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Saturday, October 24, 2020

 

 

अनुवाद के सिद्धांत

अनुवाद एक भाषा की बात को दूसरी भाषा में व्यक्त करने का नाम है। जिसकी उत्पत्ति अनु+वाद के संयोग से हुई है। जिसका अर्थ है


बाद में कहना अर्थात् पहले कही हुई बात को पुनः नए सिरे से उसी भाषा या अन्य भाषा कहना ही अनुवाद है। हिंदी में इसके लिए उल्था, तर्जुमा, भाषांतर, व्याख्या, अनुवचन, लिप्यंतरण इत्यादि शब्द हैं। जबकि अंग्रेजी में इसके लिए Translation शब्द को पर्याय रूप में चुना गया है।

          जब पर्याय की बात प्रबल हुई तो अन्य भाषाओं में अनुवाद की प्रक्रिया भी तीव्र हुई। फलतः विद्वानों ने अनेक भाषाओं के अनुवाद के दौरान होने वाली कठिनाईयों और सुलभता को आकंते हुए इसके लिए कुछ सिद्धांत दिए हैं। जिन पर आगे चलकर विभिन्न आधारों पर अनुवाद सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया। उन्हीं सिद्धांतों की चर्चा नीचे की जाएगी।

अनुवाद संबंधी सिद्धांतों पर स्वतंत्र ग्रंथों का लेखन वस्तुतः बीसवीं शताब्दी से आरंभ हुआ है। इसी शताब्दी के दौरान साहित्यिक और भाषा-वैज्ञानिक पत्रिकाओं में अनुवाद पर लेखों का प्रकाशन आरंभ हुआ और अनुवाद संबंधी पत्रिकाएँ आरंभ हुई। विभिन्न कालों में पश्चिम में अनुवाद को तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। कुछ परिभाषाएँ हैं—

जे. सी. केटफोर्ट के अनुसारअनुवाद स्रोत भाषा की पाठ-सामग्री को लक्ष्य भाषा के समानार्थी पाठ में प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया है।

सेंट जेरोम के अनुसार अनुवाद में भाव की जगह भाव होना चाहिए न कि शब्द की जगह शब्द।[1]

अनुवाद सिद्धांत अनुवाद सिद्धांत मुख्यतः निम्न प्रकार के हो सकते हैं    

समतुल्यता का सिद्धांत

समतुल्यता का सिद्धांत अनुवाद सिद्धांतों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कैटफोर्ड इस सिद्धांत के प्रवर्तक माने जाते हैं। कैटफोर्ट का मानना था कि स्रोत भाषा की पाठ्यसामग्री को लक्ष्य भाषा की सभ्यता में स्थापित करना ही अनुवाद है। इन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में गंभीरता से विचार करते हुए योजना एवं समतुल्यता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। सूक्ष्मता से विचार करने पर ज्ञात होता है कि विभिन्न भाषाओं में शत-प्रतिशत समतुल्यता संभव नहीं। अतः अनुवाद में भी उतनी समतुल्यता नहीं हो सकती। अच्छा अनुवाद मूल के निकट हो सकता है मूल नहीं। यह तभी संभव है जब अनुवादक को स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा दोनों का अच्छा ज्ञान होता हो। समतुल्यता के लिए अनुवादक को अन्य विषय का भी पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। यह अनुवादक का अत्यंत अपेक्षित गुण है। जिससे अनुवाद मूल के निकट जाकर मूल की ही भांति प्रतीत हो सके।

 

व्याख्या का सिद्धांत

व्याख्या का सिद्धांत पाश्चात्य और भारतीय दृष्टिकोण दोनों में ही अनुवाद को ही व्याख्या माना गया है। जेम्स होम्स ने भी अनुवाद को व्याख्या ही माना है। अनुवादक को कुछ जगह अनिवार्यता व्याख्या का सहारा लेना ही पड़ता है। भाषाओं की लोकोक्तियां, मुहावरें, स्थानीय युक्तियाँ इत्यादि सामाजिक संदर्भ का शाब्दिक अनुवाद संभव नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में अनुवादक को अनुवाद के लिए सिद्धांत का विनियोग करना पड़ता है। व्याख्या से अनुवाद करने के लिए लक्ष्य भाषा वही अर्थ निकले इसके लिए पाद टिप्पणी का प्रयोग किया जाता है। इस सिद्धांत की सबसे बड़ी सीमा यह है कि आवश्यकता से अधिक व्याख्या होने पर अनुवाद अपनी सार्थकता खो देता है। अतः अनुवादक को विशेष सावधान रहना चाहिए कि काव्य तत्व को स्पष्ट करने के लिए ही व्याख्या का प्रयोग करे न की स्वयं की दक्षता को प्रदर्शित करने के लिए। उदाहरणतः AIIMS को करने पर स्पष्ट भाव व्यक्त होते हैं। इसलिए इसकी व्याख्या ऑल इंडिया इंस्टीयूट ऑफ मेडिकल साइंसेज या अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान कहना उपयुक्त रहा।

