शोध और अनुवाद
की बढ़ती परस्परता
आज का युग अंतर्राष्ट्रीयता एवं
बहुभाषिकता का युग है। अंतर्राष्ट्रीयता विभिन्न देशों की संस्कृतियों, भाषाओं एवं
भौगोलिक सीमाओं के बीच परस्पर आदान-प्रदान का केन्द्र बनी हुई है। विभिन्न देशों
के बीच साहित्य के परस्पर अनुवाद ने इस सहभागिता को सुनिश्चित करने में अहम्
भूमिका का निर्वाह किया है। यदि आज के इस युग को अनुवाद का युग कहा जाए तो
अतिशोक्ति नहीं होगी। क्योंकि अनुवाद वह सशक्त माध्यम जिसके कारण एक भाषा, समाज,
साहित्य एवं संस्कृति को नई पहचान मिलती है। अनुवाद के कारण आज वैश्विक स्तर पर
अनेक ऐसे शोधकार्य हो रहे हैं। जिनका मूल देश या उसकी संस्कृति से कोई संबंध नहीं
होता। शोधार्थी अपनी रुचि और क्षमता के अनुरुप अनूदित साहित्य के विषय का चुनाव
करते हैं। अपनी क्षमता और ज्ञान के आधार पर वह एक नयी साहित्य कड़ी का निर्माण
करते हैः जो भविष्य में साहित्य प्रेमियों के लिए वरदान की भांति होती है। हिंदी
साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद, भारतेंदु, रांगेय राघव, श्रीधर पाठक
समेत कई विद्वान ऐसी ही कड़ी के आरंभकर्ता हुए हैं।
ज्ञान के विभिन्न विषय और क्षेत्र हैं। प्रत्येक क्षेत्र में शोध की
संभावनाएँ भी पर्याप्त हैं। हिंदी साहित्य के अनुसंधान के लिए हिंदी भाषा,
साहित्य, उसका इतिहास, प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक साहित्यिक प्रवृत्तियाँ एवं
कवियों-लेखकों की उपलब्धियों के अतिरिक्त साहित्यशास्त्र आदि के विषय में जानना
परमावश्यक है। अनुवाद जहाँ एक भाषा, समाज, संस्कृति, परिवेश और उसकी पंरपरा से
परिचित कराता हैं, वहीं शोध इन अनूदित कृतियों पर शोधकार्य के लिए शोधार्थियों को
निंरतर प्रेरित करता है। कारण, नई जिज्ञासाएँ नित नए प्रयोगों को पोषित करती हैं।
फलतः आज एक भाषा का साहित्य विश्व की विभिन्न भाषाओं में बड़ी सहजता से मिल जाता
हैं। जिस पर अध्ययन, अध्यापन और शोध आदि कार्य स्वतंत्र रुप से किये जा रहे हैं।
इसका श्रेय अनुवाद को जाता है।
अनुवाद के विषय
में विद्वानों के मतों में प्रायः भेद पाया जाता है। आचार्य भोलानाथ तिवारी के
अनुसार अनुवाद का उत्पत्ति के पीछे यह भाव निहित रहा होगा—“भाषा का जन्म व्यक्तियों में आपसी विचार-विनियम के प्रयत्न से हुआ तो
अनुवाद का जन्म दो भाषा-भाषी व्यक्तियों या समुदायों में विचार-विनियम संभव बनाने
के लिए। इसका आरंभ कदाचित ऐसे व्यक्तियों से हुआ होगा जो भाषा क्षेत्रों की सीमा
पर रहने के कारण दो या अधिक भाषाओं के जानकार रहे होंगे तथा आवश्यकता पड़ने पर उन
विभिन्न भाषाओं के व्यक्तियों के बीच दुभाषिये का काम करते रहे होंगे।”
उपर्युक्त कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि एक भाषा में कही गई बात को
दूसरी भाषा में व्यक्त करना ही अनुवाद है। परंतु यह कार्य दूर से जितना आसान लगता
है उतना आसान है नहीं । अनुवाद की परिभाषा, अनुवाद शब्द का अर्थ समझना और समझाना
एक बात है और अनुवाद करना दूसरी बात। अर्थात् अनुवाद का सैद्धांतिक पक्ष एक वस्तु
है तो उसके व्यवहारिक पक्ष की अपनी कुछ समस्याएँ होती हैं।
