकाशित ग्रंथ भी काफी महत्त्वपूर्ण है। इनमें मोतीलाल बनारसीदास द्वारा प्रकाशित प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद एवं मैक्मिल द्वारा प्रकाशित सामाजिक विज्ञानों की पुस्तकों के हिंदी अनुवादों का उल्लेख किया जा सकता है। परंतु यह वह संस्थान है जिनका अनुवाद के जरिए शिक्षा में योगदान तो है। परंतु अकादमिक रूप में अनुवाद शिक्षा का उल्लेख हमें कम ही मिलता है।

भारत में दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, हैदराबाद विश्वविद्यालय, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, भारतीय अनुवाद परिषद, संस्कृत विद्यापीठ, भारतीय विद्यापीठ आदि कुछ संस्थान है। जहाँ पर अनुवाद का विधिवत पाठ्यक्रम है। दिल्ली विश्वविद्यालय में महज अनुवाद में डिप्लोमा है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनुवाद में मास्टर्स (निष्णात) का पाठ्यक्रम है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय', हैदराबाद विश्वविद्यालय में अनुवाद विषय पर शोधकार्य कराया जाता है। अनुवाद का पाठ्यक्रम हैदराबाद विश्वविद्यालय में अलग से न होकर आदिवासी विमर्श और अनुवाद विभाग के रूप में चलता है।

अनुवाद के विस्तृत क्षेत्र और उसमें शोध की बड़ी संभावनाओं को देखते हुए अनुवाद पर शोधकार्य बहुत-ही कम हुआ है। इस कमी की पूर्ति के लिए पूरी निष्ठा और लगन से अनुवाद में शोधकार्य को प्रोत्साहित करना होगा। अनुवाद क्षेत्र की विशालता के बावजूद वह उतना विकसित नहीं हुआ है, जितना होना चाहिए था। तुलनात्मक साहित्य जो अनुवाद की एक शाखा है या यूं कहें कि जिसका आधार ही अनुवाद है। उसका विकास तेजी से अवश्य हो रहा है। उस पर बहुत-सी किताबें भी लिखीं जा रहीं हैं। किंतु अनुवाद चिंतन और अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में श्रेष्ठ किताबों का पर्याप्त अभाव आज भी कायम है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय वर्धा में अनुवाद के क्षेत्र में शोध कराते हुए करीब एक दशक हो गया है। इस दौरान साहित्यिक अनुवाद, मशीनी अनुवाद, विज्ञापन अनुवाद, मीडिया अनुवाद और तुलनात्मक अनुवाद में शोध पंरपरा की शुरुआत तो हो चुकी है। परंतु अनुवाद के ज्यादातर क्षेत्रों- जैसे प्रशासानिक अनुवाद, व्यवसायिक अनुवाद, बैंकिग अनुवाद, डबिंग, पर्यटन, भाषाविज्ञान आदि में शोध की बहुत अधिक संभावना एवं ज़रुरत होने के बाद भी इस क्षेत्र में शोधकार्य का अभाव है या यूं कहें कि यह क्षेत्र शोध की दृष्टि से उपेक्षित है तो अतिश्योक्ति न होगी।

अनुवाद के क्षेत्र में शोध की इतनी अधिक संभावनाएँ होने बावजूद उसमें कम ही विषयों पर शोध होने के पीछे कई कारण हैं। जिनमें प्रथम तो अनुवाद का स्वयं शोध होना है। दूसरा इसी समस्या के कारण अनुवाद में शोध की परंपरा का अभाव है। तीसरा इस विषय पर बुनियादी पुस्तकों का अभाव है। चौथा, सबसे प्रमुख कारण, हर परिवेश में अनुवाद को हमेशा दोयम दर्जे का कार्य माना जाता रहा, इसे वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसका वह अधिकारी है। इसके साथ ही अनुवाद करते समय स्वयं अनुवादक को इतनी अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है कि शोधकर्ता को संबंधित विषय पर शोध करने से पूर्व बहुत अधिक हिम्मत जुटानी पड़ती है। कारण, यहाँ अनुवाद और शोध दोनों की समस्याओं से शोधार्धी को दो-चार होना पड़ता है। यही कारण है कि बेहतर अनुवाद और शोध दोनों का अभाव आज भी कायम है।