 

अर्थसंप्रेषण का सिद्धांत

भाषा-संवाद अनुवाद की सार्थकता को यथावत बनाए रखने में अर्थ संप्रेषण की भूमिका अतुलनीय है। प्रायः सभी भाषा वैज्ञानिक और अनुवाद चिंतक इस बात से सहमत हैं कि अर्थ अनुवाद का मुख्य तत्त्व है। अर्थ संप्रेषित न होने पर अनुवाद निरर्थक हो जाता है। डॉ. जॉनसन का मत हैअर्थ को बनाएं रखते हुए किसी अन्य भाषा में अंतरण करना ही अनुवाद है। अनुवादक को विशेष ध्यान रखना चाहिए कि अपनी सीमा में रहते हुए अर्थ संप्रेषण की दृष्टि से वह लेखक के निकट रहे। अनुवाद मूल की छाया होती है किंतु मूल नहीं। वस्तुतः अनुवादक सदैव अनुवाद में कुछ जोड़ता और घटता रहता है। क्योंकि अर्थ के लिए शत-प्रतिशत अनुवाद संभव नहीं। इसलिए हर अनुवादक यह प्रयास करता है कि वह श्रेष्ठ अनुवाद करके मूल के निकट जा सके। मूल के निकट जाने वाला अनुवाद ही श्रेष्ठ समझा जाता है।

 

सांस्कृतिक संदर्भों के एकीकरण का सिद्धांत

इस सिद्धांत को सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री मर्लिनो बख्शी ने प्रतिपादित किया है। अनुवाद का सांस्कृतिक महत्त्व सर्वविदित है कि अनुवाद एक सांस्कृतिक सेतु है। प्रत्येक भाषा की अपनी संस्कृति होती है। यही कारण है कि सांस्कृतिक पक्ष से संबंधित अभिव्यक्तियों के अनुवाद में विशेष कठिनाई होती है। स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के सांस्कृतिक संदर्भों को भली-भांति समझकर अनुवाद करना उपयुक्त होता है। मैलिनोवस्की मानते हैं कि अनुवाद संस्कृत संदर्भों का एकीकरण है। यही विचार अंग्रेजी अनुवाद चिंतक देने है— वह मानते हैं कि अनुवाद भाषाओं का अंतरण नहीं अपितु संस्कृतियों का अंतर है। इसलिए अनुवाद सिद्धांत के अंतर्गत सांस्कृतिक संदर्भों का एकीकरण चिंतन अनुवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन करती है। यही कारण है कि भारत विश्व-बधुंत्व की भावना को साकार करते हुए एकीकरण की भावना पर बल देता है। अनुवाद के कारण ही आज संपूर्ण विश्व एक ग्राम रूप में प्रतिष्ठापित होता जा रहा है।

 

निष्कर्षतः अनुवाद सिद्धांत निरूपण यद्यपि इस शताब्दी की महत्त्वपूर्ण घटना है। किंतु अनुवाद संबंधी विवेचन सैकड़ों वर्षों से हो रहा है। पश्चिम में इसकी एक सुधीर परंपरा रही है। बाईबल के अनुवाद के माध्यम से अनुवाद की प्रक्रिया और स्वरूप पर बहुत विचार हुआ है। भारत में भी अनुवाद की परंपरा से अनुवाद के अन्य सूत्र मिले हैं। इस पूरे विवेचन से स्पष्ट है कि अनुवाद के मुख्यतःउपर्युक्त सिद्धांत है। जिसमें व्याख्या का सिद्धांत, अर्थ-संप्रेषण का सिद्धांत और संदर्भों के एकीकरण का सिद्धांत है। अंततः अनुवाद विभिन्न विचारधाराओं को एक माला में मोती की भांति संग्रहित रूप में प्रस्तुत करने की अतुलनीय कला है। अर्थात् अनुवाद की एक सूक्ष्म चर्चा पाश्चात्य क्षेत्र में मिलती है। भारत में अनुवाद की परंपरा के सूत्र एक लंबे समय से विद्यमान है।