“अनुवाद” शब्द संस्कृत की “वद” धातु में “घ” प्रत्यय एवं “अनु” उपसर्ग लगने से बना है। “अनु” उपसर्ग पीछे, बाद में आदि अर्थों का सूचक है जबकि संस्कृत की “वद्” धातु में “घ” प्रत्यय लगने से निर्मित “वाद” का अर्थ है— कथन, विचार-विमर्श, बोलना, भाषण आदि। इसका संयुक्त
अर्थ है— पहले कही गई बात को पुन: कहना है। अनुवाद के पर्यायों के रुप में हिंदी में तुर्जमा, उल्था,
भाषातंरण, रुपातंरण, व्याख्या, पुनर्कथन, टीका एवं भाषानुवाद ग्रहण किये गये
हैं। अंग्रेज़ी में translation शब्द को इसका पर्याय माना गया है। डॉ. पूरनचंद टंडन के अनुसार–“अनुवाद मात्र भाषान्तरण नहीं, मन को जोड़ने और अजनबीपन तोड़ने का एक साधन
है।”
‘शोध’ की
बात करें तो शोध के तीन कार्य हैं। ‘मानक हिंदी कोश’ के अनुसार ‘शोध’ का अर्थ ‘शुद्ध करना या बनाना है। दूसरा कमी, त्रुटियाँ आदि ठीक करना। तीसरा छिपी
हुई रहस्यपूर्ण बातों की खोज करना’ है। इस प्रकार हम कह सकते
हैं कि “अध्येता जब किसी विषय के संघटक अवयवों की खोज और
विश्लेषण कर उसके रचना-रहस्य को प्रकाश में लाता है, उसका कार्य शोध है। उसका
लक्ष्य विषय का रुप नहीं, विषय की रुप रचना है।”
‘शोध’ शब्द ‘शुध’ धातु से ‘घञ्’ (अ) प्रत्यय द्वारा निष्पन्न होता है जिसका
अर्थ है— संस्कार या शुद्धि या शोधन प्रकिया। अंग्रेजी में इसके लिए ‘रिसर्ज’; हिंदी में अनुशीलन, परिशीलन,
अन्वेषण, खोज, गवेषणा एवं अनुसंधान हैं। जिनमें से सबसे अच्छा शोध का पर्याय
अनुसंधान माना गया है।
शोध का क्षेत्र
अत्यंत व्यापक है। जिसका प्रमाण अरस्तु द्वारा रचित ‘एथेक्स का संविधान’ है, जिसको केवल अनुसंधान के
द्वारा ही पाया जा सका है। पुराने जमाने में पंडित और शास्त्र-निष्णात बनने की जो
धुन थीं वह आधुनिक युग के रिसर्च या शोध की इच्छा से थोड़ी भिन्न थी। ‘विज्ञान के सुलभ साधनों ने ही उस अनासक्त उदार अध्ययन-निष्ठा को जन्म दिया
है, जिसका आनुषंगिक फल आधुनिक विश्वविद्यालयों के शोध-प्रयत्न हैं।’
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के
अनुसार— “शोध अनवरत रुप से चलने वाला कार्य है।”
शोध और अनुवाद
का संबंध
भारत में अनुवाद एवं शोध का रिश्ता भले
ही बहुत पुराना न हो। परन्तु ‘शोध’ एवं ‘अनुवाद’ में बहुत सी समानताएँ हैं। अनुवाद में स्रोत
भाषा से लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते हुए समतुल्य शब्द की खोज करनी होती है, वहीं
शोध में खोज एक महत्त्वपूर्ण बिंदु की होती है। कभी-कभी तो ‘शोध’ और ‘खोज’ पर्याय भी माने जाते
हैं। यही नहीं अनुवाद और शोध दोनों की एक ही प्रविधि है। जिससे अनुवादक और
शोधकर्ता दोनों को गुजरना पड़ता है। इन दोनों का मुख्य लक्ष्य मूल संदेश को उसकी
मूलत: सहित नवीन जानकारी के साथ पूरी निष्ठा से संप्रेषित
करना।
‘अनुवाद और शोध’ दोनों ही साध्य नहीं साधन है। कारण,
कोई भी अनुवाद अंतिम और सबसे बेहतर नहीं होता, उससे बेहतर होने की संभावना उसमें
सदैव बनी रहती है। यही कहानी शोध के साथ भी है। एक विषय पर अनेक शोध होने के
बावजूद उसमें बहुत कुछ नया खोजने और करने की संभावना सदैव रहती है। यही कारण है कि
आज एक विषय पर बार-बार कुछ नवीनता के साथ शोधकार्य हो रहे हैं।
भारतीय शिक्षा
में अनुवाद की भूमिका हमेशा से विद्यमान रही है। भारत के हर प्रदेश में शिक्षा के
लिए अनुवाद की मदद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ली जाती रही है। विभिन्न राज्यों