हिंदी में अनुवाद और शोध दोनों की परंपरा अत्यंत प्राचीन हैं। जहाँ कुछ नया करने की जिज्ञासा होती है। वहाँ अनेक प्रकार के नए-नए प्रयोगों, खोजों और अनुसंधान का होना भी स्वाभाविक है। इसी का परिणाम है कि आज से कई दशक पहले जब अनुवाद अपने व्यवस्थित रूप नहीं था, तब भी किसी-न-किसी रूप में अनुवाद होते थेः जो आज भी प्रशंसनीय और महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरणत: आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा अनूदित 1919 में हैकल के रिडिल्स ऑफ दि यूनिवर्स का विश्वप्रपंच, महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा अनूदित स्वाधीनता (1907), एजुकेशन का शिक्षा (1906) उल्लेखनीय है। भारतेंदु के अनुवाद भी इसी श्रेणी में आते हैं। उनके नाटक दुर्लभबन्दु(1880),‘विद्यासुंदर’,‘कर्पूरमंजरी(1876), विशाखादत्त, मुद्राराक्षस(1875), धंनजय-विजय1873(), रत्नावली(1868), पाखण्ड विडम्बन(1872) आदि। क्रमश: अंग्रेज़ी, बंग्ला, प्राकृत, संस्कृत आदि से अनूदित हैं। इनकी विषय-वस्तु इतनी अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रासांगिक है कि इन पर शोधकार्य खूब हो रहे हैं। किंतु बेहतर शोध आज भी गिने-चुने ही हैं।
जनसामान्य में प्रचलित अलिखित साहित्य के नामकरण के विषय में विद्वानों में प्राय:  मतभेद है। पं रामनरेश त्रिपाठी ने ऐसे साहित्य को ग्राम साहित्य से अभिहित किया है, तो डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे लोकवार्ता की संज्ञा दी है। लोकसाहित्य, लोकगीत, लोकगाथा, लोककथा, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, लोकनाट्य, अंधविश्वास और जनश्रुतियाँ आदि अनुवाद के विविध रूप हैं। एक ओर यह अनुवाद के लिए बेहद नए और रोचक विषय हैं, वहीं दूसरी ओर शोध के लिए भी स्वतंत्र संकल्पनाएँ हैं।
शोध एवं अनुवाद दोनों में संयम, संतुलन, धैर्य और निष्ठा की पूर्ण आवश्यकता होती है। शोधार्थी और अनुवादक को चाहिए कि वह जिस भी विषय पर शोधकार्य कर रहे हैं; वास्तविक अर्थों में वह उसकी आत्मा को आत्मसात् करके शोधकार्य करें। कारण, अनुवादक पूर्ण संयम और संतुलन के द्वारा ही किसी भी कृति का वास्ताविक भाव अनूदित पाठ में ला पाता है। इसमें विषय का पूर्णज्ञान और भावनिष्ठा उसके मार्ग में सहायक बनते हैं।
प्राचीन काल के साहित्यिक अनुवादों की भांति ही, समकालीन भारतीय साहित्य ने विश्व की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करके विश्व-संस्कृति एवं विश्व-साहित्य को समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरणत: टैगोर की गीतांजलि, प्रेमचंद के गोदान(1936), विभूति भूषण के पाथेर पांचाली, प्रसाद की कामायनी(1936), अज्ञेय के अपने-अपने अजनबी, गिरिश कर्नाड के तुग़लक, तकषी पिल्लै के चेम्मीनआदि के अनुवादों ने अनुवाद परंपरा को सुदृढ़ करने के साथ-साथ शोध-परंपरा को भी सुदृढ़ता प्रदान की है। इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण पेन (pen) हैः जो स्वयं में अनुवाद और एक बेहतर शोध का प्रमाण है।
शोध और अनुवाद में इतना सबकुछ होने के बावजूद, बहुत कुछ करना शेष है। आज जरूरत इस बात की है कि अनुवाद को मौलिक लेखन की तुलना में घटिया न समझकर उसे महत्त्वपूर्ण दर्जा दिया जाए। कारण, यह उससे कहीं ज्यादा कठिन कार्य है। इसमें अनुवादक को दो भाषाओं एवं संस्कृतियों को एक साथ लेकर चलना पड़ता है। जबकि मौलिक लेखन में मात्र एक भाषा का ज्ञान पर्याप्त होता है। अत: अनुवाद-कार्य को सामाजिक स्वीकृति और सम्मान दिलाना नितांत आवश्यक है। यह एक कड़वा सत्य है कि दुनिया की तुलना भारत में अनुवाद की स्थिति पिछड़ी है। किंतु यह हर्ष का विषय है कि यह अनुवाद की इस बिगड़ी स्थिति में समय के साथ निंरतर सुधार हो रहा है।
आज के इस प्रतियोगिकतावादी युग में अनुवाद जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर शोधकार्य की नितांत आवश्यकता है। शोधकार्य के दौरान जो भी दिशा-निर्देश दिए जाते हैं वह अनुवादकों का मार्गदर्शन करते हैं। इन्हीं मूल्यों के कारण सवौत्तम अनुवाद और शोधकार्य दोनों को गति प्राप्त होती है।    