 

संदर्भ ग्रंथसूची

·       गुप्त अवधेश मोहन, अनुवाद विज्ञानः सिद्धांत और सिद्धि, एक्सप्रेस बुक सर्विस, दिल्ली।

·       नवीन,देवशंकर, अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य, प्रकाशन  विभाग, प्रथम संस्करण, दिल्ली।

·       खन्ना, संतोष, अनुवाद के नये परिप्रेक्ष्य, विधि भारती परिषद, दिल्ली, प्रथम संस्करण, दिल्ली।

·       सिंह, डॉ. रामगोपाल, अनुवाद विज्ञान, शांति प्रकाशन, दिल्ली।

 

नाम- सुमन 

कार्य- ज्वाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (शोधार्थी)

ईमेल आई डी- sumankumari10191@gmail.com         

ब्लॉग- sumansharmahot.blogspot.com

 

 

 

 

 

 

 



[1] गुप्त अवधेश मोहन, अनुवाद विज्ञानः सिद्धांत और सिद्धि, पृ-18

Sunday, October 11, 2020

तैंतीस कोटि देव

तैंतीस कोटि देव


*🔶भारतवर्ष में देवों का वर्णन बहुत रोचक है। देवों की संख्या तैंतीस करोड़ बतायी जाती है और इसमें नदी , पेड़ , पर्वत , पशु और पक्षी भी सम्मिलित कर लिये गये है, पर वास्तव में ये 33 करोड़ नही 33 कोटि है यानी प्रकार।ऐसी स्तिथि में यह बहुत आवश्यक है कि शास्त्रों के वचन समझे जाएँ और वेदों की वास्तविक शिक्षाएँ ही जीवन में धारण की जाएँ।*


*🔶देव कौन 


*'देव' शब्द के अनेक अर्थ हैं :-*

*देवो दानाद् वा , दीपनाद् वा , द्योतनाद् वा , द्युस्थानो भवतीति वा। " (निरुक्त - ७ / १५) तदनुसार 'देव' का लक्षण है 'दान' अर्थात देना। जो सबके हितार्थ अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु और प्राण भी दे दे , वह देव है। देव का गुण है 'दीपन' अर्थात प्रकाश करना । सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि को प्रकाश करने के कारण देव कहते हैं । देव का कर्म है 'द्योतन' अर्थात सत्योपदेश करना । जो मनुष्य सत्य माने , सत्य बोले और सत्य ही करे , वह देव कहलाता है। देव की विशेषता है 'द्युस्थान' अर्थात ऊपर स्थित होना । ब्रह्माण्ड में ऊपर स्थित होने से सूर्य को , समाज में ऊपर स्थित होने से विद्वान को,और राष्ट्र में ऊपर स्थित होने से राजा को भी देव कहते हैं। इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रयोग जड़ और चेतन दोनों के लिए होता है। हाँ , भाव और प्रयोजन के अनुसार अर्थ भिन्न - भिन्न होते हैं।

Monday, October 5, 2020

मंगल पांडे और नादिर शाह


मंगल पांडे( 4 अक्टूबर)


1857 के स्वाधीनता संग्राम की ज्योति को अपने बलिदान से जलाने वाले मंगल पाण्डे को तो सब जानते हैं; पर उनके नाम से काफी मिलते-जुलते बिहार निवासी जयमंगल पाण्डे का नाम कम ही प्रचलित है।


बैरकपुर छावनी में हुए विद्रोह के बाद देश की अन्य छावनियों में भी क्रान्ति-ज्वाल सुलगने लगी। बिहार में सैनिक क्रोध से जल रहे थे। 13 जुलाई को दानापुर छावनी में सैनिकों ने क्रान्ति का बिगुल बजाया, तो 30 जुलाई को रामगढ़ बटालियन की आठवीं नेटिव इन्फैण्ट्री के जवानों ने हथियार उठा लिये। भारत माता को दासता की जंजीरों से मुक्त करने की चाहत हर जवान के दिल में घर कर चुकी थी। बस, सब अवसर की तलाश में थे।