में ग्रंथ अकादमियाँ एवं राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल बुक
ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार आदि ने भारतीय
भाषाओ में मौलिक लेखन के साथ-साथ स्तरीय ग्रंथों का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया
है। हिंदी के माध्यम से विश्वविद्यालय की स्तरीय पुस्तकों को प्रकाशित करने वाली
प्रमुख संस्थाएँ हैं—
·
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान,
·
मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी,
·
हरियाणा ग्रंथ अकादमी,
·
राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी,
·
हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय,
·
दिल्ली विश्वविद्यालय,
·
हिंदी माध्यम कक्ष,
·
बनारस हिंदु विश्वविद्यालय (विज्ञान संबंधी प्रकाशनों के
लिए) और
·
पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय का प्रकाशन निदेशालय (कृषि एवं
इंजीनियरी संबंधी प्रकाशनों के लिए)।
इनके अतिरिक्त
भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद और अलीगढ़ विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए इतिहास
पुस्तकों के अनुवाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
प्राइवेट
प्रकाशन संस्थानों द्वारा प्रकाशित ग्रंथ भी काफी महत्त्वपूर्ण है। इनमें मोतीलाल
बनारसीदास द्वारा प्रकाशित प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद एवं मैक्मिल द्वारा
प्रकाशित सामाजिक विज्ञानों की पुस्तकों के हिंदी अनुवादों का उल्लेख किया जा सकता
है। परंतु यह वह संस्थान है जिनका अनुवाद के जरिए शिक्षा में योगदान तो है। परंतु
अकादमिक रूप में ‘अनुवाद शिक्षा’ का
उल्लेख हमें कम ही मिलता है।
भारत में दिल्ली
विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, महात्मा
गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, हैदराबाद विश्वविद्यालय, इंदिरा
गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, भारतीय
अनुवाद परिषद, संस्कृत विद्यापीठ, भारतीय विद्यापीठ आदि कुछ
संस्थान है। जहाँ पर अनुवाद का विधिवत पाठ्यक्रम है। ‘दिल्ली विश्वविद्यालय’ में महज अनुवाद
में डिप्लोमा है। ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ और ‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनुवाद में
मास्टर्स’ (निष्णात) का पाठ्यक्रम है। ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’, ‘महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय', ‘हैदराबाद
विश्वविद्यालय’ में अनुवाद विषय पर शोधकार्य कराया जाता
है। अनुवाद का पाठ्यक्रम ‘हैदराबाद विश्वविद्यालय’ में अलग से न होकर आदिवासी विमर्श और अनुवाद विभाग के रूप में चलता है।
अनुवाद के
विस्तृत क्षेत्र और उसमें शोध की बड़ी संभावनाओं को देखते हुए अनुवाद पर शोधकार्य
बहुत-ही कम हुआ है। इस कमी की पूर्ति के लिए पूरी निष्ठा और लगन से अनुवाद में
शोधकार्य को प्रोत्साहित करना होगा। अनुवाद क्षेत्र की विशालता के बावजूद वह उतना
विकसित नहीं हुआ है, जितना होना चाहिए था। तुलनात्मक साहित्य जो अनुवाद की एक शाखा
है या यूं कहें कि जिसका आधार ही अनुवाद है। उसका विकास तेजी से अवश्य हो रहा है।
