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Thursday, December 24, 2020

अनुवाद का अर्थ एवं परिभाषाएं

 अनुवाद एक भाषा की बात को दूसरी भाषा में व्यक्त करने का नाम है। जिसकी उत्पत्ति अनु+वाद के संयोग से हुई है। जिसका अर्थ है


— बाद में कहना अर्थात् पहले कही हुई बात को पुनः नए सिरे से उसी भाषा या अन्य भाषा कहना ही अनुवाद है। हिंदी में इसके लिए उल्था, तर्जुमा, भाषांतर, व्याख्या, अनुवचन, लिप्यंतरण इत्यादि शब्द हैं। जबकि अंग्रेजी में इसके लिए Translation शब्द को पर्याय रूप में चुना गया है।

          जब पर्याय की बात प्रबल हुई तो अन्य भाषाओं में अनुवाद की प्रक्रिया भी तीव्र हुई। फलतः विद्वानों ने अनेक भाषाओं के अनुवाद के दौरान होने वाली कठिनाईयों और सुलभता को आकंते हुए इसके लिए कुछ सिद्धांत दिए हैं। जिन पर आगे चलकर विभिन्न आधारों पर अनुवाद सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया। उन्हीं सिद्धांतों की चर्चा नीचे की जाएगी।

अनुवाद संबंधी सिद्धांतों पर स्वतंत्र ग्रंथों का लेखन वस्तुतः बीसवीं शताब्दी से आरंभ हुआ है। इसी शताब्दी के दौरान साहित्यिक और भाषा-वैज्ञानिक पत्रिकाओं में अनुवाद पर लेखों का प्रकाशन आरंभ हुआ और अनुवाद संबंधी पत्रिकाएँ आरंभ हुई। विभिन्न कालों में पश्चिम में अनुवाद को तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। कुछ परिभाषाएँ हैं—

जे. सी. केटफोर्ट के अनुसार— अनुवाद स्रोत भाषा की पाठ-सामग्री को लक्ष्य भाषा के समानार्थी पाठ में प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया है।

सेंट जेरोम के अनुसार – अनुवाद में भाव की जगह भाव होना चाहिए न कि शब्द की जगह शब्द।

संदर्भ ग्रंथसूची बनाने का आसान तरीका

 संदर्भ ग्रंथसूची

Friday, December 18, 2020

माता पिता का सम्मान करने के उपाय

  माता पिता का सम्मान करने के उपाय

1. उनकी उपस्थिति में अपने फोन को दूर रखो.

2. वे क्या कह रहे हैं इस पर ध्यान दो.

3. उनकी राय स्वीकारें.

4. उनकी बातचीत में सम्मिलित हों.

5. उन्हें सम्मान के साथ देखें.

6. हमेशा उनकी प्रशंसा करें.

7. उनको अच्छा समाचार जरूर बताएँ.

8. उनके साथ बुरा समाचार साझा करने से बचें.

9. उनके दोस्तों और प्रियजनों से अच्छी तरह से बोलें.

10. उनके द्वारा किये गए अच्छे काम सदैव याद रखें.

11. वे यदि एक ही कहानी दोहरायें तो भी ऐसे सुनें जैसे पहली बार सुन रहे हो.

12. अतीत की दर्दनाक यादों को न दोहरायें.

13. उनकी उपस्थिति में कानाफ़ूसी न करें.

14. उनके साथ तमीज़ से बैठें.

15. उनके विचारों को न तो घटिया बताये न ही उनकी आलोचना करें.

16. उनकी बात काटने से बचें.

17. उनकी उम्र का सम्मान करें.

18. उनके आसपास उनके पोते/पोतियों को अनुशासित करने अथवा मारने से बचें.

19. उनकी सलाह और निर्देश स्वीकारें.

20. उनका नेतृत्व स्वीकार करें.

21. उनके साथ ऊँची आवाज़ में बात न करें.

22. उनके आगे अथवा सामने से न चलें.

23. उनसे पहले खाने से बचें.

24. उन्हें घूरें नहीं.