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शोध और अनुवाद के स्वरूप, प्रविधि और समस्याओं में बहुत समानता है परंतु यह दो अलग कार्य हैं। आज इन दोनों की माँग और उपयोगिता निरंतर बढ़ रही है। जहाँ एक ओर अनुवाद के बिना विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती। वहीं दूसरी ओर शोध के बिना विश्व बहुत से महत्त्वपूर्ण तत्त्वों की उपयोगिता और महत्त्व से वंचित रह जाएगा। अनुवाद के क्षेत्र में शोधकार्य की उपयोगिता एवं महत्त्वता इस बात से सिद्ध होती है कि अनूदित साहित्य ने मात्र संपूर्ण समाज के एक-दूसरे से जोड़ा ही नहीं है। अपितु संपूर्ण विश्व को परिवारिक इकाई में बदल दिया है। आज भारत के प्रेमचंद, भारतेंदु, जैनेंद्र कुमार, निराला आदि संपूर्ण विश्व के अपने हैं।
भारतीय मनीषा का यह एक विचित्र अभाव है कि जहाँ एक ओर उसने साहित्य-सृजन पर बड़े विस्तार और गहराई से विचार किया है, वहीं पुन:सृजन (अनुवाद) कभी उसके चिंतन-मनन की परिधि में प्रवेश पाने का गौरव नहीं पा सका है। कारण, अनुवाद और शोध दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। जहाँ अनुवाद अपरिचित से परिचित कराता है, वहीं शोध विषय में निहित तथ्यों के अतिरिक्त उससे संबंधित अन्य नवीन तथ्यों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है।
वसुधैव कुटुम्बकम् के भारतीय आदर्श के साथ अनुवाद अन्य क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण होते हुए भी उपेक्षित की भांति अलग-थलग है। किंतु साहित्यिक क्षेत्र में अपना महत्त्व निर्विवाद रखता है।
अनुसंधान में अनुवाद की भूमिका सचमुच नई है। शिक्षा के क्षेत्र में, विशेषकर अंग्रेज़ी भाषा शिक्षण में तो अनुवाद के अनेक उपयोग पहले से ही व्यापक स्तर पर हो रहे हैं और भाषा शिक्षण तथा कक्षा-अध्यापन को और अधिक सशक्त बनाने में इसे एक आवश्यक संसाधन के रूप में स्वीकृत किया गया है। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता के सेतु के रूप में अनुवाद की भूमिका अधिक प्रासांगिक और संगत प्रतीत होती है।
          इस प्रकार यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विश्वभर में अनेक आन्दोलनों का सूत्रपात और उनकी सफलता का श्रेय अनुवाद को ही जाता है। अनुवाद की प्रभावी भूमिका के विषय में आचार्य वूल्फ का मत है— रूपान्तरणीय शोध (TRANSLATIONAL RESEARCH) को वास्तविक जीवन से जोड़ने का कार्य अनुवाद ही करता है। जबकि सुरेश कुमार अनुवाद कार्य को अनुसंधान प्रवृत्ति का कार्य मानते हैं। उनका मत है कि अनुवाद गतिविधि में अनेक विषय विशेषज्ञों एवं अलग-अलग राष्ट्रीयता के लोगों की सहभागिता होती है। जिसमें विभिन्न मनोवृत्तियां आपस में संघर्ष करती हैं। इस संघर्ष से नए विषय प्रकट होते हैं जो अनुसंधान की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। अंतत: भारतीय मनीषा के संपूर्ण विकास के लिए इन दोनों क्षेत्रों में पर्याप्त परिश्रम करना अभी भी शेष है।
संदर्भ गंर्थसूची
1. राजूरकर, भ.ह. एवं राजमल बोरा (संपा), हिंदी अनुसंधान का स्वरुप, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, मुद्रित।
2. सिन्हा, सावित्री एवं डॉ. विजयेन्द्र स्नातक (संपा), अनुसंधान की प्रकिया, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1991, मुद्रित।
3. सिंहल, बैजनाथ, शोध: स्वरुप एवं मानक कार्यविधि, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, मुद्रित।
4. सिंहल, डॉ. सुरेश, अनुवाद की संवेदना और सरोकार, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, मुद्रित।
5. तिवारी, भोलानाथ, अनुवाद विज्ञान, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, मुद्रित।
6. चतुर्वेदी, मा. एवं कृष्णकुमार गोस्वामी, अनुवाद: विविध आयाम, केंद्रिय हिंदी निदेशालय. आगरा, मुद्रित।
7. नगेन्द्र डॉ, अनुवाद विज्ञान सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निर्देशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, मुद्रित।
8. गोस्वामी, कृष्णकुमार, अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2008, मुद्रित।     




