
सुप्रीम कोर्ट - फोटो : सोशल मीडिया
सर्वोदयी सिद्धराज ढड्ढा
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान अनेक युवकों को गांधीवाद और आजादी के बाद सर्वोदय ने बहुत प्रभावित किया; पर कुछ बाद ही स्वदेशी, स्वभाषा, स्वभूषा तथा राष्ट्रवादी संस्कारों के आधार पर चलने वाले ये आन्दोलन अपने पथ से भटक गये। इससे सम्बद्ध अधिकांश लोग कांग्रेस में शामिल होकर सत्ता और भ्रष्टाचार की राजनीति में उतर गये; पर कुछ लोग ऐसे भी रहे, जिन्होंने आजीवन देशसेवा का वह मार्ग नहीं छोड़ा।
12 फरवरी, 1908 को जयपुर (राजस्थान) के एक अति सम्पन्न परिवार में जन्मे श्री सिद्धराज ढड्ढा ऐसे ही एक कर्मयोगी थे। उनके परिवार में हीरे-जवाहरात का पुश्तैनी काम होता था; पर इस सम्पन्नता के बावजूद उन्होंने स्वयंप्रेरित सादगी को स्वीकार किया था। वे अपने पुरखों की विशाल हवेली के एक कमरे में धरती पर दरी बिछाकर और सामने डेस्क रखकर काम करते थे। उनका आवास, अतिथिगृह, बैठक और कार्यालय सब वही था।
स्वतन्त्रता से पूर्व 1940-41 में वे 10,000 रु. मासिक की शाही नौकरी छोड़कर स्वेच्छा से गांधी जी और स्वाधीनता आन्दोलन के प्रति समर्पित हो गये। तब घर-परिवार ही नहीं, समाज ने भी उन्हें पागल कहा था। ऐसा ही पागलपन उन्होंने एक बार फिर दिखाया। 1947 के बाद जब देश में पहली लोकतान्त्रिक सरकार बनी, तो वे उसमें कैबिनेट मन्त्री बनाये गये; पर कुछ ही दिन बाद प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को गांधीवाद से एकदम विमुख होते देख उन्होंने उस मन्त्रीपद को ठोकर मार दी।
सिद्धराज जी का मानना था कि सत्याग्रह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। सच्चे सत्याग्रही को सदा काँटों के पथ पर चलने को तैयार रहना चाहिए। यदि वह भी सो जायेगा, तो शासक वर्ग को भ्रष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता। इसलिए स्वाधीनता के बाद भी देश में जहाँ कहीं शासन की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध कोई आन्दोलन खड़ा होता था, सिद्धराज जी वहाँ पहुँच जाते थे। कोई उन्हें आन्दोलन में भाग लेने के लिए बुलाये, वे इसकी प्रतीक्षा नहीं करते थे। स्वयंस्फूर्त प्रेरणा उन्हें वहाँ खींचकर ले जाती थी।
सिद्धराज जी को भौतिक सुख-सुविधाओं की जरूरत नहीं थी। अपने खर्चे पर बस या रेल, जो भी मिलता, वे उसमें बैठकर अपना सामान स्वयं उठाकर सत्याग्रहियों के साथ अग्रिम पंक्ति में खड़े हो जाते थे। 98 वर्ष की आयु में जब उनका देहान्त हुआ, उससे कुछ समय पूर्व वे विदेशी कम्पनी कोककोला के विरुद्ध चलाये जा रहे आन्दोलन में सक्रिय थे। वे प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के रोग से भी दूर थे। शासन द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दी जा रही खुली छूट के विरोध में उन्होंने ‘पद्मश्री’ की उपाधि ठुकरा दी।