उस पर बहुत-सी किताबें भी लिखीं जा रहीं हैं। किंतु अनुवाद चिंतन और अनुवाद अध्ययन
के क्षेत्र में श्रेष्ठ किताबों का पर्याप्त अभाव आज भी कायम है।
जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और हैदराबाद
विश्वविद्यालय वर्धा में अनुवाद के क्षेत्र में शोध कराते हुए करीब एक दशक हो
गया है। इस दौरान साहित्यिक अनुवाद, मशीनी अनुवाद, विज्ञापन अनुवाद, मीडिया अनुवाद
और तुलनात्मक अनुवाद में शोध पंरपरा की शुरुआत तो हो चुकी है। परंतु अनुवाद के
ज्यादातर क्षेत्रों- जैसे प्रशासानिक अनुवाद, व्यवसायिक अनुवाद, बैंकिग अनुवाद,
डबिंग, पर्यटन, भाषाविज्ञान आदि में शोध की बहुत अधिक संभावना एवं ज़रुरत होने के
बाद भी इस क्षेत्र में शोधकार्य का अभाव है या यूं कहें कि यह क्षेत्र शोध की
दृष्टि से उपेक्षित है तो अतिश्योक्ति न होगी।
अनुवाद के
क्षेत्र में शोध की इतनी अधिक संभावनाएँ होने बावजूद उसमें कम ही विषयों पर शोध
होने के पीछे कई कारण हैं। जिनमें प्रथम तो अनुवाद का स्वयं शोध होना है। दूसरा
इसी समस्या के कारण अनुवाद में शोध की परंपरा का अभाव है। तीसरा इस विषय पर
बुनियादी पुस्तकों का अभाव है। चौथा, सबसे प्रमुख कारण, हर परिवेश में अनुवाद को
हमेशा दोयम दर्जे का कार्य माना जाता रहा, इसे वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसका वह
अधिकारी है। इसके साथ ही अनुवाद करते समय स्वयं अनुवादक को इतनी अधिक समस्याओं का
सामना करना पड़ता है कि शोधकर्ता को संबंधित विषय पर शोध करने से पूर्व बहुत अधिक
हिम्मत जुटानी पड़ती है। कारण, यहाँ अनुवाद और शोध दोनों की समस्याओं से शोधार्धी
को दो-चार होना पड़ता है। यही कारण है कि बेहतर अनुवाद और शोध दोनों का अभाव आज भी
कायम है।
हिंदी में
अनुवाद और शोध दोनों की परंपरा अत्यंत प्राचीन हैं। जहाँ कुछ नया करने की जिज्ञासा
होती है। वहाँ अनेक प्रकार के नए-नए प्रयोगों, खोजों और अनुसंधान का होना भी
स्वाभाविक है। इसी का परिणाम है कि आज से कई दशक पहले जब अनुवाद अपने व्यवस्थित रूप
नहीं था, तब भी किसी-न-किसी रूप में अनुवाद होते थेः जो आज भी प्रशंसनीय और महत्त्वपूर्ण
हैं। उदाहरणत: आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा अनूदित 1919 में हैकल के “रिडिल्स ऑफ दि यूनिवर्स” का ‘विश्वप्रपंच’, महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा
अनूदित स्वाधीनता (1907), एजुकेशन का शिक्षा (1906) उल्लेखनीय है। भारतेंदु
के अनुवाद भी इसी श्रेणी में आते हैं। उनके नाटक ‘दुर्लभबन्दु’(1880),‘विद्यासुंदर’,‘कर्पूरमंजरी’(1876), ‘विशाखादत्त’, ‘मुद्राराक्षस’(1875), ‘धंनजय-विजय’1873(), ‘रत्नावली(1868)’,
पाखण्ड विडम्बन(1872) आदि। क्रमश: अंग्रेज़ी,
बंग्ला, प्राकृत, संस्कृत आदि से अनूदित हैं। इनकी विषय-वस्तु इतनी अधिक
महत्त्वपूर्ण और प्रासांगिक है कि इन पर शोधकार्य खूब हो रहे हैं। किंतु बेहतर शोध
आज भी गिने-चुने ही हैं।
जनसामान्य में
प्रचलित अलिखित साहित्य के नामकरण के विषय में विद्वानों में प्राय: मतभेद है। पं रामनरेश त्रिपाठी ने
ऐसे साहित्य को “ग्राम साहित्य”
से अभिहित किया है, तो डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे “लोकवार्ता” की संज्ञा दी है। लोकसाहित्य, लोकगीत, लोकगाथा, लोककथा, कहावतें,