1 तिवारी, भोलानाथ, अनुवाद विज्ञान, पृष्ठ-165
                                                                                                          
2 सिंघल, डॉ. सुरेश, अनुवाद संवेदना और संस्कार पृष्ठ-1
3 सिन्हा, सावित्री (डॉ), विजयेन्द्र स्नातक, अनुसंधान की प्रकिया, पृष्ठ-48


Saturday, May 9, 2020

निराला पर लेख




क्रांतिकारी निराला साहित्य में स्त्री विमर्श

प्रत्येक मानवतावादी व्यक्ति सकारात्मक शक्ति के संपर्क में शीघ्र ही आ जाता है। जिसकी अमर झलक उसके संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व में स्पष्ट दिखती है। ऐसे ही मानवीय मूल्यों एवं संवेदनशीलता से परिपूर्ण महाकवि निराला थे। उनके जीवन पर इन मूल्यों का प्रभाव इतना गहरा था कि उसकी प्रखर अभिव्यक्ति उनके साहित्य में बड़ी सहजता से देखी जा सकती है। समाज हितैषी रामकृष्ण परमहंस, रवींद्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद जैसे मनीषियों के चिंतन से प्रभावित एवं उनके प्रति अनन्य आस्था रखने वाले मानवतावादी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला उद्तीप्त सूर्य की भांति हिंदी साहित्य में आज भी दैदीप्यमान हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी निराला वास्तव में निराले ही थे। उन्होंने अपने समय की हर समस्या को न केवल साहित्य का विषय बनाया, बल्कि उसे सशक्त अभिव्यक्ति भी दी।

निराला ने तत्कालीन समाज में व्याप्त साम्राज्यवादी शक्तियों के अमानवीय दृष्टिकोण और आर्थिक शोषण को अपने साहित्य में मुखरित किया। सामंतवादी सत्ता के प्रतीक जमींदार, ताल्लुकेदार, देशी रजवाड़े और महाजन आदि के शोषण चक्र में पिसते किसानों की दुर्दशा का चित्रण अपने साहित्य में किया। वह वर्ण-व्यवस्था और छुआछूत के विरुद्ध आव़ाज उठाना, जातिवाद का प्रबल विरोध, मानवतावाद की प्रतिष्ठा और दलितों-उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते थे। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर निराला का स्त्रियों के प्रति कैसा दृष्टिकोण था, क्या वह पितृसत्तात्मक सत्ता के प्रतिनिधि थे? या शताब्दियों से पीड़ित स्त्री के प्रति उदारवादी थे या नहीं।
            

स्त्रियों से संबंधित अनेकानेक प्रश्नों का उत्तर उनके साहित्य में अनायास ही मिल जाता है। निराला-साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि पितृसत्तात्मक आचार-संहिता की यातना की शिकार नारी की दर्दनाक स्थिति का अनुभुव वह बहुत पहले ही कर चुके थे; जो स्त्री-विमर्श आज साहित्य का प्रमुख विषय बन हुआ है। उससे भी अधिक संतुलित स्त्री-विमर्श की उपस्थिति निराला साहित्य में मिलती है। निराला ने स्त्री-विमर्श को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल प्रस्तुत किया है। जिसमें स्त्री पुरुषों के विरुद्ध नहीं, उसकी संगीनी है जो उसके साथ कंधे से कंधा मिलकर हर स्थिति का सामना करती है। अर्थात् दोनों की समानता पर बल दिया।


