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Sunday, April 4, 2021
Wednesday, March 17, 2021
उज्जैन से शेष ज्योतिर्लिंगों की दूरी
उज्जैन से शेष ज्योतिर्लिंगों की दूरी
▪️ उज्जैन से सोमनाथ- 777 किमी
▪️ उज्जैन से ओंकारेश्वर- 111 किमी
▪️ उज्जैन से भीमाशंकर- 666 किमी
▪️ उज्जैन से काशी विश्वनाथ- 999 किमी
▪️ उज्जैन से मल्लिकार्जुन- 999 किमी
▪️ उज्जैन से केदारनाथ- 888 किमी
▪️ उज्जैन से त्रयंबकेश्वर- 555 किमी
▪️ उज्जैन से बैजनाथ- 999 किमी
▪️ उज्जैन से रामेश्वरम्- 1999 किमी
▪️ उज्जैन से घृष्णेश्वर - 555 किमी
वह
Tuesday, March 16, 2021
love
love
"love is believe
believe is true
true is also love
we should kept your love
always...!"
written by suman sharma'vaishnopriya'
धर्मवीर पण्डित लेखराम
धर्मवीर पण्डित लेखराम
- हिन्दू धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा रखकर धर्म प्रचार में अपना जीवन समर्पण करने वाले धर्मवीर पंडित लेखराम का जन्म अविभाजित भारत के ग्राम सैयदपुर (तहसील चकवाल, जिला झेलम, पंजाब) में मेहता तारासिंह के घर आठ चैत्र, वि0सं0 1915 को हुआ था। बाल्यकाल में उनका अध्ययन उर्दू एवं फारसी में हुआ; क्योंकि उस समय राजकाज एवं शिक्षा की भाषा यही थी।
- 17 वर्ष की अवस्था में वे पुलिस में भर्ती हो गये; पर कुछ समय बाद उनका झुकाव आर्य समाज की ओर हो गया। वे एक माह का अवकाश लेकर ऋषि दयानन्द जी से मिलने अजमेर चले गये। वहाँ उनकी सभी जिज्ञासाएँ शान्त हुईं। लौटकर उन्होंने पेशावर में आर्य समाज की स्थापना की और धर्म-प्रचार में लग गये। धीरे-धीरे वे ‘आर्य मुसाफिर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
- पंडित लेखराम ने ‘धर्मोपदेश’ नामक एक उर्दू मासिक पत्र निकाला। उच्च कोटि की सामग्री के कारण कुछ समय में ही वह प्रसिद्ध हो गया। उन दिनों पंजाब में अहमदिया नामक एक नया मुस्लिम सम्प्रदाय फैल रहा था। इसके संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद स्वयं को पैगम्बर बताते थे। पण्डित लेखराम ने अपने पत्र में इनकी वास्तविकता जनता के सम्मुख रखी। इस बारे में उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं। इससे मुसलमान उनके विरुद्ध हो गये।
- महर्षि दयानन्द जी के देहान्त के बाद पंडित लेखराम को लगा कि सरकारी नौकरी और धर्म प्रचार साथ-साथ नहीं चल सकता। अतः उन्होंने नौकरी छोड़ दी। जब पंजाब में आर्य प्रतिनिधि सभा का गठन हुआ, तो वे उसके उपदेशक बन गये। इस नाते उन्हें अनेक स्थानों पर प्रवास करने तथा पूरे पंजाब को अपने शिकंजे में जकड़ रहे इस्लाम को समझने का अवसर मिला।
- लेखराम जी एक श्रेष्ठ लेखक थे। आर्य प्रतिनिधि सभा ने ऋषि दयानन्द के जीवन पर एक विस्तृत एवं प्रामाणिक ग्रन्थ तैयार करने की योजना बनायी। यह दायित्व उन्हें ही दिया गया। उन्होंने देश भर में भ्रमण कर अनेक भाषाओं में प्रकाशित सामग्री एकत्रित की। इसके बाद वे लाहौर में बैठकर इस ग्रन्थ को लिखना चाहते थे; पर दुर्भाग्यवश यह कार्य पूरा नहीं हो सका।
- पंडित लेखराम की यह विशेषता थी कि जहाँ उनकी आवश्यकता लोग अनुभव करते, वे कठिनाई की चिन्ता किये बिना वहाँ पहुँच जाते थे। एक बार उन्हें पता लगा कि पटियाला जिले के पायल गाँव का एक व्यक्ति हिन्दू धर्म छोड़ रहा है। वे तुरन्त रेल में बैठकर उधर चल दिये; पर जिस गाड़ी में वह बैठे, वह पायल नहीं रुकती थी। इसलिए जैसे ही पायल स्टेशन आया, लेखराम जी गाड़ी से कूद पड़े। उन्हें बहुत चोट आयी। जब उस व्यक्ति ने पंडित लेखराम जी का यह समर्पण देखा, तो उसने धर्मत्याग का विचार ही त्याग दिया।