मुहावरे, पहेलियाँ, लोकनाट्य, अंधविश्वास और जनश्रुतियाँ आदि अनुवाद के विविध
रूप हैं। एक ओर यह अनुवाद के लिए बेहद नए और रोचक विषय हैं, वहीं दूसरी ओर शोध के
लिए भी स्वतंत्र संकल्पनाएँ हैं।
शोध एवं अनुवाद
दोनों में संयम, संतुलन, धैर्य और निष्ठा की पूर्ण आवश्यकता होती है। शोधार्थी और
अनुवादक को चाहिए कि वह जिस भी विषय पर शोधकार्य कर रहे हैं; वास्तविक अर्थों में वह उसकी आत्मा को आत्मसात् करके शोधकार्य करें। कारण,
अनुवादक पूर्ण संयम और संतुलन के द्वारा ही किसी भी कृति का वास्ताविक भाव अनूदित
पाठ में ला पाता है। इसमें विषय का पूर्णज्ञान और भावनिष्ठा उसके मार्ग में सहायक
बनते हैं।
प्राचीन काल के
साहित्यिक अनुवादों की भांति ही, समकालीन भारतीय साहित्य ने विश्व की विभिन्न
भाषाओं में अनुवाद करके विश्व-संस्कृति एवं विश्व-साहित्य को समृद्ध करने में
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरणत: टैगोर की ‘गीतांजलि’, प्रेमचंद के ‘गोदान’(1936),
विभूति भूषण के ‘पाथेर पांचाली,
प्रसाद की ‘कामायनी’(1936), अज्ञेय के ‘अपने-अपने अजनबी’, गिरिश कर्नाड के ‘तुग़लक’, तकषी पिल्लै के ‘चेम्मीन’आदि के अनुवादों ने अनुवाद परंपरा को सुदृढ़ करने के साथ-साथ शोध-परंपरा
को भी सुदृढ़ता प्रदान की है। इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण पेन (pen) हैः जो स्वयं में अनुवाद और एक बेहतर शोध का प्रमाण है।
शोध और अनुवाद
में इतना सबकुछ होने के बावजूद, बहुत कुछ करना शेष है। आज जरूरत इस बात की है कि
अनुवाद को मौलिक लेखन की तुलना में घटिया न समझकर उसे महत्त्वपूर्ण दर्जा दिया जाए।
कारण, यह उससे कहीं ज्यादा कठिन कार्य है। इसमें अनुवादक को दो भाषाओं एवं
संस्कृतियों को एक साथ लेकर चलना पड़ता है। जबकि मौलिक लेखन में मात्र एक भाषा का
ज्ञान पर्याप्त होता है। अत: अनुवाद-कार्य को सामाजिक स्वीकृति और
सम्मान दिलाना नितांत आवश्यक है। यह एक कड़वा सत्य है कि दुनिया की तुलना भारत में
अनुवाद की स्थिति पिछड़ी है। किंतु यह हर्ष का विषय है कि यह अनुवाद की इस बिगड़ी स्थिति
में समय के साथ निंरतर सुधार हो रहा है।
आज के इस
प्रतियोगिकतावादी युग में अनुवाद जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर शोधकार्य की नितांत
आवश्यकता है। शोधकार्य के दौरान जो भी दिशा-निर्देश दिए जाते हैं वह अनुवादकों का
मार्गदर्शन करते हैं। इन्हीं मूल्यों के कारण सवौत्तम अनुवाद और शोधकार्य दोनों को
गति प्राप्त होती है।
इस प्रकार हम
कह सकते हैं कि शोध और अनुवाद के स्वरूप, प्रविधि और समस्याओं में बहुत समानता है
परंतु यह दो अलग कार्य हैं। आज इन दोनों की माँग और उपयोगिता निरंतर बढ़ रही है। जहाँ
एक ओर अनुवाद के बिना विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती। वहीं दूसरी ओर शोध के बिना
विश्व बहुत से महत्त्वपूर्ण तत्त्वों की उपयोगिता और महत्त्व से वंचित रह जाएगा।
अनुवाद के क्षेत्र में शोधकार्य की उपयोगिता एवं महत्त्वता इस बात से सिद्ध होती
है कि अनूदित साहित्य ने मात्र संपूर्ण समाज के एक-दूसरे से जोड़ा ही नहीं है।
अपितु संपूर्ण विश्व को परिवारिक इकाई में बदल दिया है। आज भारत के प्रेमचंद,
भारतेंदु, जैनेंद्र कुमार, निराला आदि संपूर्ण विश्व के अपने हैं।
भारतीय मनीषा