निराला अपने साहित्य में केवल समस्याओं को ही नहीं, उनका ठोस समाधान भी वह प्रस्तुत करते चले हैं। निराला ने सही अर्थों में स्त्री-विमर्श की चर्चा की है। किंतु आज जिस स्त्री-विमर्श की चर्चा है, वह कभी तो पाश्चत्य का अंधानुकरण लगता है, तो कभी नारी-देह की अभिव्यक्ति मात्र। वर्तमान स्त्री-विमर्श में स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी या वैरी से दिखाई देते हैं, जबकि सत्य एकदम इसके विपरीत है। स्त्री और पुरुष दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरा पूर्णतः अधूरा है। इस सत्य की संगति निराला साहित्य स्पष्ट होती है।

नवीनता को उद्घाटित करने वाले निराला का साहित्य सही अर्थों में स्त्री-विमर्श का साहित्य है। उन्होंने पुरुष को स्त्री का दुश्मन नहीं कहा, बल्कि स्त्री-विमर्श के आधारभूत चिंतन के द्वारा उसकी शिक्षा के विषय में अपना बुलंद स्वर प्रकट किया है। स्त्री-शिक्षा के विषय में उनका मत था कि यदि स्त्री को उचित प्रकार से शिक्षित किया जाए तो वह हर प्रकार की गुलामी एवं परतंत्रता से मुक्त हो सकती है। मुक्ति की इस कामना को आधार बनाकर उन्होंने यह मत प्रकट किया—शिक्षित महिलाएँ ही अविवेक और परतंत्रता के अंधकार को दूर करके स्वतंत्र व्यक्तित्व का निर्माण कर सकती हैं। शिक्षा ही स्त्रियों में स्वतंत्र, तेजस्वी, मेधावी बालक-बालिकाओं को जन्म देंगी। [1]

यदि स्त्री सदियों से गुलाम रहीं तो उसका एकमात्र कारण यही है कि उसे पूर्वनियोजित षड्यंत्र के अंतर्गत शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया। अपने साहित्य के माध्यम से वह स्त्री-शिक्षा के लिए अत्यंतावश्यक प्रयास की बात प्रखर करते रहे। इस स्वर में स्त्री-विमर्श पर बहुत बल दिया, जो निराला की रचनाओं में सहज, स्वाभाविक रूप में दिखता है। स्त्री के चहुँमुखी विकास के लिए स्त्री की स्वतंत्रता को आवश्यक मानते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा— महिलाओं की स्वतंत्रता ही उनके जीवन की सब दिशाओं का विकास करेगा। हमें सिर्फ स्वतंत्रता का स्वरूप बतलाना है।[2]

स्वतंत्रता के इस विचार की अभिव्यक्ति उनके अलका नामक उपन्यास की नायिका अलका के रूप में देखा जा सकता है। अलका नारी स्वातंत्र्य की प्रतिमा है। वह जमींदार मुरलीधर का डटकर मुकाबला करते हुए स्वयं को उसकी वासना का शिकार होने से बचाती है। इस बचाव में वह उसे गोली तक मारने से पीछे नहीं हटती। निराला साहित्य के माध्यम स्त्री-स्वातंत्र्य के लिए ऐसा मार्गदर्शन करते हैं। जिससे प्रेरित होकर वर्तमान में स्त्री-विर्मश नामक नवीन मुहिम चलायी जा रही है। ताकि स्त्रियों को उनके हिस्से का मान-सम्मान दिलाया जा सके।

निराला स्त्री-स्वतंत्रता का हनन करने वाले पुरुष के स्वार्थपूर्ण अधिकारों का विरोध करते हैं। वह सुहाग-चिह्नों को धारण करने वाले सिंदूर, बिंदी, बिछुवे, मंगलसूत्र आदि को नारी-परतंत्रता का विषय मानते हैं। उनकी दृष्टि में सुहाग को प्राण समझकर, उसके चिह्नों को धारण करना, स्त्रियों के लिए सम्मानजनक कदापि नहीं हो सकता। उनके अलका नामक उपन्यास की स्त्री-पात्र सावित्री बिंदी, सिंदूर और चूड़ी कभी नहीं पहनती। आज स्त्री-विमर्श की जो आवाज़ का उठाती है, वैसी आवाज़ निराला दर्शकों पहले ही मुखरित कर चुके थे।