- उनके इन कार्यों से मुसलमान बहुत नाराज हो रहे थे। छह मार्च, 1897 की एक शाम जब वे लाहौर में लेखन से निवृत्त होकर उठे, तो एक मुसलमान ने उन्हें छुरे से बुरी तरह घायल कर दिया। उन्हें तुरन्त अस्पताल पहुँचाया गया; पर उन्हंे बचाया नहीं जा सका।
- मृत्यु से पूर्व उन्होंने कार्यकत्र्ताओं को सन्देश दिया कि आर्य समाज में तहरीर (लेखन) और तकरीर (प्रवचन) का काम बन्द नहीं होना चाहिए। धर्म और सत्य के लिए बलिदान होने वाले पण्डित लेखराम ‘आर्य मुसाफिर’ जैसे महापुरुष मानवता के प्रकाश स्तम्भ हैं।
Sunday, February 28, 2021
Tuesday, February 16, 2021
भारत में प्रथम महिलाएं
भारत में प्रथम महिलाएं
Thursday, February 11, 2021
सर्वोदयी सिद्धराज ढड्ढा
सर्वोदयी सिद्धराज ढड्ढा
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान अनेक युवकों को गांधीवाद और आजादी के बाद सर्वोदय ने बहुत प्रभावित किया; पर कुछ बाद ही स्वदेशी, स्वभाषा, स्वभूषा तथा राष्ट्रवादी संस्कारों के आधार पर चलने वाले ये आन्दोलन अपने पथ से भटक गये। इससे सम्बद्ध अधिकांश लोग कांग्रेस में शामिल होकर सत्ता और भ्रष्टाचार की राजनीति में उतर गये; पर कुछ लोग ऐसे भी रहे, जिन्होंने आजीवन देशसेवा का वह मार्ग नहीं छोड़ा।
12 फरवरी, 1908 को जयपुर (राजस्थान) के एक अति सम्पन्न परिवार में जन्मे श्री सिद्धराज ढड्ढा ऐसे ही एक कर्मयोगी थे। उनके परिवार में हीरे-जवाहरात का पुश्तैनी काम होता था; पर इस सम्पन्नता के बावजूद उन्होंने स्वयंप्रेरित सादगी को स्वीकार किया था। वे अपने पुरखों की विशाल हवेली के एक कमरे में धरती पर दरी बिछाकर और सामने डेस्क रखकर काम करते थे। उनका आवास, अतिथिगृह, बैठक और कार्यालय सब वही था।
स्वतन्त्रता से पूर्व 1940-41 में वे 10,000 रु. मासिक की शाही नौकरी छोड़कर स्वेच्छा से गांधी जी और स्वाधीनता आन्दोलन के प्रति समर्पित हो गये। तब घर-परिवार ही नहीं, समाज ने भी उन्हें पागल कहा था। ऐसा ही पागलपन उन्होंने एक बार फिर दिखाया। 1947 के बाद जब देश में पहली लोकतान्त्रिक सरकार बनी, तो वे उसमें कैबिनेट मन्त्री बनाये गये; पर कुछ ही दिन बाद प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को गांधीवाद से एकदम विमुख होते देख उन्होंने उस मन्त्रीपद को ठोकर मार दी।
सिद्धराज जी का मानना था कि सत्याग्रह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। सच्चे सत्याग्रही को सदा काँटों के पथ पर चलने को तैयार रहना चाहिए। यदि वह भी सो जायेगा, तो शासक वर्ग को भ्रष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता। इसलिए स्वाधीनता के बाद भी देश में जहाँ कहीं शासन की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध कोई आन्दोलन खड़ा होता था, सिद्धराज जी वहाँ पहुँच जाते थे। कोई उन्हें आन्दोलन में भाग लेने के लिए बुलाये, वे इसकी प्रतीक्षा नहीं करते थे। स्वयंस्फूर्त प्रेरणा उन्हें वहाँ खींचकर ले जाती थी।
सिद्धराज जी को भौतिक सुख-सुविधाओं की जरूरत नहीं थी। अपने खर्चे पर बस या रेल, जो भी मिलता, वे उसमें बैठकर अपना सामान स्वयं उठाकर सत्याग्रहियों के साथ अग्रिम पंक्ति में खड़े हो जाते थे। 98 वर्ष की आयु में जब उनका देहान्त हुआ, उससे कुछ समय पूर्व वे विदेशी कम्पनी कोककोला के विरुद्ध चलाये जा रहे आन्दोलन में सक्रिय थे। वे प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के रोग से भी दूर थे। शासन द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दी जा रही खुली छूट के विरोध में उन्होंने ‘पद्मश्री’ की उपाधि ठुकरा दी।