का यह एक विचित्र अभाव है कि जहाँ एक ओर उसने साहित्य-सृजन पर बड़े विस्तार और
गहराई से विचार किया है, वहीं पुन:सृजन (अनुवाद) कभी उसके
चिंतन-मनन की परिधि में प्रवेश पाने का गौरव नहीं पा सका है। कारण, अनुवाद और शोध
दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।
जहाँ अनुवाद अपरिचित से परिचित कराता है, वहीं शोध विषय में निहित तथ्यों के
अतिरिक्त उससे संबंधित अन्य नवीन तथ्यों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भारतीय आदर्श के साथ अनुवाद अन्य
क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण होते हुए भी उपेक्षित की भांति अलग-थलग है। किंतु
साहित्यिक क्षेत्र में अपना महत्त्व निर्विवाद रखता है।
अनुसंधान में
अनुवाद की भूमिका सचमुच नई है। शिक्षा के क्षेत्र में, विशेषकर अंग्रेज़ी भाषा
शिक्षण में तो अनुवाद के अनेक उपयोग पहले से ही व्यापक स्तर पर हो रहे हैं और भाषा
शिक्षण तथा कक्षा-अध्यापन को और अधिक सशक्त बनाने में इसे एक आवश्यक संसाधन के रूप
में स्वीकृत किया गया है। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता के सेतु के रूप में अनुवाद की
भूमिका अधिक प्रासांगिक और संगत प्रतीत होती है।
इस
प्रकार यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विश्वभर में अनेक आन्दोलनों का सूत्रपात और
उनकी सफलता का श्रेय अनुवाद को ही जाता है। अनुवाद की प्रभावी भूमिका के विषय में
आचार्य वूल्फ का मत है— “रूपान्तरणीय शोध (TRANSLATIONAL
RESEARCH) को वास्तविक जीवन से जोड़ने का कार्य अनुवाद” ही करता है।
जबकि सुरेश कुमार अनुवाद कार्य को अनुसंधान प्रवृत्ति का कार्य मानते हैं। उनका मत
है कि अनुवाद गतिविधि में अनेक विषय विशेषज्ञों एवं अलग-अलग राष्ट्रीयता के लोगों
की सहभागिता होती है। जिसमें विभिन्न मनोवृत्तियां आपस में संघर्ष करती हैं। इस
संघर्ष से नए विषय प्रकट होते हैं जो अनुसंधान की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं।
अंतत: भारतीय मनीषा के संपूर्ण विकास के लिए इन दोनों क्षेत्रों में पर्याप्त
परिश्रम करना अभी भी शेष है।
संदर्भ गंर्थसूची
1. राजूरकर,
भ.ह. एवं राजमल बोरा (संपा), हिंदी अनुसंधान का स्वरुप, नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
दिल्ली, मुद्रित।
2. सिन्हा,
सावित्री एवं डॉ. विजयेन्द्र स्नातक (संपा), अनुसंधान की प्रकिया, नेशनल पब्लिशिंग
हाउस, दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1991, मुद्रित।
3. सिंहल,
बैजनाथ, शोध: स्वरुप एवं मानक कार्यविधि, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, मुद्रित।
4. सिंहल, डॉ.
सुरेश, अनुवाद की संवेदना और सरोकार, संजय प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण,
मुद्रित।
5. तिवारी,
भोलानाथ, अनुवाद विज्ञान, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली, मुद्रित।
6. चतुर्वेदी,
मा. एवं कृष्णकुमार गोस्वामी, अनुवाद: विविध आयाम, केंद्रिय हिंदी निदेशालय.
आगरा, मुद्रित।
7. नगेन्द्र
डॉ, अनुवाद विज्ञान सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निर्देशालय,
दिल्ली विश्वविद्यालय, मुद्रित।
8. गोस्वामी, कृष्णकुमार, अनुवाद विज्ञान की भूमिका, राजकमल
प्रकाशन, दिल्ली, 2008, मुद्रित।