महाकवि निराला के संदर्भ में एक बात ध्यातव्य है कि यद्यपि वह स्त्री-स्वातंत्र्य के पक्षधर थे। परंतु वह स्वतंत्रता के अंधानुकरण के समर्थक कदापि नहीं। वह भारतीय नारी का पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध से अभिभूत हो जाना भी बहुत बुरा मानते थे। वह भारतीय-पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के संतुलन के पक्षपाती थे। वह इतना अवश्य चाहते थे कि उनकी स्त्रियाँ अन्याय का प्रतिकार करने में सक्षम बने। कठोर बंधनों और रुढ़ियों को तोड़ने का साहसपूर्ण उद्योग कर पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में सक्रिय रहें।

निराला प्रेम और विवाह के संबंध में महिलाओं को पूर्णतः स्वतंत्र देखना चाहते हैं। जिसका प्रमाण उनके उपन्यास निरुपमा के कथन में दिखाई देता है। इस उपन्यास में वरपक्ष कन्या को जितनी बार चाहे देख सकता है। किंतु कन्या को इसकी आजादी नहीं। हर स्थिति में वर वरेण्य ही होगा। इस उपन्यास में नायिका के लिए यामिनी बाबू मनोनीत नहीं, जिससे वह विवाह करना चाहती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वह स्त्री-पुरुष के उन्मुक्त प्रेम पर बल देने वाले जातिगत संकीर्णताओं के विरोधी, मानवतावादी लेखक थे। निराला ने अपने समय के साहित्य और समाज का गहन अध्ययन, चिंतन एवं मनन किया। तब वह इस तथ्य पर पहुँचे कि आज स्त्री की जो दीन-हीन दशा है। उसका उत्तरदायित्व मुल्लाओं और पंडितों पर है। अतः अपने साहित्य द्वारा वह इनके प्रति अपना विरोध प्रकट करते हैं।

नारी दुर्दशा का एक बड़ा कारण आर्थिक परावलंबन है। इस भाव को केंद्र में रखकर निराला, पुरुषों पर निर्भर होने के कारण ही स्त्रियों को असंख्य अत्याचार सहने की घटना प्रकट करते हैं। यदि उनमें स्वावलंबन आ जाए, तो पुरुष की श्रेष्ठता का भाव स्वयंमेव समाप्त हो जाएगा। नारी को दयनीय एवं पराधीन बनाने वाली अमानवीय शक्तियों के विरुद्ध उन्होंने सशक्त स्वर में कहा है- जब तक हमारी गृह देवियाँ लक्ष्मी और सरस्वती बनकर हमारे जीवन के गृह अंधकार को दूर नहीं करतीं, तब तक हम अपने जीवन में सुख और किसी भी प्रकार की शक्ति के विकास की कामना नहीं कर सकते।  निराला की दृष्टि में जब तक हमारे घर की बहन-बेटी आंसू बहाती रहेगी, तब तक हम विजय नहीं हो सकते। इस पर वह कहते हैं— स्त्रियों को उत्साह देने से पुरुषों में कितनी बड़ी शक्ति का जागरण हो सकता है।[3]

निराला हर क्षेत्र में नवीन स्वर को लाने वाले साहित्यकार थे। उनकी दृष्टि में महिला को हर मुक्ति के लिए कुंठित बंधनों से मुक्त करना आवश्यक है। इसलिए वह स्त्री को हर प्रकार की ग्रंथियों एवं बाधाओं से मुक्त करने की अभिलाषा इन पंक्तियों में व्यक्त करते हैं[4]

नहीं लाज, भय, अनृत, अनय, दुःख,
लहराता उर मधुर प्रणय सुख,
अनायास ही ज्योतिर्मय मुख, स्नेह-पाश-कसना

निराला स्त्री स्वतंत्रता की मुहिम पर आकर ठहरे नहीं। इसके बाद उन्होंने बाल-विवाह और दहेज-प्रथा पर प्रकाश डाला। विवाह की महत्ता के विषय में कहा— विवाह एक ऐसा शब्द है जो स्वयं स्त्री-स्वतंत्रता का द्योतक है, इसके लिए स्त्री-पुरुष की स्वतंत्र शक्ति उत्तरदायी है। बालक-बालिका इस शब्द की सार्थकता नहीं करते। विशेष रूप से इस शक्ति को वहन करने का अधिकार उसी पुरुष एवं स्त्री को है। जिसका पूरा-पूरा विकास हो चुका हो, जो संसार समझ गए हैं और अपनी इच्छा से एक-दूसरे से मिलकर, एक-दूसरे का उत्तरदायित्व लेते हुए धर्म, नीति और समाज की उचित भावनाओं को स्वतंत्र वृत्ति से ढोने के लिए तैयार हैं।[5]