25. उन्हें तब भी गौरवान्वित प्रतीत करायें जब कि वे अपने को इसके लायक न समझें.

26. उनके सामने अपने पैर करके या उनकी ओर अपनी पीठ कर के बैठने से बचें.

27. न तो उनकी बुराई करें और न ही किसी अन्य द्वारा की गई उनकी बुराई का वर्णन करें.

28. उन्हें अपनी प्रार्थनाओं में शामिल करें.

29. उनकी उपस्थिति में ऊबने या अपनी थकान का प्रदर्शन न करें.

30. उनकी गलतियों अथवा अनभिज्ञता पर हँसने से बचें.

31. कहने से पहले उनके काम करें.

32. नियमित रूप से उनके पास जायें.

33. उनके साथ वार्तालाप में अपने शब्दों को ध्यान से चुनें.

34. उन्हें उसी सम्बोधन से सम्मानित करें जो वे पसन्द करते हैं.

35. अपने किसी भी विषय की अपेक्षा उन्हें प्राथमिकता दें.

Sunday, November 29, 2020

रामचरित मानस के कुछ रोचक तथ्

 रामचरित मानस के कुछ रोचक तथ्य


1:~लंका में राम जी = 111 दिन रहे।

2:~लंका में सीताजी = 435 दिन रहीं।

3:~मानस में श्लोक संख्या = 27 है।

4:~मानस में चोपाई संख्या = 4608 है।

5:~मानस में दोहा संख्या = 1074 है।

6:~मानस में सोरठा संख्या = 207 है।

7:~मानस में छन्द संख्या = 86 है।

8:~सुग्रीव में बल था = 10000 हाथियों का।

9:~सीता रानी बनीं = 33वर्ष की उम्र में।

10:~मानस रचना के समय तुलसीदास की उम्र = 77 वर्ष थी।

11:~पुष्पक विमान की चाल = 400 मील/घण्टा थी।

12:~रामादल व रावण दल का युद्ध = 87 दिन चला।

13:~राम रावण युद्ध = 32 दिन चला।

14:~सेतु निर्माण = 5 दिन में हुआ।


15:~नलनील के पिता = विश्वकर्मा जी हैं।

16:~त्रिजटा के पिता = विभीषण हैं।


17:~विश्वामित्र राम को ले गए =10 दिन के लिए।

18:~राम ने रावण को सबसे पहले मारा था = 6 वर्ष की उम्र में।

19:~रावण को जिन्दा किया = सुखेन बेद ने नाभि में अमृत रखकर।


श्री राम के दादा परदादा का नाम क्या था?

नहीं तो जानिये-

1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,

2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,

3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,

4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,

5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |

6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,

7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,

8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,

9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,

10- अनरण्य से पृथु हुए,

11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,

12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,

13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,

14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,

15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,

16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,

17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,

18- भरत के पुत्र असित हुए,

19- असित के पुत्र सगर हुए,

20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,

21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,

22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,

23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |

24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |

25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,

26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,

27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,

28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,

29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,

30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,

31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,

32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,

33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,

34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,

35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,

36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,

37- अज के पुत्र दशरथ हुए,

38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |

इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ | शेयर करे ताकि हर हिंदू इस जानकारी को जाने..।

Saturday, November 28, 2020

भारतेन्दु हरिश्चंद के अनूदित नाटक

 भारतेन्दु हरिश्चंद के अनूदित नाटक  

रत्नावली (1868), 

धनंजय विजय(1873), 

पाखण्ड विडंबन(1872), 

मुद्राराक्षस (1875), 

कर्पूरमंजरी (1876), 

दुर्लभ बंधु (1880), 

विद्यासुन्दर आदि अनूदित नाटक हैं जो संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी से अनूदित हैं। विद्यासुन्दर रूपान्तरित नाटक है।


Monday, November 9, 2020

पेट के रोग और उनके समाधान

 पेट के रोग


अरूचि

*पहला प्रयोगः सोंठ और गुड़ को चाटने से अथवा लहसुन की कलियों को घी में तलकर रोटी के साथ खाने से अरूचि मिटती है।