सूबेदार जयमंगल पाण्डे उन दिनों रामगढ़ छावनी में तैनात थे। उन्होंने अपने साथी नादिर अली को तैयार किया और फिर वे दोनों 150 सैनिकों को साथ लेकर राँची की ओर कूच कर गये। वयोवृद्ध बाबू कुँवरसिंह जगदीशपुर में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। इस अवस्था में भी उनका जीवट देखकर सब क्रान्तिकारियों ने उन्हें अपना नेता मान लिया था। जयमंगल पाण्डे और नादिर अली भी उनके दर्शन को व्याकुल थे। 11 सितम्बर, 1857 को ये दोनों अपने जवानों के साथ जगदीशपुर की ओर चल दिये।


वे कुडू, चन्दवा, बालूमारथ होते हुए चतरा पहुँचे। उस समय चतरा का डिप्टी कमिश्नर सिम्पसन था। उसे यह समाचार मिल गया था कि ये दोनों अपने क्रान्तिकारी सैनिकों के साथ फरार हो चुके हैं। उन दिनों अंग्रेज अधिकारी बाबू कुँवरसिंह से बहुत परेशान थे। उन्हें लगा कि इन दोनों को यदि अभी न रोका गया, तो आगे चलकर ये भी सिरदर्द बन जाएंगे। अतः उसने मेजर इंगलिश के नेतृत्व में सैनिकों का एक दल भेजा। उसमें 53 वें पैदल दस्ते के 150 सैनिकों के साथ सिख दस्ते ओर 170 वें बंगाल दस्ते के सैनिक भी थे। इतना ही नहीं, तो उनके पास आधुनिक शस्त्रों का बड़ा जखीरा भी था।


इधर वीर जयमंगल पाण्डे और नादिर अली को भी सूचना मिल गयी कि मेजर इंगलिश अपने भारी दल के साथ उनका पीछा कर रहा है। अतः उन्होंने चतरा में जेल के पश्चिमी छोर पर मोर्चा लगा लिया। वह दो अक्तूबर, 1857 का दिन था। थोड़ी देर में ही अंग्रेज सेना आ पहुँची।


जयमंगल पाण्डे के निर्देश पर सब सैनिक मर मिटने का संकल्प लेकर टूट पड़े; पर इधर संख्या और अस्त्र शस्त्र दोनों ही कम थे, जबकि दूसरी ओर ये पर्याप्त मात्रा में थे। फिर भी दिन भर चले संघर्ष में 58 अंग्रेज सैनिक मारे गये। उन्हें कैथोलिक आश्रम के कुँए में हथियारों सहित फेंक दिया गया। बाद में शासन ने इस कुएँ को ही कब्रगाह बना दिया।


इधर क्रान्तिवीरों की भी काफी क्षति हुई। अधिकांश सैनिकों ने वीरगति पायी। तीन अक्तूबर को जयमंगल पाण्डे और नादिर अली पकड़े गये। अंग्रेज अधिकारी जनता में आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए अगले दिन चार अक्तूबर को पन्सीहारी तालाब के पास एक आम के पेड़ पर दोनों को खुलेआम फाँसी दे दी गयी। बाद में इस तालाब को फाँसी तालाब, मंगल तालाब, हरजीवन तालाब आदि अनेक नामों से पुकारा जाने लगा। स्वतन्त्रता के बाद वहाँ एक स्मारक बनाया गया। उस पर लिखा है -


जयमंगल पाण्डेय नादिर अली दोनों सूबेदार रे

दोनों मिलकर फाँसी चढ़े हरजीवन तालाब रे।।


Friday, October 2, 2020

महाराष्ट्रपुरुष गांधी जी

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2 अक्तूबर/जन्म-दिवस


राष्ट्रपुरुष गांधी जी


मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म दो अक्तूबर, 1869 को पोरबन्दर( गुजरात) में हुआ था। उनके पिता करमचन्द गांधी पहले पोरबन्दर और फिर राजकोट के शासक के दीवान रहे। गांधी जी की माँ बहुत धर्मप्रेमी थीं। वे प्रायः रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों का पाठ करती रहती थीं। वे मन्दिर जाते समय अपने साथ मोहनदास को भी ले जाती थीं। इस धार्मिक वातावरण का बालक मोहनदास के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा।