विवाह जैसे पवित्र संबंध में दहेज प्रथा को निराला ने नासूर माना है, जो आज भी रिस रहा है। गरीब पिता के घर कन्या का जन्म लेना अभिशाप है। जिसकी विवशता को व्यक्त करते हुए निराला ने कहा—

ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार।
खाकर पत्तल में करें छेद
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषम-बेलि में विष ही फल।

निराला विधवा पुर्नविवाह की जोरदार वकालत करते हैं। जहाँ विधवा को दोबारा विवाह का अधिकार नहीं, वहीं पुरुष कई विवाह कर सकता है। समाज की इस दोहरी नैतिकता के वह सदा विरोधी रहे— उनकी दृष्टि में जहाँ पुरुष जब चाहे  अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अनेक विवाह कर सकता है। लेकिन स्त्री को पति की मृत्यु के बाद भी पुर्नविवाह का अधिकार नहीं। यह गलत ही नहीं अपराध है। इस दोहरी नैतिकता का विरोध वह अलका नामक उपन्यास में अजित से विधवा वीणा का विवाह कराकर करते हैं। इस ज्योतिर्मयी कहानी में एक ऐसी विधवा को प्रस्तुत किया है। जिसने प्रेम को पति की मृत्यु के पश्चात् भी प्राप्त पुर्नविवाह करके प्राप्त किया। वह स्त्री की विवशता और गुलामी के लिए जिम्मेदार पुरुष समाज का प्रखर विरोध करती है।

उनके लिए सामान्य स्त्री तो सम्माननीय है ही, वेश्या को भी वह हेय और त्याज्य नहीं समझते। पतित समझी जाने वाली वेश्या में वह स्त्री-गरिमा के दर्शन करते हैं। क्या देखा कहानी में हीरा नामक वेश्या के त्यागपूर्ण जीवन का वर्णन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

वर्तमान समय में कन्या-भ्रूण हत्या भीषण समस्या के रूप व्याप्त है। निरंतर नर और नारी का असंतुलन बढ़ता जा रहा है। विभिन्न कारणों से समाज कन्या-भ्रूण-जन्म रोकने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा है। ऐसे समाज में पिता द्वारा पुत्री की मृत्यु पर विलाप करना, अपना पितृत्व की निरर्थकता का अनुभव कर उसे कविता के रूप में व्यक्त करना स्त्री के प्रति उनके उदार हृदय का साक्षात्कार है। जिसे महाप्राण निराला सरोज-स्मृति में व्यक्त करते हैं—

धन्य में पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित कर न सका
जाना तो अर्थागमोपाय
पर सदा रहा संकुचित काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर

निराला की दृष्टि पुत्र-पुत्री में कोई अंतर न करते हुए दोनों को समान समझती है।
यद्यपि भारतीय समाज में पिता की मृत्यु के बाद तर्पण का अधिकार पुत्र को है। किंतु निराला इस मान्यता को बिलकुल नहीं मानते। उनके लिए पुत्री-पुत्र के समान ही महत्त्वपूर्ण है। उसे भी पिता का तर्पण करने का अधिकार होना चाहिए।  

स्त्री-विमर्श का आधार स्त्री-पुरुष की समानता पर पर्याप्त बल देता है। क्योंकि नर-नारी की समानता के अभाव में मानव-समानता का सपना साकार नहीं हो सकता। वह नारी जागरण के समर्थक में नारी के समर्पण का अनुचित लाभ उठाने वाले पुरुष का भर्त्सनापूर्ण विरोध करते हैं। वह स्त्री को शक्ति का प्रतीक मानते हैं, तभी तो वह ज्ञान की देवी सरस्वती से विनती करते हैं कि ज्ञान का नवीन प्रकाश कर संसार को नई गति प्रदान करे।

वर दे वीणा वादिनी वर दे
प्रिय स्वतंत्र नव अमृत मंत्र नव भारत में भर दे
वर दे वीणा वादिनी दे वर दे
चीर स्वतंत्र नव अमृत          