*दूसरा प्रयोगः नींबू की दो फाँक करके उसके ऊपर सोंठ, काली मिर्च एवं जीरे का पाउडर तथा सेंधा नमक डालकर थोड़ा-सा गर्म करके चूसने से अरूचि मिटती है।


*तीसरा प्रयोगः अनार के रस में सेंधा नमक व शहद मिलाकर लेने से लाभ होता है।


 

 *💫आफरा व पेटदर्द

 *पहला प्रयोगः पेट पर हींग लगाने तथा हींग की चने जितनी गोली को घी के साथ निगलने से आफरा मिटता है।


*दूसरा प्रयोगः छाछ में जीरा एवं सेंधा नमक या काला नमक डालकर पीने से पेट नहीं फूलता।


*तीसरा प्रयोगः 1 से 2 ग्राम काले नमक के साथ उतनी ही सोनामुखी खाने से वायु का गोला मिटता है।


*चौथा प्रयोगः भोजन के पश्चात् पेट भारी होने पर 4-5 इलायची के दाने चबाकर ऊपर से नींबू का पानी पीने से पेट हल्का होता है।


*पाँचवाँ प्रयोगः गर्म पानी के साथ सुबह-शाम 3 ग्राम त्रिफला चूर्ण लेने से पत्थर जैसा पेट मखमल जैसा नर्म हो जाता है।


*छठा प्रयोगः अदरक एवं नींबू का रस 5-5 ग्राम एवं 3 काली मिर्च का पाउडर दिन में दो-तीन बार लेने से उदरशूल मिटता है।


*सातवाँ प्रयोगः काली मिर्च के 10 दानों को गुड़ के साथ पकाकर खाने से लाभ होता है।


*आठवाँ प्रयोगः प्रातःकाल एक गिलास पानी में 20-25 ग्राम पुदीने का रस व 20-25 ग्राम शहद मिलाकर पीने से गैस की बीमारी में विशेष लाभ होता है।


नौवाँ प्रयोगः

 पेट में दर्द रहता हो व आँतें ऊपर की ओर आ गई है ऐसा आभास होता हो तो पेट पर अरण्डी का तेल लगाकर आक के पत्ते को थोड़ा गर्म करके बाँध दें। एक घंटे तक बँधा रहने दें। रात को एक चम्मच अरण्डी का तेल व एक चम्मच शिवा का चूर्ण लें। गोमूत्र का सेवन हितकर है। पचने में भारी हो ऐसी वस्तुएँ न खायें।


दसवाँ प्रयोगः

 वायु के प्रकोप के कारण पेट के फूलने एवं अपानवायु के न निकलने के कारण पेट का तनाव बढ़ जाता है। जिससे बहुत पीड़ा होती है एवं चलना भी मुश्किल हो जाता है। अजवायन एवं काला नमक को समान मात्रा में मिलाकर इस मिश्रण को गर्म पानी के साथ एक चम्मच लेने से उपरोक्त पीड़ा में लाभ होता है।



Friday, October 30, 2020

जुगल किशोर जैथलिया

 कर्मपथ के पथिक जुगल किशोर जैथलिया


राजस्थान में जन्म लेकर कोलकाता को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले श्री जुगल किशोर जैथलिया का जन्म दो अक्तूबर, 1937 को छोटीखाटू (जिला नागौर) में हुआ था। उनके पिता श्री कन्हैया लाल एवं माता श्रीमती पुष्पादेवी थीं। अकेले पुत्र होने के कारण 15 वर्ष में ही उनका विवाह कर दिया गया। 


1953 में वे कोलकाता आ गये, जहां उनके पिताजी एक राजस्थानी फर्म में काम करते थे। जुगलजी ने यहां काम के साथ पढ़ाई जारी रखी और कानून और एम.काॅम की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान वे एक वकील के पास बैठने लगे और फिर अलग से आयकर सलाहकार के रूप में काम शुरू कर दिया।