बचपन में गांधी जी ने श्रवण की मातृ-पितृ भक्ति तथा राजा हरिश्चन्द्र नामक नाटक देखे। इन्हें देखकर उन्होंने माता-पिता की आज्ञापालन तथा सदा सत्य बोलने का संकल्प लिया। 13 वर्ष की छोटी अवस्था में ही उनका विवाह कस्तूरबा से हो गया। विवाह के बाद भी गांधी जी ने पढ़ाई चालू रखी। जब उन्हें ब्रिटेन जाकर कानून की पढ़ाई का अवसर मिला, तो उनकी माँ ने उन्हें शराब और माँसाहार से दूर रहने की प्रतिज्ञा दिलायी। गांधी जी ने आजीवन इस व्रत का पालन किया।


कानून की पढ़ाई पूरी कर वे भारत आ गये; पर यहाँ उनकी वकालत कुछ विशेष नहीं चल पायी। गुजरात के कुछ सेठ अफ्रीका से भी व्यापार करते थे। उनमें से एक दादा अब्दुल्ला के वहाँ कई व्यापारिक मुकदमे चल रहे थे। उन्होंने गांधी जी को उनकी पैरवी के लिए अपने खर्च पर अफ्रीका भेज दिया। अफ्रीका में उन्हें अनेक कटु अनुभव हुए। वहाँ भी भारत की तरह अंग्रेजों का शासन था। वे स्थानीय काले लोगों से बहुत घृणा करते थे।


एक बार गांधी जी प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर रेल में यात्रा कर रहे थे; एक स्टेशन पर रात में उन्हें अंग्रेज यात्री के लिए अपनी सीट छोड़ने को कहा गया। मना करने पर उन्हें सामान सहित बाहर धक्का दे दिया गया। इसका उनके मन पर बहुत गहरा असर पड़ा। उन्होंने अफ्रीका में स्थानीय नागरिकों तथा भारतीयों के अधिकारों के लिए सत्याग्रह के माध्यम से संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली।


इससे उत्साहित होकर वे भारत लौटे और कांग्रेस में शामिल होकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने लगे। उनकी इच्छा थी कि भारत के सब लोग साथ मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला करें। इसके लिए उन्होंने मुसलमानों से अनेक प्रकार के समझौते किये, जिससे अनेक लोग उनसे नाराज भी हो गये; पर वे अपने सिद्धान्तों पर अटल रहकर काम करते रहे।


सविनय अवज्ञा, दाण्डी यात्रा, अंग्रेजो भारत छोड़ो..आदि आन्दोलनों में उन्होंने लाखों लोगों को जोड़ा। जब अंग्रेजों ने अलग चुनाव के आधार पर हिन्दू समाज के वंचित वर्ग को अलग करना चाहा, तो गांधी जी ने आमरण अनशन कर इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। 15 अगस्त, 1947 को देश को स्वतन्त्रता मिली; पर देश का विभाजन भी हुआ। अनेक लोगों ने विभाजन के लिए उन्हें और कांग्रेस को दोषी माना।


उन दिनों देश मुस्लिम दंगों से त्रस्त था। विभाजन के दौरान लाखों हिन्दू मारे गये थे। फिर भी गांधी जी हिन्दू-मुस्लिम एकता के पीछे पड़े थे। इससे नाराज होकर नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को सायंकाल प्रार्थना सभा में जाते समय उन्हें गोली मार दी। गांधी जी का वहीं प्राणान्त हो गया।


गांधी जी के ग्राम्य विकास एवं स्वदेशी अर्थ व्यवस्था सम्बन्धी विचार आज भी प्रासंगिक हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि जिन नेहरू जी को उन्होंने जिदपूर्वक प्रधानमन्त्री बनाया, उन्होंने ही उनके सब विचारों को ठुकरा दिया।

Tuesday, September 29, 2020

भगतसिंह

28 सितम्बर/जन्म-दिवस

इन्कलाब जिन्दाबाद के उद्धघोषक भगतसिंह


क्रान्तिवीर भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को ग्राम बंगा, (जिला लायलपुर, पंजाब) में हुआ था। उसके जन्म के कुछ समय पूर्व ही उसके पिता किशनसिंह और चाचा अजीतसिंह जेल से छूटे थे। अतः उसे भागों वाला अर्थात भाग्यवान माना गया। घर में हर समय स्वाधीनता आन्दोलन की चर्चा होती रहती थी। इसका प्रभाव भगतसिंह के मन पर गहराई से पड़ा। 


13 अपै्रल 1919 को जलियाँवाला बाग, अमृतसर में क्रूर पुलिस अधिकारी डायर ने गोली चलाकर हजारों नागरिकों को मार डाला। यह सुनकर बालक भगतसिंह वहाँ गया और खून में सनी मिट्टी को एक बोतल में भर लाया। वह प्रतिदिन उसकी पूजा कर उसे माथे से लगाता था। 