स्त्री का मातृ रूप सदा से ही सम्मान का अधिकारी रहा है। किंतु पत्नी रूप में स्त्री की स्थिति में परिवर्तन हो रहा है। निराला पत्नी रूप का भी सम्मान करते हैं। वह स्त्री को मातृत्व की अतुलनीय शक्ति समझते हैं। जिसने संपूर्ण मानव-सृष्टि का सर्जन किया है। अपनी तुलसीदास नामक कविता में उन्होंने पत्नी के इसी शक्तिपूर्ण और प्रेरणादायक स्वरूप का सशक्त वर्णन किया है।

तुलसीदास के परिवेश द्वारा निराला ने अपने समय को व्यंजित किया है। अपने परिवेश से जैसे द्वंद्व का सामना तुलसीदास ने किया, वैसा ही निराला को भी करना पड़ा। निराला ने तुलसीदास में मध्यकालीन जीवन-मूल्यों एवं अपने आधुनिक-चिंतन के रचनात्मक द्वंद्व से पंरपरा को परिमार्जित कर एक नई अर्थवत्ता प्रकट की है।

इस प्रकार निराला ने अपने साहित्य द्वारा शताब्दियों से चली आ रही गुलामी की जंजीरों को उतार फैंककर लोकसामान्य की दुर्दशा का निवारण आँसू बहाने से न होने की बात की है। इसके लिए वह उनका आत्मनिर्भर होना आवश्यक मानते हैं। स्त्रियों को भी अपनी अबला छवि को दूर कर अपने अधिकारों और अस्मिता के लिए सशक्त आवाज़ बुलंद करनी होगी। ताकि यह क्रूर समाज नारी शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाए। उन्हें दूसरों को अपनी आँखों से देखना होगा न कि स्वयं को दूसरों की आँखों से। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब स्त्री स्वतंत्र और सुखी होगी; तभी समाज और संपूर्ण देश सुखी एवं संपन्न होगा। यदि वह पद-दलित रहेगी तो राष्ट्र भी दरिद्रता से भरा रहेगा।

छायावाद के दृढ़ लौह-स्तंभ निराला के साहित्य में स्त्री के प्रति उनकी दृष्टि सच्ची मानवतावादी दृष्टि है। उनके सभी नारी-पात्र शोषणकारी की बेड़ियों को तोड़कर स्वतंत्र वातावरण में साँस लेने को तत्पर हैं। शिक्षित नारी-पात्र अशिक्षित बहनों की साक्षरता की जिम्मेदारी उठाकर देश के विकास में योगदान करती दिखाई देती है। अंततः निराला समाज में व्याप्त नारी वेदना का साक्षात स्वरूप प्रकट कर रहे हैं।

संदर्भ ग्रंथसूची   
  • सिंह, केदारनाथ, कल्पना और छायावाद, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996  
  • गौतम, सुरेश, छायावाद का उत्तररागः राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य, आलोकपर्व प्रकाशन, दिल्ली, 1997।   
  • डॉ, नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा।   
  •  डॉ राय, सच्चिदानंदन, हिंदी उपन्यास सांस्कृतिक एवं मानववादी चेतना, राजीव प्रकाशन, इलाहाबाद।   
  •  डॉ. अय्यादत पांडेय, छायावादी काव्य में लोकमंगल की भावना, प्रेम प्रकाशन मंदिर, दिल्ली-110066. 
  •  समाज और महिलाएँ, टिप्पाणी, निराला रचनावली, भाग-6, पृ-315 ।
  • डॉ. आलोक कुमार रस्तोगी, हिंदी साहित्य का इतिहास, द्वितीय खण्ड, प्रेम प्रकाशन मंदिर, प्रथम संस्करण, 1988, दिल्ली-110068.
  •  बाहरी स्वतंत्रता, निबंध, निराला रचनावली, भाग-6.    
  • कौन हो तुम शुभ्र किरण-वसना, निराला रचनावली, भाग-1, पृ-221
           

[1]  समाज और महिलाएँ, टिप्पाणी, निराला रचनावली, भाग-6, पृ-315
[2]  वही, पृ-375
[3]   बाहरी स्वतंत्रता, निबंध, निराला रचनावली, भाग-6
[4]   कौन हो तुम शुभ्र किरण-वसना, निराला रचनावली, भाग-1, पृ-221
[5]   निराला रचनावली, भाग-6, पृ-449