जुगलजी का रुझान साहित्यिक गतिविधियों की ओर विशेष था। कोलकाता आकर भी वे अपनी जन्मभूमि से जुड़े रहे। उन्होंने अपने मित्रों के साथ 1958 में ‘श्री छोटीखाटू हिन्दी पुस्तकालय’ की स्थापना की। यहां पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन के साथ विचार गोष्ठियां भी होती थीं, जिसमें वे सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक जगत की बड़ी हस्तियों को बुलाते थे। 


पुस्तकालय के भवन का उद्घाटन उन्होंने प्रख्यात साहित्यकार वैद्य गुरुदत्त से कराया। इससे उस गांव की पहचान पूरे प्रदेश में हो गयी। इसके बाद ‘पंडित दीनदयाल साहित्य सम्मान’ तथा ‘महाकवि कन्हैयालाल सेठिया मायड़ भाषा सम्मान’ प्रारम्भ किये। कई स्मारिकाएं भी प्रकाशित की गयीं। गांव में टेलीफोन, पेयजल, अस्पताल जैसे लोक कल्याण के कामों में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।


कोलकाता में राजस्थान परिषद, सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय, बड़ाबाजार लाइब्रेरी आदि के उन्नयन में उनकी भूमिका सदा याद की जाएगी। 1973 में उन्होंने ‘श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय’ का काम संभाला और उसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलाई। इसमें श्री विष्णुकांत शास्त्री का भी विशेष योगदान रहा। 


उनके संयोजन में आपातकाल के दौरान हल्दीघाटी चतुःशती समारोह एवं कवि सम्मेलन हुआ। 1994 में अटल बिहारी वाजपेयी का एकल काव्यपाठ तो अद्भुत था। आज अटलजी की जो कविताएं उनके स्वर में उपलब्ध हैं, वे उसी कार्यक्रम की देन हैं। संस्था द्वारा 1986 से ‘स्वामी विवेकानंद सेवा सम्मान’ तथा 1990 से ‘डा. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान’ भी दिया जा रहा है। 


जुगलजी स्मारिकाओं के प्रकाशन पर विशेष जोर देते थे। इससे जहां संस्था की आर्थिक स्थिति सुधरती थी, वहां उस विषय पर अधिकृत जानकारी भी पाठकों को उपलब्ध होती थी। गद्य एवं पद्य के कई गं्रथों का सम्पादन उन्होंने स्वयं किया। 65 वर्ष के होने पर उन्होंने वकालत छोड़ दी और पूरा समय सामाजिक कामों में लगाने लगे। 


वे कोलकाता की कई संस्थाओं के सदस्य थे। उनके प्रयास से कोलकाता में महाराणा प्रताप की स्मृति में एक पार्क तथा सड़क का नामकरण हुआ तथा एक बड़ी कांस्य प्रतिमा स्थापित हुई। वे भारत सरकार द्वारा संचालित ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के निदेशक एवं न्यासी भी थे। उनके प्रयास से इस संस्था ने राजस्थानी भाषा में भी पुस्तकें प्रकाशित कीं।


जुगलजी 1946 में अपने गांव में शाखा जाने लगे थे। कोलकाता में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और फिर संघ में सक्रिय रहे। उन पर महानगर बौद्धिक प्रमुख और फिर प्रांत के सह बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी रही। 1982 में वे भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर जोड़ाबागान विधानसभा से चुनाव लड़े। वे बंगाल भा.ज.पा. के कोषाध्यक्ष तथा वरिष्ठ उपाध्यक्ष भी रहे। 


कोलकाता में बड़ी संख्या में राजस्थानी व्यापारी रहते हैं। अपने मूल स्थानों के अनुसार उनकी संस्थाएं भी हैं। उन्हें एक साथ लाने और संघ से जोड़ने में जुगलजी की भूमिका बड़े महत्व की रही। वे पृष्ठभूमि में रहकर सभी शैक्षिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं का सहयोग करते थे। अनेक सम्मानों से विभूषित जुगल किशोर जैथलिया का एक जून, 2016 को कोलकाता में ही निधन हुआ।