भगतसिंह का विचार था कि धूर्त अंग्रेज अहिंसक आन्दोलन से नहीं भागेंगे। अतः उन्होंने आयरलैण्ड, इटली, रूस आदि के क्रान्तिकारी आन्दोलनों का गहन अध्ययन किया। वे भारत में भी ऐसा ही संगठन खड़ा करना चाहते थे। विवाह का दबाव पड़ने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और कानपुर में स्वतन्त्रता सेनानी गणेशशंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम करने लगे। 


कुछ समय बाद वे लाहौर पहुँच गये और ‘नौजवान भारत सभा’ बनायी। भगतसिंह ने कई स्थानों का प्रवास भी किया। इसमें उनकी भेंट चन्द्रशेखर आजाद जैसे साथियों से हुई। उन्होंने कोलकाता जाकर बम बनाना भी सीखा। 


1928 में ब्रिटेन से लार्ड साइमन के नेतृत्व में एक दल स्वतन्त्रता की स्थिति के अध्ययन के लिए भारत आया। लाहौर में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में इसके विरुद्ध बड़ा प्रदर्शन हुआ। इससे बौखलाकर पुलिस अधिकारी स्काॅट तथा सांडर्स ने लाठीचार्ज करा दिया। वयोवृद्ध लाला जी के सिर पर इससे भारी चोट आयी और वे कुछ दिन बाद चल बसे।


इस घटना से क्रान्तिवीरों का खून खौल उठा। उन्होंने कुछ दिन बाद सांडर्स को पुलिस कार्यालय के सामने ही गोलियों से भून दिया। पुलिस ने बहुत प्रयास किया; पर सब क्रान्तिकारी वेश बदलकर लाहौर से बाहर निकल गये। कुछ समय बाद दिल्ली में केन्द्रीय धारासभा का अधिवेशन होने वाला था। क्रान्तिवीरों ने वहाँ धमाका करने का निश्चय किया। इसके लिए भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त चुने गये। 


निर्धारित दिन ये दोनों बम और पर्चे लेकर दर्शक दीर्घा में जा पहुँचे। भारत विरोधी प्रस्तावों पर चर्चा शुरू होते ही दोनों ने खड़े होकर सदन मे बम फंेक दिया। उन्होंने ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए पर्चे फंेके, जिन पर क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्देश्य लिखा था।


पुलिस ने दोनों को पकड़ लिया। न्यायालय में भगतसिंह ने जो बयान दिये, उससे सारे विश्व में उनकी प्रशंसा हुई। भगतसिंह पर सांडर्स की हत्या का भी आरोप था। उस काण्ड में कई अन्य क्रान्तिकारी भी शामिल थे; जिनमें से सुखदेव और राजगुरु को पुलिस पकड़ चुकी थी। इन तीनों को 24 मार्च, 1931 को फाँसी देने का आदेश जारी कर दिया गया।


भगतसिंह की फाँसी का देश भर में व्यापक विरोध हो रहा था। इससे डरकर धूर्त अंग्रेजों ने एक दिन पूर्व 23 मार्च की शाम को इन्हेंे फाँसी दे दी और इनके शवों को परिवारजनों की अनुपस्थिति में जला दिया; पर इस बलिदान ने देश में क्रान्ति की ज्वाला को और धधका दिया। उनका नारा ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ आज भी सभा-सम्मेलनों में ऊर्जा का संचार कर देता है।


Thursday, September 24, 2020

नवदधीचि अनंत रामचंद्र गोखले

 सितम्बर/जन्म-दिवस

नवदधीचि अनंत रामचंद्र गोखले

अनुशासन प्रति अत्यन्त कठोर श्री अनंत रामचंद्र गोखले का जन्म 23 सितम्बर, 1918 (अनंत चतुर्दशी) को म.प्र. के खंडवा नगर में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनका हवेली जैसा निवास ‘गोखले बाड़ा’ कहलाता था। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के पिता श्री सदाशिव गोलवलकर जब खंडवा में अध्यापक थे, तब वे इस घर में ही रहते थे। 


नागपुर से इंटर करते समय गोखले जी धंतोली सायं शाखा में जाने लगे। एक सितम्बर, 1938 को वहीं उन्होंने प्रतिज्ञा ली। इंटर की प्रयोगात्मक परीक्षा वाले दिन उन्हें सूचना मिली कि डा. हेडगेवार ने सब स्वयंसेवकों को तुरंत रेशीम बाग बुलाया है। उन दिनों शाखा पर ऐसे आकस्मिक बुलावे (urgent call) के कार्यक्रम भी होते थे। जब गोखले जी वहां पहुंचे, तो डा. जी ने कहा कि तुम्हारी परीक्षा है, इसलिए तुम वापस जाओ। युवा गोखले जी इससे बहुत प्रभावित हुए कि डा. जी जैसे बड़े व्यक्ति को भी उनकी परीक्षा का ध्यान था।


डा. जी के निधन के बाद दिसम्बर, 1940 में नागपुर में अम्बाझरी तालाब के पास तरुण-शिविर लगा था। उसमें श्री गुरुजी ने युवाओं से प्रचारक बनने का आह्नान किया। गोखले जी कानून की प्रथम वर्ष की परीक्षा दे चुके थे; पर पढ़ाई छोड़कर वे प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें उ.प्र. के कानपुर नगर में भेजा गया। वहां के बाद उन्होंने उरई, उन्नाव, कन्नौज, फरुखाबाद, बांदा आदि में भी शाखाएं खोलीं। प्रवास और भोजन आदि के व्यय का कुछ भार कानपुर के संघचालक जी वहन करते थे, शेष गोखले जी अपने घर से मंगाते थे।


1948-49 में संघ पर प्रतिबंध लगा हुआ था; पर तब तक ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ का गठन हो चुका था। गोखले जी ने 150 स्वयंसेवकों को परिषद की ओर से ‘साक्षरता प्रसार’ के लिए गांवों में भेजा। ये युवक बालकों को खेल खिलाते थे तथा बुजुर्गो में भजन मंडली चलाते थे। प्रतिबंध हटने पर ये खेलकूद और भजन मंडली ही शाखा में बदल गयीं। इस प्रकार उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता से प्रतिबंध काल में भी सैकड़ों शाखाओं की वृद्धि कर दी। 


गोखले जी 1942 से 51 तक कानुपर, 1954 तक लखनऊ, 1955 से 58 तक कटक (उड़ीसा) और फिर 1973 तक दिल्ली में रहे। आपातकाल के दौरान उनका केन्द्र नागपुर रहा। तब उन पर मध्यभारत, महाकौशल और विदर्भ का काम था। आपातकाल के बाद उन पर कुछ समय मध्य भारत प्रांत का काम रहा। इस समय उनका केन्द्र इंदौर था। 1978 में वे फिर उ.प्र. में आ गये और पूर्वी उ.प्र. में जयगोपाल जी के साथ सहप्रांत प्रचारक बनाये गये।


गोखले जी को पढ़ने और पढ़ाने का शौक था। जब प्रवास में कष्ट होने लगा, तो उन्हें लखनऊ में ‘लोकहित प्रकाशन’ का काम दिया गया। उन्होंने इस दौरान 150 नयी पुस्तकें प्रकाशित कीं। तथ्यों की प्रामाणिकता और प्रूफ आदि पर वे बहुत ध्यान देते थे। वर्ष 2002 में वृद्धावस्था के कारण उन्होंने सब दायित्वों से मुक्ति ले ली और लखनऊ के ‘भारती भवन’ कार्यालय पर ही रहने लगे। घंटे भर की शाखा के प्रति उनकी श्रद्धा अंत तक बनी रही। चाय, भोजन आदि के लिए समय से पहुंचना उनके स्वभाव में था। अपने कमरे की सफाई और कपड़े धोने से लेकर पौधों की देखभाल तक वे बड़ी रुचि से करते थे। 


1991 में पुश्तैनी सम्पत्ति के बंटवारे से उन्हें जो भूमि मिली, वह उन्होंने संघ को दे दी। कुछ साल बाद प्रशासन ने पुल बनाने के लिए 19 लाख रु. में उसका 40 प्रतिशत भाग ले लिया। उस धन से वहां संघ कार्यालय भी बन गया, जिसका नाम ‘शिवनेरी’ रखा गया है। इसके बाद वहां एक इंटर कॉलिज की स्थापना की गयी, जिसमें दो पालियों में 2,500 छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं।



नारियल की तरह ऊपर से कठोर, पर भीतर से मृदुल, सैकड़ों प्रचारक और हजारों कार्यकर्ताओं के निर्माता गोखले जी का 25 मई, 2014 को लखनऊ में ही निधन हुआ।  



आचार्य तुलसीदास

 23 सितम्बर/पुण्य-तिथि


बहुआयामी व्यक्तित्व  : आचार्य तुलसी


भारत की पुण्य धरा पर अनेक ऋषियों, सन्तों तथा मनीषियों ने जन्म लेकर अपना तथा समाज का जीवन सार्थक किया है। ऐसे ही एक मनीषी थे आचार्य श्री तुलसी, जिनका जन्म 20 सितम्बर,  1914 को हुआ था। वे महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित जैन पन्थ की तेरापन्थ शाखा में मात्र 11 वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए और 22 वर्ष में इस धर्मसंघ के नौवें अधिशास्ता बन गये।


आचार्य तुलसी यों तो एक पन्थ के प्रमुख थे; पर उनका व्यक्तित्व सीमातीत था। अपनी मर्यादाओं का पालन करते हुए भी उनके मन में सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेम था। इसलिए सभी धर्म, मत और पन्थ, सम्प्रदायों के लोग उनका सम्मान करते थे। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था, जिसे पढ़ने के लिए किसी तरह के अक्षरज्ञान की भी आवश्यकता नहीं थी। इतना ही नहीं, उसे जितनी बार पढ़ो, हर बार नये अर्थ उद्घाटित होते थे। श्रद्धालु घण्टों उनके पास बैठकर उनके प्रवचन का आनन्द लेते थे।


आचार्य तुलसी अपने प्रवचन में गूढ़ तथ्यों को इतनी सरलता से समझाते थे कि सामान्य व्यक्ति को भी वे आसानी से समझ में आ जाते थे। यद्यपि उनकी भाषा व भाष्य अत्यन्त शुद्ध होते थे; फिर भी उनके चुम्बकीय आकर्षण से बँधकर लोग बैठे रहते थे। प्रवचन के समय उनकी वाणी ही नहीं, आँखें भी बोलती थीं। आचार्य जी कभी अनावश्यक बात नहीं करते थे; पर उनकी आँखों के संकेत मात्र से ही तेरापन्थ धर्मसंघ का अनुशासन चलता था। यह उनकी प्रशासनिक कुशलता का परिचायक है।


प्रखर बुद्धि एवं वक्तृत्व कौशल के धनी आचार्य जी आचरण व व्यवहार को भी अध्यात्म जितनी ही प्राथमिकता देते थे। इसलिए उनके प्रवचन एवं वार्तालाप में दैनन्दिन जीवन की समस्याओं एवं उनके समाधान की चर्चा भी होती थी। अपने पन्थ में काम करते हुए भी उनके मन में अनेक नये विषयों पर मन्थन होता रहता था। इसी को व्यवहार रूप देने के लिए दो मार्च, 1949 को राजस्थान के सरदार शहर कस्बे में विशाल जनसमूह के सम्मुख उन्होंने ‘अणुव्रत’ नामक एक नये आन्दोलन की नींव रखी।


अणुव्रत लोगों में नैतिकता जगाने का आन्दोलन था। अणु का अर्थ है छोटा और व्रत अर्थात संकल्प। आचार्य जी का मत था कि हम यदि जीवन में छोटा सा व्रत लेकर उसका निष्ठा से पालन करें, तो न केवल अपना अपितु परिवार एवं आसपास वालों का जीवन भी बदल जाता है। यह विषय इतना आसान था कि इससे जुड़ने वालों की संख्या क्रमशः बढ़ने लगी। लाखों लोगों ने अणुव्रत आन्दोलन से प्रेरित होकर हिंसा, मद्यपान, माँसाहार, झूठ, छल, कपट, फरेब आदि अवगुणों को त्याग दिया।


आचार्य जी जन-जन के कल्याण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। अणुव्रत को और अधिक सहज बनाने के लिए उन्होंने इसके साथ प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान को प्रचलित किया। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर स्वयं की अच्छाई एवं कमियों को जानने का प्रयास करता है। इसी प्रकार जीवन विज्ञान के द्वारा वे जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों के पीछे छिपे विज्ञान को सबके सम्मुख लाये।


अणुव्रत के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने व्यापक भ्रमण किया। जैन मत को वे व्यापक हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग मानते थे। वे विश्व हिन्दू परिषद् के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। जन-जन में जागृति का प्रचार-प्रसार करते हुए 23 सितम्बर, 1999 को उन्होंने सदा के लिए आँखें मूँद लीं।